दहशत और जुल्म के खिलाफ हुई थी करबला जंग
बलरामपुर : दहशत और जुल्म के खिलाफ करबला में हुई जंग के बाद मुहम्मद साहब के नवासे हजरत इमाम हुसैन के
By Edited By: Updated: Thu, 30 Oct 2014 11:45 PM (IST)
बलरामपुर : दहशत और जुल्म के खिलाफ करबला में हुई जंग के बाद मुहम्मद साहब के नवासे हजरत इमाम हुसैन के साथ कुनबे के 72 लोगों की शहादत को मुस्लिम समाज मुहर्रम के रूप में मनाता है। सीनाजनी, छूरियों तथा आग के मातम के बीच हजरत इमाम हुसैन (अलैहिसलाम) को खिराजे अकीदत पेश कर रंजोगम का इजहार करता है। पूरे क्षेत्र में या हुसैन की सदाएं गूंजने से माहौल गमगीन हो गया है।
10 अक्टूबर 680 (10 मुहर्रम 61 हिजरी) को हजरत इमाम हुसैन ने मआबिया के पुत्र राजीद की चालीस हजार की सेना के साथ तीन दिनों की घेराबंदी और लड़ाई के बाद शहादत पाई थी। यजीद के साथ लड़ाई का कारण यह था कि हजरत हुसैन ने दहशत, जुल्म के खिलाफ आवाज उठाई थी और यजीद की बैअत (अधीनता) ठुकरा दी थी। मुहर्रम का चांद चढ़ने के बाद मुसलमानों के घरों में शुभ काम पूरी तरह बंद हो जाते हैं, शिया समुदाय के लोग काले लिबास में मजलिसों में हजरत को खिराजे अकीदत पेश करते हैं। नौंवी मुहर्रम को जगह-जगह ताजिए रखकर पूरी रात यर्सिया (शोक गीत) गाया जाता है। दसवीं मुहर्रम को यौम-ए-अशूरा का जुलूस निकालकर रंजोगम के बाद सीनाजनी तथा छूरियों का मातम होता है। आंसुओं के सैलाब के बीच करबला में ताजियों को दफन किया जाता है। 40 दिनों तक हजरत हुसैन की शहादत का गम चलता रहता है। आठ रबी उल अव्वल को जुलूसे अमारी के बाद मुहर्रम का गम समाप्त होता है। नगर क्षेत्र में प्राचीन काल में चली आ रही परंपरा के अनुसार सड़कों तथा गलियों की सफाई मुहर्रम (10वीं) को नहीं होती। मुस्लिम परिवार भी इस दिन अपने घरों की साफ-सफाई यौमे गम के चलते नहीं करते। क्षेत्र में मुहर्रम मनाने की परंपरा सदियों पुरानी है। रानीपुर, इमिलिया, गैंड़ास आदि स्थानों पर ताजिया स्थलों के आसपास मेलों का आयोजन होता है। इतना ही नहीं पाकिस्तान, सऊदी अरब, अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, मिश्र, ईरान में आजीविका कमा रहे लोग मुहर्रम में वापस आ जाते हैं। मजलिसों तथा तकरीरों का दौर पहली मुहर्रम से शुरू होकर आठ रबी उल अव्वल तक चलता रहता है। मुहर्रम कमेटियां दसवी मुहर्रम को प्याऊ (शबील) की व्यवस्था कर तबके को यह बताती है कि हजरत इमाम हुसैन ने करबला में तीन दिन तक भूखे और प्यासे रहने के बावजूद यजीदियों की बैअत मंजूर नहीं की थी। -------- -हिंदू होते हैं पायक
नौंवी मुहर्रम की रात ताजिया स्थलों पर जियारत करने वाले पायक (घुघरु पहने, मोर पंख, धारण कर पुरुष) दूसरे स्थान तक चलते रहते है। पायक हिंदू समाज के लोग होते हैं जो हजरत इमाम हुसैन के अन्याय, अधर्म, आतंक से लड़ने की भावना से वशीभूत होकर जगह-जगह जाकर उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देते है। -हिंदू समाज के लोग भी रखते हैं ताजिया
मुहर्रम सिर्फ मुसलमानों तक सीमित नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ जगहों पर हिंदू अपने घरों में ताजिया रखकर फातियां कराते हैं, मर्सिया पढ़ते हैं और पूरी रात जागकर हजरत इमाम हुसैन की करबला में हुई जंग और शहादत के किस्सों को सुनते हैं। -------इनसेट-------- 'आतंक व बुराइयों के साथ खत्म होगी हजरत की छेड़ी जंग' मौलाना सैय्यद मुहम्मद अली बताते हैं कि हजरत इमाम द्वारा करबला में छेड़ी गई जंग अभी खत्म नहीं हुई क्योंकि यजीद द्वारा फैलाई गई आतंक तथा बुराइयां अभी जिंदा है। जबतक पूरे आलम से इनका खात्मा नहीं होगा। हजरत की लड़ाई को जारी रखा जाएगा। किश्वर हुसैन का कहना है कि हजरत हुसैन ने इंसानी हुकूक व इंसानियत के लिए अपनी कुर्बानी दी जिसका शुक्रगुजार पूरा हिंदुस्तान है और ताउम्र रहेगा। यावर हुसैन का कहना है कि करबला की जंग तानाशाह यजीदी फौजों से हजरत इमाम हुसैन ने महज 72 लोगों के साथ लड़ी थी। शहादत के बाद उन्होंने यह जज्बा दे दिया कि मजहब, अमन तथा मुहब्बत के लिए जज्बे का होना जरूरी है। समीर रिजवी ने हजरत इमाम हुसैन की शहादत को आने वाली नस्लों के लिए सबक बताते हुए कहते हैं कि तीन दिन तक भूखे तथा प्यासे रहने के बावजूद यजीद की बैअत को मंजूर नहीं किया। यानी आतंक, अत्याचार तथा बुराई के आगे झुकने से बेहतर है मौत को गले लगाना। अंजुमन हुसैनी अहले सुन्नत के पूर्व सेक्रेटरी मुहम्मद अतीक खां का कहना है कि रंजोगम के बीच मुहर्रम मनाने का असल मकसद यह है कि हम हजरत इमाम हुसैन की शहादत को खिराजे अकीदत पेश करें तथा उनके द्वारा बनाए गए उसूलों पर चलें। जूलियस का कहना है कि हिंदुस्तान भी हजरत इमाम हुसैन को शहादत को सलाम करता है और हर कीमत पर यजीदी सोच रखने वाले तबके का विरोध करता है।
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