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यहां मां की एक झलक से दूर होती है हर तकलीफ

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा स्थित बज्रेश्वरी शक्तिपीठ मां का एक ऐसा धाम है, जहां पहुंचकर भक्तों का हर दुख-तकलीफ मां की एक झलक भर देखने से दूर हो जाते हैं। ब्रजेश्वरी देवी धाम 52 शक्तिपीठों में से मां की वह शक्तिपीठ जहां सती का दाहिना वक्ष गिरा था

By Neeraj Kumar Azad Edited By: Updated: Thu, 07 Apr 2016 03:40 PM (IST)
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बज्रेश्वरी धाम कांगड़ा में गिरा था सती का दाहिना वक्ष
धर्मशाला (दिनेश कटोच) : हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा स्थित बज्रेश्वरी शक्तिपीठ मां का एक ऐसा धाम है, जहां पहुंचकर भक्तों का हर दुख-तकलीफ मां की एक झलक भर देखने से दूर हो जाते हैं। ब्रजेश्वरी देवी धाम 52 शक्तिपीठों में से मां की वह शक्तिपीठ जहां सती का दाहिना वक्ष गिरा था और जहां तीन धर्मों के प्रतीक के रूप में मां की तीन पिंडियों की पूजा होती है। पुराने समय में नगरकोट धाम से मशहूर अब कांगड़ा मां के शक्तिपीठों में से एक है।

पौराणिक इतिहास
कहते हैं कि जब मां सती ने पिता द्वारा किए गए शिव के अपमान से कुपित होकर अपने पिता राजा दक्ष के यज्ञ कुंड में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए थे, तब क्रोधित शिव उनकी देह को लेकर पूरी सृष्टि में घूमे। शिव का क्रोध शांत करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने चक्र से माता सती के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। शरीर के यह टुकड़े धरती पर जहां-जहां गिरे वह स्थान शक्तिपीठ कहलाए। मान्यता है कि यहां माता सती का दाहिना वक्ष गिरा था इसलिए यहां पर बज्रेश्वरी धाम शक्तिपीठ में मां के वक्ष की पूजा होती है।

तीन धर्मों के प्रतीक में मां की तीन पिंडियों की होती है पूजा
माता बज्रेश्वरी का शक्तिपीठ अपने आप में अनूठा और विशेष भी है। यहां मात्र हिंदू भक्त ही शीश नहीं झुकाते बल्कि मुस्लिम और सिख धर्म के श्रद्धालु भी इस धाम में आकर आस्था के फूल चढ़ाते हैं। बज्रेश्वरी देवी मंदिर के तीन गुंबद इन तीन धर्मों के प्रतीक हैं। पहला हिंदू धर्म का प्रतीक है, जिसकी आकृति मंदिर जैसी है तो दूसरा मुस्लिम समाज का और तीसरा गुंबद सिख संप्रदाय का प्रतीक है। तीन गुंबद वाले और तीन संप्रदायों की आस्था का केंद्र कहे जाने वाले माता के इस धाम में मां की पिडियां भी तीन ही हैं। मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित यह पहली और मुख्य पिंडी मां बज्रेश्वरी की है। दूसरी मां भद्रकाली और तीसरी और सबसे छोटी पिंडी मां एकादशी की है। मां के इस शक्तिपीठ में ही उनके परम भक्त ध्यानु ने अपना शीश अर्पित किया था। इसलिए मां के वह भक्त जो ध्यानु के अनुयायी भी हैं, वह पीले रंग के वस्त्र धारण कर मंदिर में आते हैं और मां का दर्शन पूजन कर स्वयं को धन्य करते हैं।

पांच बार होती है मां की आरती
कहते हैं जो भी भक्त मन में सच्ची श्रद्धा लेकर मां के इस दरबार में पहुंचता है उसकी कोई भी मनोकामना अधूरी नहीं रहती। फिर चाहे मनचाहे जीवनसाथी की कामना हो या फिर संतान प्राप्ति की लालसा, मां अपने हर भक्त की मुराद पूरी करती हैं। मां के इस दरबार में पांच बार आरती का विधान है, जिसका गवाह बनने की ख्वाहिश हर भक्त के मन में होती है। सुबह मंदिर के कपाट खुलते ही सबसे पहले मां की शैय्या को उठाया जाता है। उसके बाद रात्रि शृंगार में ही मां की मंगला आरती की जाती है। मंगला आरती के बाद मां का रात्रि शृंगार उतार कर उनकी तीनों पिंडियों का जल, दूध, दही, घी, और शहद के पंचामृत से अभिषेक किया जाता है। इसके बाद पीले चंदन से मां का शृंगार कर उन्हें नए वस्त्र और सोने के आभूषण पहनाए जाते हैं। इसके बाद चना पूरी, फल और मेवे का भोग लगाकर संपन्न होती है मां की प्रात:कालीन आरती। यहां, दोपहर की आरती और भोग चढ़ाने की रस्म को गुप्त रखा जाता है। दोपहर की आरती के लिए मंदिर के कपाट बंद रहते हैं, तब श्रद्धालु मंदिर परिसर में ही बने एक विशेष स्थान पर अपने बच्चों का मुंडन करवाते हैं। मान्यता है कि यहां बच्चों का मुंडन करवाने से मां बच्चों के जीवन की समस्त आपदाओं को हर लेती हैं।
दोपहर बाद मंदिर के कपाट दोबारा भक्तों के लिए खोल दिए जाते हैं और भक्त मां का आशीर्वाद लेने पहुंच जाते हैं। कहते हैं एकादशी के दिन चावल का प्रयोग नहीं किया जाता है लेकिन इस शक्तिपीठ में मां एकादशी स्वयं मौजूद है इसलिए यहां भोग में चावल ही चढ़ाया जाता है। सूर्यास्त के बाद इन पिंडियों को स्नान कराकर पंचामृत से इनका दोबारा अभिषेक किया जाता है। लाल चंदन, फूल व नए वस्त्र पहनाकर मां का शृंगार किया जाता है। इसके साथ ही सायंकाल आरती संपन्न होती है। शाम की आरती का भोग भक्तों में प्रसाद रूप में बांटा जाता है। रात को मां की शयन आरती की जाती है, जब मंदिर के पुजारी मां की शैय्या तैयार कर मां की पूजा अर्चना करते हैं।

भगवान भैरव की मूर्ति में है विशेषता
मंदिर परिसर में ही भगवान भैरव का भी मंदिर है। इस मंदिर में महिलाओं का जाना वर्जित हैं। यहां विराजे भगवान भैरव की मूर्ति विशेष है। कहते हैं कि जब भी कांगड़ा पर कोई मुसीबत आने वाली होती है तो इस मूर्ति की आंखों से आंसू और शरीर से पसीना निकलने लगता है। तब मंदिर के पुजारी विशाल हवन का आयोजन कर मां से आने वाली आपदा को टालने का निवेदन करते हैं। यह बज्रेश्वरी शक्तिपीठ का चमत्कार और महिमा ही है कि आने वाली हर आपदा मां के आशीष से टल जाती है।

कांगड़ा का इतिहास
कांगड़ा नगर समुद्र तल से करीब 2350 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यह नगर बाणगंगा व मांझी नदियों के बीच बसा हुआ है। दक्षिण में पुराना किला व उत्तर में बज्रेश्वरी देवी के मंदिर के सुनहरे कलश इस नगर के प्रधान चिह्न हैं। एक ओर पुराना कांगड़ा व दूसरी और पहले भवन अब (नया कांगड़ा) की नई बस्तियां हैं। कांगड़ा घाटी रेलवे व पठानकोट-कुल्लू और धर्मशाला-होशियारपुर सड़कों द्वारा यातायात की सुविधा प्राप्त है। कांगड़ा पहले नगरकोट के नाम से प्रसिद्ध था। कहा जाता है कि इसे राजा सुसर्मा चंद ने महाभारत के युद्ध के बाद बसाया था। छठी शताब्दी में नगरकोट जालंधर व त्रिगर्त राज्य की राजधानी था। 18वीं शताब्दी में राजा संसार चंद कटोच के राज्यकाल में यहां पर कला कौशल का बोलबाला था। कांगड़ा कलम विश्वविख्यात है और चित्रशैली में अनुपम स्थान रखती है। कांगड़ा किले, मंदिर, बासमती चावल व कटी नाक की पुन: व्यवस्था और नेत्र चिकित्सा के लिए दूर-दूर तक विख्यात था।

बज्रेश्वरी देवी मंदिर
यह मंदिर इस क्षेत्र का सबसे लोकप्रिय मंदिर है। कहा जाता है पहले यह मंदिर बहुत समृद्ध था। इस मंदिर को बहुत बार विदेशी लुटेरों द्वारा लूटा गया। महमूद गजनवी ने 1009 ई. में इस शहर को लूटा और मंदिर को नष्ट कर दिया था। यह मंदिर वर्ष 1905 में जोरदार भूकंप से पूरी तरह नष्ट हो गया था। 1920 में इसे दोबारा बनवाया गया।

कैसे पहुंचें
वायु मार्ग : कांगडा से सात किलोमीटर की दूरी पर एयरपोर्ट है जो सीधी दिल्ली से जुड़ा हुआ है।
-रेल मार्ग : पठानकोट कांगडा का निकटतम ब्रॉड गेज रेल मुख्यालय है। पठानकोट-कांगडा से लगभग 90 किलोमीटर पर है।
-पठानकोट से जोगेंद्रनगर नैरोगेज रेल ट्रैक पर कांगड़ा मंदिर और कांगड़ा रेलवे स्टेशन हैं।
-सड़क : कांगड़ा सड़क से धर्मशाला से जुड़ा है जो 18 किलोमीटर दूर है। धर्मशाला हिमाचल और निकटवर्ती शहरों से जुड़ा हुआ है।