जोखिम लेने से नहीं घबराती कृतिका कामरा
एक दशक पहले ‘यहां के हम सिकंदर’ से अपने कॅरियर का आगाज करने वाली अभिनेत्री कृतिका कामरा की ताजातरीन पेशकश लाइफ ओके पर ‘प्रेम या पहेली चंद्रकांता’ है।
By Srishti VermaEdited By: Updated: Sat, 18 Mar 2017 12:16 PM (IST)
यह देवकीनंदन खत्री के मशहूर उपन्यास पर आधारित है। इस बार कहानी में काफी फेरबदल किया गया है। शो कुछ तो लोग कहेंगे में उनका डा. निधि का किरदार काफी चर्चित रहा था...
100 साल का सफरकृतिका कहती हैं, ‘यहां कहानी ने 100 साल का सफर तय किया है। चंद्रकांता और राजकुमार वीरेंद्र विक्रम सिंह का पुनर्जन्म हुआ है। इस बात का इल्म उन्हें है। फिर वे निकल पड़ते हैं तिलिस्मी दुनिया की गुत्थी सुलझाने। यहां यह हुआ है कि चंद्रकांता को भी बराबर का दर्जा दिया गया है। वह एक बेचारी हसीना नहीं है। दोनों की सम्मिलित ताकत ही गुत्थी सुलझा सकती है। चंद्रकांता जानती है कि वह खूबसूरत है। जरूरत पड़ने पर वह जायज तरीके से इसका इस्तेमाल करना जानती है।
जुड़ाव महसूस करेंगे लोगकृतिका का कहना है कि शो में देवकीनंदन जी के किरदारों को आज के हिसाब से नई सोच और नई शक्ल दी है। यह समझने की कोशिश की गई है कि किस्मत इन्हें मिलाएगी या कोई साजिश। यह भी कि कर्तव्य और प्रेम में ज्यादा अहम कौन है। वक्त आने पर इनमें से किसकी कुर्बानी देनी चाहिए। चंद्रकांता इन सबसे वाकिफ है। उसे जान-बूझकर सुपरनेचुरल पॉवर से नहीं लैस किया गया है। वह अपने
फैसलों से सुपर विमेन बनती है। आज के दौर की मजबूत इच्छाशक्ति वाली लड़कियां इसकी इस खूबी से जुड़ाव महसूस करेंगी। टीवी की जो ऑडिएंस अपनी नायिका में हीरो की तलाश करती है, वह खोज भी पूरी होगी। हालांकि पुराने जमाने से लोगों को असल जीवन में मजबूत शख्सियत वाली औरतें पसंद नहीं रही हैं। राजकुमार वीरेंद्र विक्रम सिंह भी कहीं वही तो नहीं, यह भी इस शो में है।
फैसलों से सुपर विमेन बनती है। आज के दौर की मजबूत इच्छाशक्ति वाली लड़कियां इसकी इस खूबी से जुड़ाव महसूस करेंगी। टीवी की जो ऑडिएंस अपनी नायिका में हीरो की तलाश करती है, वह खोज भी पूरी होगी। हालांकि पुराने जमाने से लोगों को असल जीवन में मजबूत शख्सियत वाली औरतें पसंद नहीं रही हैं। राजकुमार वीरेंद्र विक्रम सिंह भी कहीं वही तो नहीं, यह भी इस शो में है।
डिजिटल मंच से राहें आसानकृतिका कहती हैं कि आजकल लोगों की दकियानूसी सोच को दूर करने में ट्विटर व इंस्टाग्राम जैसे मंच सहायक सिद्ध हो रहे हैं। वहां हम अपनी मूल सोच जाहिर करते हैं। हालांकि अब भी लड़कियों की स्वतंत्र सोच पर हमले होते हैं। मसलन, हालिया गुरमेहर मामला। वह शांति की बात करना चाहती है, जिसे लोग खारिज कर देना चाहते हैं। हम कलाकार भी जब कभी खुलकर बात रखने की बात करते हैं तो ट्रोलिंग का शिकार होते हैं। बहरहाल, यहीं से स्वीकार्यता की राहें बनेंगी, क्योंकि बहस के लिए जगह तो बन ही रही है। चुनौतियां हैं चहुंओर कृतिका का कहना है कि कला का गला घोंटा जाना तो कहीं से जायज नहीं है, लेकिन यह हो रहा है। यह गलत है। सौ-दो सौ लोगों की यूनिट मिलकर एक फिल्म या शो बनाती है। मगर 10-15 सड़क छाप लोगों की संवेदनाएं आहत हो जाती हैं और वे पहुंच जाते हैं कला का गला घोंटने। ऐसी घटनाओं पर सरकार व सिस्टम की चुप्पी खतरनाक है। ऐसे में हम कैसे प्रगतिवादी हो पाएंगे और हम अपनी अगली पीढ़ी को महज तालिबानी समाज देकर रह जाएंगे। यह रवैया उस सोच का सूचक है, जो बेटियों को कोख में ही मार देने की पैरोकारी करते हैं। ऐसी सोच की गिरफ्त में औरतें भी हैं। तभी मेनका गांधी की तरफ से बयान आते हैं कि 18 की उम्र में लड़कियां बहक सकती हैं।अशोक नगर से मायानगरीकृतिका कहती हैं कि मैं मध्य प्रदेश के छोटे से इलाके अशोक नगर से आती हूं, पर बेहद खुली सोच वाले माहौल में पली-बढी हूं। मैं दिल्ली के निफ्ट जैसे प्रतिष्ठित संस्थान की छात्रा रही। वहां राह चलते हुए किसी ने ऑडिशन देने को कहा। मुझे लगा कि परफॉरमिंग आट्र्स में मैं अच्छा कर सकती हूं। तब मैं मुंबई आ गई। लगातार काम करती रही। अब आपके सामने हूं।फैसलों पर पाबंदी नाजायजकृतिका का कहना है तब कॉलेज के दोस्तों ने मुझे रोका था। बहुत से लोगों ने कहा भी कि मैं निफ्ट जैसे संस्थानों को मिल रही सरकारी सब्सिडी को वेस्ट कर रही हूं, लेकिन मैंने अपनी इंस्टिंक्ट को फॉलो किया था। आज मैंने नाम और दाम दोनों हासिल किया है। बहरहाल सब्सिडी वाले सवाल पर यही कहूंगी कि ऐसे संस्थानों में दाखिला मेरिट के आधार पर होता है। वे सुविधाएं अर्जित करते हैं। उन्हें खैरात में नहीं मिलतीं। साथ ही अगर हम उस पढ़ाई के मुकाबले ज्यादा इन्कम टैक्स नौकरी से देते हैं तो अपराध बोध की गुंजाइश नहीं रह जाती।प्रस्तुति- अमित कर्ण