महासमाधि दिवस: गुरु के महान कार्य को महान शिष्य ने किया सिद्ध
श्री श्री परमहंस योगानंद जी का महासमाधि दिवस 9 मार्च को और उनके गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी का महासमाधि दिवस 7 मार्च को है। इन दो महान संतों ने सनातन के आदर्शों को प्रतिस्थापित किया। बता दें योगानंद जी जीवन एवं मृत्यु दोनों में ही महान योगी थे। उनके देहावसान के कई सप्ताह बाद भी उनका अपरिवर्तित मुख अक्षयता की दिव्य कांति से दैदीप्यमान था।
डा. मंजु लता गुप्ता। महान गुरु-शिष्य के दिव्य युगल स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी (गुरु) और श्री श्री परमहंस योगानंद जी (शिष्य) ने ईश्वर से प्रेम करने के महान लक्ष्य के साथ अपना जीवन जिया और संसार के समक्ष आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर अमर हो गए। श्रीयुक्तेश्वरजी और योगानंद जी का दिव्य मिलन, योगानंदजी का अपने गुरु के आश्रम में दस वर्ष का कठोर प्रशिक्षण तथा संन्यास ग्रहण कर बालक मुकुंद से योगानंद में परिवर्तन की कहानियों की शृंखला 'योगी कथामृत' में उपलब्ध है। यह पुस्तक सरल रूप में शाश्वत सत्यों का मंच प्रदान कर न केवल ईश्वर के प्रति प्रेम उपजाती आई है, अपितु उनको पाने की ललक जगाती है।
योगानंद जी के दृढ़ संकल्प
अपने प्रिय गुरु के मनो-संदेश पर योगानंद जी वर्ष 1935-36 में अमेरिका से भारत आए। अपने शरीर त्याग का अप्रत्यक्ष भान कराते हुए श्रीयुक्तेश्वरजी ने उनसे कहा था, 'इस संसार में अब मेरा कार्य पूरा हो गया है, अब तुम्हें ही इसे आगे चलाना होगा।' योगानंद जी ने दृढ़ संकल्प किया, 'समस्त मानवजाति में मैं यथाशक्ति इन मुक्तिदायक सत्यों को वितरित करूंगा, जिन्हें मैंने अपने गुरु के चरणों में बैठकर प्राप्त किया है।' इसी संकल्प को पूरा करने के लिए उन्होंने पाठमाला, एक गृह अध्ययन शृंखला की व्यवस्था की। क्रियायोग ध्यान पद्धति की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने हेतु उन्होंने पहले भारत में 1917 में योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया (वाईएसएस) तथा 1920 में अमेरिका में सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप (एसआरएफ) की स्थापना की।
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प्रेम मेरी भक्ति
योगानंद जी ने प्रार्थना की थी, 'हे प्रभु! मुझे आशीर्वाद दीजिए कि आपका प्रेम मेरी भक्ति की वेदी पर सदा आलोकित रहे और मैं आपके प्रेम को सभी हृदयों में जाग्रत कर सकूं।' 7 मार्च 1952 को योगानंद जी के महासमाधि के दिन उनके शिष्यों ने अनुभव किया कि जो भी उनके कक्ष में प्रवेश करता, गहन दिव्य प्रेम के स्पंदनों को तथा जगन्माता की साक्षात उपस्थिति को अनुभव करता।ऐसा लगता था कि वे पूर्णतया जगन्माता के अधिकार क्षेत्र में हैं और जगन्माता उनकी उपरोक्त प्रार्थना को पूरा कर रही हैं।
दिव्य कांति
योगानंद जी जीवन एवं मृत्यु दोनों में ही महान योगी थे। उनके देहावसान के कई सप्ताह बाद भी उनका अपरिवर्तित मुख अक्षयता की दिव्य कांति से दैदीप्यमान था। फारेस्ट लान मेमोरियल पार्क, लास एंजेलिस के तात्कालिक निर्देशक (1952) श्री हैरी टी. रोवे ने कहा, 'बीस दिन बाद भी उनके शरीर में किसी प्रकार की विकृति नहीं दिखाई पड़ी... 27 मार्च को भी उनका शरीर उतना ही विकार रहित दिखाई पड़ रहा था, जितना मृत्यु की रात्रि को।'
भौतिक शरीर के मृत्यु उपरांत अनंत ब्रह्म की सर्वव्यापकता में निर्बाध रूप से रहने वाले इन दोनों महान संतों की पुण्य स्मृति के दिव्य स्पंदनों में डुबकी लगाकर आज भी इनके आशीर्वाद प्राप्त किए जा सकते हैं।
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