कॉल ड्रॉप में टेलिकॉम कंपनियां ने दिखाई चालाकी, तकनीक के गलत इस्तेमाल पर उठे सवाल
सिग्नल क्वॉलिटी के एक निश्चित सीमा से नीचे जाने पर कोई कॉल कितनी देर तक चलती है, इसका पता लगाने के लिए मोबाइल ऑपरेटर रेडियो लिंक्ड टाइमआउट (आरएलटी) तकनीक का इस्तेमाल करते हैं
नई दिल्ली (जेएनएन)। कॉल ड्रॉप को छुपाने के लिए दूरसंचार सेवा प्रदाता कंपनियां ‘आरएलटी’ नामक खास तकनीक का इस्तेमाल करती हैं। इससे खराब से खराब स्थितियों में भी कॉल कभी ड्रॉप नहीं होती। आवाज चाहे जितनी कमजोर और बीच में टूट-टूट जा रही हो, लेकिन संपर्क समाप्त नहीं होता। ऐसी स्थिति में तब तक मीटर चलता रहता है और शुल्क लगता रहता है, जब तक कि एक तरफ से ग्राहक कॉल को डिस्कनेक्ट नहीं कर दे।
संसदीय समिति ने टेलिकॉम कंपनियों की इस चालाकी का विस्तार से ब्योरा दिया है। समिति के अनुसार सिग्नल क्वॉलिटी के एक निश्चित सीमा से नीचे जाने पर कोई कॉल कितनी देर तक चलती है, इसका पता लगाने के लिए मोबाइल ऑपरेटर रेडियो लिंक्ड टाइमआउट (आरएलटी) तकनीक का इस्तेमाल करते हैं। सभी ऑपरेटरों ने जीएसएम द्वारा तय सीमा (4-64) के तहत अपने-अपने हिसाब से इसका मानक निर्धारित कर रखा है। यह तकनीक आपात स्थितियों जैसे कि खराब मौसम, प्राकृतिक आपदा के वक्त संचार संपर्क बनाए रखने में मददगार साबित होती है। मगर दूरसंचार कंपनियां इसका दुरुपयोग करते हुए सामान्य हालात में भी इसका उपयोग करती हैं।
आरएलटी वॉल्यूम ऊंचे स्तर पर सेट: भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के परीक्षण में यह बात सामने आई है कि कुछ सर्किल्स में मोबाइल ऑपरेटरों ने आरएलटी का काफी ऊंचा वॉल्यूम सेट कर रखा है। इसकी वजह से ग्राहकों का संपर्क स्थापित नहीं होने, वार्तालाप टूटने या न होने के बावजूद कॉल ड्रॉप नहीं होती। समिति ने इस बात पर खेद जताया है कि ट्राई ने इसे लेकर ऑपरेटरों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया है। समिति ने इसे रोकने के लिए उपयुक्त तंत्र विकसित करने की जरूरत बताई है।
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