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परंपरा संजोकर रखने का विशाल उत्सव

मैसूर का दशहरा भारत ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में अपनी एक अलग पहचान रखता है। यहां दशहरा उत्सव की शुरुआत चामुंडा पहाड़ियों में विराजित मां चामुंडेश्वरी देवी की विशेष पूजा अर्चना के साथ शुरू होती है। मैसूर का दशहरा उत्सव 10 दिनों तक मनाया जाता है। यह पर्व बुराई पर

By Preeti jhaEdited By: Published: Wed, 21 Oct 2015 03:13 PM (IST)Updated: Fri, 23 Oct 2015 12:42 PM (IST)

मैसूर का दशहरा भारत ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में अपनी एक अलग पहचान रखता है। यहां दशहरा उत्सव की शुरुआत चामुंडा पहाड़ियों में विराजित मां चामुंडेश्वरी देवी की विशेष पूजा अर्चना के साथ शुरू होती है। मैसूर का दशहरा उत्सव 10 दिनों तक मनाया जाता है। यह पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है।

मैसूर का इतिहास: मैसूर भारत के कर्नाटक राज्य का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। यह प्रदेश की राजधानी बेंगलुरु से लगभग 150 किलोमीटर दक्षिण में तमिलनाडु की सीमा पर बसा है। मैसूर का इतिहास भारत पर सिकंदर के आक्रमण (327 ईपू) के बाद से मिलता है।

इसके बाद ही मैसूर के उत्तरी भाग पर सातवाहन वंश का अधिकार हुआ था और यह अधिकार द्वितीय शती ई. तक चला। मैसूर के ये राजा सातकर्णी कहलाते थे। 18वीं शताब्दी में मैसूर पर मुस्लिम शासक हैदर अली की पताका फहराई। सन् 1782 में उसकी मृत्यु के बाद 1799 तक उसका पुत्र टीपू सुल्तान शासक बने। इन दोनों ने अंग्रेजों से अनेक लड़ाईयां लड़ी। इसी बीच श्रीरंगपट्टम् के युद्ध में टीपू सुल्तान की मृत्यु हो गई। इसके बाद मैसूर को अंग्रेजों ने अपने अधिकारा में ले लिया।

मैसूर का दशहरा: इतिहास में वर्णित है कि हरिहर और बुक्का नाम के दो भाइयों ने 14वीं शताब्दी में स्थापित इस साम्राज्य में नवरात्रि उत्सव मनाया। लगभग 6 शताब्दी पुराने इस पर्वो को वाडेयार राजवंश के लोकप्रिय शासक कृष्णराज वाडेयार ने दशहरे का नाम दिया। समय के साथ इस उत्सव की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि वर्ष 2008 में कर्नाटक सरकार ने इसे राज्योत्सव (नाद हब्बा) का स्तर दे दिया।

हम्पी का दशहरा: मध्यकालीनलेखकों ने अपने यात्रा वृत्तान्तों में विजयनगर की राजधानी हम्पी में भी दशहरा मनाए जाने का उल्लेख किया है। इनमें डोमिंगोज पेज, फर्नाओ, नूनिज और रॉबर्ट सीवेल जैसे पर्यटक भी शामिल हैं। इन लेखकों ने हम्पी में मनाए जाने वाले दशहरा उत्सव के विस्तृत वर्णन किये है।

जनजन का उत्सव: मैसूर के दशहरे में यह परंपरा को वर्ष 1805 में तत्कालीन वाडेयार शासक मुम्मदि कृष्णराज ने जोड़ा। उन्हे टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद अंग्रेजों की सहायता से राजगद्दी प्राप्त हुई थी इसलिए दशहरा उत्सव में राजा ने अंग्रेजों के लिए अलग 'दरबार' की व्यवस्था की। इस उत्सव को दोबारा राजघराने से जोड़ने की कोशिश कृष्णराज वाडेयार चतुर्थ ने की। जो अपनी मां महारानी केंपन्ना अम्मानी के संरक्षण में राजा बने और जिन्हें वर्ष 1902 में शासन संबंधी पूरे अधिकार सौंप दिए गए।

जब नहीं मनाया गया मैसूर का दशहरा: वर्ष1970 में जब भारत के राष्ट्रपति ने छोटी-छोटी रियासतों के शासकों की मान्यता समाप्त कर दी तो उस वर्ष दशहरे का उत्सव भी नहीं मनाया जा सका था। तब इसके बाद 1971 में कर्नाटक सरकार ने एक कमेटी गठित की और सिफारिशों के आधार पर दशहरा को राज्य उत्सव के रूप में दोबारा मनाया जाने लगा।

जंबो सवारी (शोभा यात्रा) : 'दशहरा उत्सव' के आखिरी दिन 'जंबो सवारी' आयोजित की जाती है। यह सवारी मैसूर महल से प्रारंभ होती है। इसमें रंग-बिरंगे, अलंकृत कई हाथी एक साथ एक शोभायात्रा के रूप में चलते हैं और इनका नेतृत्व करने वाला विशेष हाथी अंबारी है, जिसकी पीठ पर चामुंडेश्वरी देवी प्रतिमा सहित 750 किलो का 'स्वर्ण हौदा'( हाथी पर बैठने का स्थान) रखा जाता है।

इसे देखने के लिए विजयादशमी के दिन शोभायात्रा के मार्ग के दोनों तरफ लोगों की भीड़ जमा होती है। इस तरह दस दिनों तक चलने वाला यह विशाल उत्सव समाप्त हो जाता है।


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