अलोक धन्वा हिंदी के उन बड़े
कवियों में से एक हैं, जिन्होंने 70
के दशक में कविता को अलग पहचान दी। अब तक उनका एकमात्र कविता संग्रह 'दुनिया रोज बनती है' ही पाठकों के सामने आया है, पर इन कविताओं के माध्यम से वे जनमानस पर छा गए और इनका अनुवाद अंग्रेजी और रूसी सहित कई भाषा
By Edited By: Updated: Mon, 12 May 2014 01:20 PM (IST)
अलोक धन्वा हिंदी के उन बड़े कवियों में से एक हैं, जिन्होंने 70 के दशक में कविता को अलग पहचान दी। अब तक उनका एकमात्र कविता संग्रह 'दुनिया रोज बनती है' ही पाठकों के सामने आया है, पर इन कविताओं के माध्यम से वे जनमानस पर छा गए और इनका अनुवाद अंग्रेजी और रूसी सहित कई भाषाओं में हुआ। तमाम सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों से लगातार जुड़े रहे आलोक धन्वा को उनकी रचनाधर्मिता के लिए पहल सम्मान, नागार्जुन सम्मान, फिराक गोरखपुरी सम्मान, गिरिजा कुमार माथुर सम्मान, भवानी प्रसाद मिश्र स्मृति सम्मान मिल चुका है। इन दिनों वे बिहार संगीत नाटक अकादमी (पटना) के अध्यक्ष हैं।
एक लंबे अरसे बाद आपने कविताएं लिखनी शुरू कीं। साहित्य जगत से इस विछोह की वजह क्या है? यह सच है कि एक कविता संग्रह आने के बाद मैंने कविताएं न के बराबर लिखीं। मात्र कविता रचना ही जीवन की अभिव्यक्ति नहीं है। इतने दिनों तक मैं लगातार सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलनों में जनता के शोषण के खिलाफ हिस्सा लेता रहा हूं। इससे मुझे कविता के बराबर सार्थकता महसूस होती है। दोबारा कविताएं लिखने की शुरुआत का श्रेय मैं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय (वर्धा) के प्रवास को देना चाहता हूं। वहां मुझे एकांत मिला, लिखने-पढ़ने की सुविधा मिली, तो मैं दोबारा कविता लिखने लगा। नए चरण में अब तक 20 से अधिक कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। भारतीय कवियों पर आप सबसे
अधिक किनकी विचारधारा का प्रभाव मानते हैं? भक्तिकालीन कवियों की कविताओं ने लोक चेतना को प्रभावित किया है। भक्तिकालीन कवियों ने ही बताया कि मनुष्य को किसी खास जाति-संप्रदाय और पाखंड से बंधना नहीं चाहिए, क्योंकि मनुष्य ही महत्वपूर्ण है। उन्होंने क्रांतिकारी कवियों को हमेशा प्रेरित किया। हिंदी के जो बड़े कवि हुए हैं, उन्होंने भी भक्तिकालीन कवियों से प्रेरणा ली। आधुनिक हिंदी साहित्य काल में सुभद्रा कुमारी चौहान, जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त पर भी भक्तिकालीन कवियों का प्रभाव पड़ा। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, जिन्हें मैं सबसे बड़ा कवि मानता हूं, पर भी उनका प्रभाव पड़ा।
आपके प्रिय रचनाकार कौन हैं? प्रेमचंद और निराला 'विश्व रचनाकार' हैं। ये हमारे महान सांस्कृतिक नेता हैं। महादेवी वर्मा एक बड़ी कवयित्री हैं। उनके गद्य ने स्त्री-विमर्श का आदि-द्वार खोला। निराला के बाद पांच महान कवि नागार्जुन, मुक्तिबोध, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल,त्रिलोचन शास्त्री हैं। इन लोगों ने हिंदी काव्यधारा को समृद्ध किया है। वे ऐसे कवि थे, जिनकी कविताओं ने सामाजिक और मानवीय प्रतिबद्धता को बहुत अधिक विकसित किया। आलोचनात्मक यथार्थवाद को भी विकसित किया। आपको कविता रचने की प्रेरणा कहां से मिलती है? मैं एक इत्तफाकन कवि हूं। मैं मुंगेर के एक गांव बेलबिहमा में पैदा हुआ, जो चारों तरफ छोटे पहाड़ों से उतरनेवाली छोटी-छोटी नदियों से घिरा है। जब मुंगेर के जिला स्कूल में मुझे दाखिला मिला, तो यहां भी गंगा से नजदीकी बनी रही। ऐसे प्राकृतिक वातावरण में कविताओं की रचना करना तो सहज स्वाभाविक बात है। यहां एक पुस्तकालय है श्रीकृष्ण सेवा सदन, जहां बहुत छोटी उम्र से ही मैं बैठने लगा और भिन्न-भिन्न साहित्यकारों की पुस्तकें पढ़ने लगा। मूलत: विज्ञान का छात्र होने के बावजूद साहित्य से लगाव हो गया। दरअसल समाज और प्रकृति दोनों से कवियों को प्रेरणा मिलती है। आप किन कवियों की कविताओं से प्रेरित होते हैं? सूरदास, मीरा और कबीर मेरे मन के बहुत निकट रहे हैं। बांग्ला के कवियों चंडीदास, रामप्रसाद का भी मुझ पर प्रभाव पड़ा है। रविंद्रनाथ ठाकुर, काजी नजरूल इस्लाम की भी कविताएं पढ़ता था। कभी-कभी मराठी के संत तुकाराम की कविताएं भी पढ़ लेता था। भक्तिकालीन कवि ईश्वर से संवाद करते थे, ऐसा माना जाता है। कविताओं से इतर बात करें तो प्रेमचंद, शरतचंद, रवींद्रनाथ ठाकुर के उपन्यासों ने मेरे मन का विस्तार किया। वॉल्ट हिटमैन (अमेरिका), लियो टॉलस्टॉय (रूस), गोर्की (रूस), हेमिंग्वे, सार्त्र (फ्रांस), कामू (फ्रांस), सिमोन द बुवा (फ्रांस) आदि विदेशी साहित्यकारों से भी मैं प्रभावित रहा। राजनीतिक विचारकों में मैं लेनिन, फिदेल कास्त्रो, नेल्सन मंडेला से सहमत हूं। आप सामाजिक आंदोलनों में भी समयस मय पर भाग लेते रहते हैं। क्या इससे कविता रचने में बाधा नहीं होती है? नहीं। अगर आजादी से पहले देश में कम्युनिस्ट पार्टियां और समाजवादी दल नहीं होते, तो हिंदी के साहित्यकार बहुत पीछे रह जाते। इन्होंने भारतीय रचनाकारों को प्रेरित किया। कई बार आंदोलन आगे और रचनाकार पीछे, तो रचनाकार आगे और आंदोलन उनके पीछे-पीछे चलते रहे। मैं तो ऐसे उद्देश्यों के लिए साहित्यकारों से एकजुट होने की अपील करता हूं। चाहता हूं कि भारत गणराज्य की बुनियाद लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर टिकी रहे। वे इस बुनियाद को बचाएं, क्योंकि यह संकट में है। सामाजिक आंदोलनों में भागीदारी बढ़ाने की भी उनसे अपेक्षा करता हूं। हिंदी के लेखकों और पाठकों की संख्या में इन दिनों जबर्दस्त वृद्धि हुई है,कारण? हिंदी में इन दिनों जो कविता-कहानियां लिखी जा रही हैं, उन्हें बहुत उम्मीद की नजर से देखता हूं। युवा साहित्यकार हिंदी को बहुत आगे बढ़ाएंगे। नए लोगों ने बहुत आगे जाकर यथार्थ को देखा है। उन्होंने यथार्थ की कई नई परतें खोली हैं। वे सामाजिक जीवन की सच्चाइयां भी लोगों के सामने रखने में कामयाब हुए हैं। इसी वजह से हिंदी में पाठकों की संख्या में जबर्दस्त वृद्धि हुई है। यह हिंदी जगत के लिए शुभ संकेत है! (स्मिता)