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बैसाखी के सहारे हिमालय सा हौसला

उच्च हिमालय में तकरीबन नौ हजार फीट की ऊंचाई पर स्थिति गैरोली पातल की ओर बढ़ती राजजात में बैसाखियों की खट-खट यात्रियों का ध्यान खींच रही है। रणकधार तक ढाई किलोमीटर की लंबी चढ़ाई में हांफते लोग इस युवक का जुनून देख कर दंग हैं। दाहिने पैर के बिना ही नंदा का यह सहयात्री

By Edited By: Updated: Tue, 02 Sep 2014 10:42 AM (IST)
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नील गंगा [चमोली], [देवेंद्र रावत]। उच्च हिमालय में तकरीबन नौ हजार फीट की ऊंचाई पर स्थिति गैरोली पातल की ओर बढ़ती राजजात में बैसाखियों की खट-खट यात्रियों का ध्यान खींच रही है। रणकधार तक ढाई किलोमीटर की लंबी चढ़ाई में हांफते लोग इस युवक का जुनून देख कर दंग हैं। दाहिने पैर के बिना ही नंदा का यह सहयात्री दुष्कर पथ पर आगे बढ़ चुनौती के पहाड़ लांघने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ नजर आ रहा है। वह कहता है 'वर्षो से मन में साध थी कि मां नंदा को छोड़ने मैं भी जाऊं। इस बार मुश्किल से मौका मिला है तो मुझे होमकुंड तक पहुंचना ही है।'

चमोली के जोशीमठ ब्लाक के रैणी गांव का रहने वाले तैतीस साल के रमेश तिंगराणा से मेरी मुलाकात वाण से रवाना होते हुए हुई। गैरोली पातल के लिए चढ़ाई शुरू करते हुए सैकड़ों आंखें आशंका की नजर से उन्हें निहार रहीं थीं। उसकी जिजीविषा देख मेरी भी दिलचस्पी जगी। संकोची स्वभाव के सीधी सादे रमेश थोड़ी बहुत हिचकिचाहट के बाद खुल गए। यह सब कैसे हुआ, पूछने पर वह कहते हैं कि 'बचपन में पोलियो हुआ और पैर खराब हो गए। वर्ष 2010 में खेतों की ओर जा रहा था। फिसलने से चोट लगी तो इतनी गहरी कि डाक्टरों ने टांग ही काट दी।' वह बताते हैं कि दस साल पहले मां गुजर गई, अब परिवार में पिता के अलावा एक बहन है। राजजात के चुनौतीपूर्ण सफर को लेकर बात शुरू हुई तो रमेश गंभीर हो गए। चढ़ाई पर फूलती सांस को काबू करने के लिए कुछ देर हम दोनों किनारे एक शिला पर बैठ सुस्ताने लगे। बांज के वृक्षों की छाया में जान में जान आई और हमने आगे की राह ली। कुछ देर की चुप्पी के बाद वह बताने लगे पिताजी खेती बाड़ी करते हैं, मैं भी उनकी मदद करता हूं। वह नहीं चाहते थे कि एक मात्र पुत्र खतरनाक सफर पर जाए। हाईस्कूल तक शिक्षा प्राप्त रमेश कहते हैं कि बचपन से ही नंदा की कथाएं उन्हें स्वप्न लोक की सैर करातीं थीं। राजजात में जाने की इच्छा होती, लेकिन पोलियो ग्रस्त पैर से मन मसोस कर रह जाना पड़ता था। इस बार दृढ़ संकल्प के साथ पिताजी से बात की तो वे बामुश्किल राजी हुए। जब गांव से चला तो बहन रोने लगी, मैंने उसे समझाया कि तुम निश्चिंत रहो मैं सुरक्षित लौटूंगा। चमोली जिले के घाट ब्लाक के सितेल गांव तक बस से आया और फिर कुरुड़ की नंदा की डोली के साथ पैदल 25 किलोमीटर चलकर वाण पहुंचा।

बातें-बातें करते-करते मैं और रमेश डेढ़ किलोमीटर लंबी ढलान से उतर नील गंगा के तट पर पहुंचे। यहां मैंने रमेश को शुभकामना दी और अपनी साथियों को तलाशते हुए सोचने लगा संसाधनों से लैस सरकार भले ही कुदरत की चनौतियों से 'सहमी' हुई हो, लेकिन इंसान की जीवटता कभी नहीं हारती।

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