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लघुकथा: शोक की लहर

अपनी प्राइवेट नौकरी से प्राप्त दो हजार रूपये के मासिक वेतन से इस भीषण मँहगाई में वह दीपावली की खुशियां कैसे खरीदे? रघु यह सोचकर मन-ही-मन व्याकुल हो रहा था।

By Babita kashyapEdited By: Updated: Tue, 25 Oct 2016 04:00 PM (IST)
दीपावली के पांच दिन ही शेष रह गए थे। वह इस बार भी बीवी को धनतेरस पर सोने की अँगूठी, बच्चों को नए कपड़े व पटाखे दिलवाने का वादा निभा पाएगा या फिर पिछली बार की तरह अपने बीवी-बच्चों के अरमानों को पूरा करने में असफल रहेगा। अपनी प्राइवेट नौकरी से प्राप्त दो हजार रूपये के मासिक वेतन से इस भीषण मँहगाई में वह दीपावली की खुशियां कैसे खरीदे? रघु यह सोचकर मन-ही-मन व्याकुल हो रहा था।

अचानक आज की डाक से मिले अपनी बुआजी के देहांत के शोक-संदेश ने उसकी सारी चिंताओंपर विराम लगा दिया। घर पहुँचते ही ने जेब में प्रमाणस्वरूप सुरक्षित रखे शोक-संदेश को दिखाकर परिवार में बुआजी के निधन के कारण शोक होने से दीपावली नहीं मनाने की घोषणा कर दी। इस सशक्त सामाजिक मजबूरी के आगे रघु के मघ्यमवर्गीय परिवार ने भी कोई प्रतिकार करना उचित नहीं समझा। अचानक बाहर से पटाखों की आवाज सुनाई दी। रघु का पाँच साल का लड़का खिड़की की ओर दौड़ा, पर कुछ सोचकर रुक गया। भोलेपन से बोला, ''पापा! शोक में पटाखे छूटते हुए देखना मना है ना !''

बच्चे की बात सुनकर रघु का गला रुंध गया। बीवी की पलकों की भीगी कोरों को देखकर अपनी विवशता की छटपटाहट से रघु दहाड़ मारकर रोने लगा। रघु के घर में शोक की लहर छा गई।

साभार: लघुकथा.कॉम

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