आप का जादू नहीं चला
लखनऊ (आनन्द राय)। भ्रष्टाचार मिटाने की लंबी-चौड़ी बाते करने के साथ ही अन्य पार्टियों के इरादों
By Edited By: Updated: Sun, 18 May 2014 02:06 PM (IST)
लखनऊ (आनन्द राय)। भ्रष्टाचार मिटाने की लंबी-चौड़ी बाते करने के साथ ही अन्य पार्टियों के इरादों पर झाड़ू लगाने की बात करने वाली आम आदमी पार्टी (आप) का जादू उत्तार प्रदेश में नहीं चला। यहां तो पार्टी की सारी उम्मीदों पर झाड़ू चल गई।
दिल्ली में सरकार बनाने और फिर गिराने के बाद लोकसभा चुनाव में उतरी आम आदमी पार्टी (आप) ने अपनी सबसे बड़ी ताकत उत्तार प्रदेश में लगाई। आप मुखिया अरविन्द केजरीवाल वाराणसी में नरेन्द्र मोदी के मुकाबिल रहे, जबकि कई और दिग्गजों के खिलाफ उनके सूरमाओं ने ताल ठोंकी। इसका इनको कोई लाभ नहीं मिला और केजरीवाल की पार्टी उत्तार प्रदेश में जमने से पहले ही उखड़ गयी। चुनाव परिणाम ने यह साबित कर दिया कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर क्रांति का परचम फहराने वाली आप जनता की निगाहों से उतर गयी। सूबे में 77 सीटों पर मुकाबिल आप के अधिकांश उम्मीदवारों को जमानत बचाने के लाले पड़ गए। वाराणसी में नरेन्द्र मोदी को टक्कर देने आए आप मुखिया अरविन्द केजरीवाल दूसरे नंबर पर जरूर रहे, लेकिन मतों का अंतर भारी रहा। उनके बाकी उम्मीदवारों में लखनऊ से जावेद जाफरी, अमेठी में कुमार विश्वास, इलाहाबाद में आदर्श शास्त्री, मैनपुरी में बाबा हरदेव सिंह, जौनपुर से डॉ.केपी यादव, गाजियाबाद में शाजिया इल्मी, गोरखपुर में प्रोफेसर राधेमोहन मिश्र जैसे उम्मीदवार बुरी तरह परास्त हो गए। आप उम्मीदवार कुमार विश्वास तो बहुत बड़ी बड़ी बातें करते थे, लेकिन उन्हें अमेठी के मतदाताओं ने ठेंगा दिखा दिया। कुमार विश्वास पूरे चुनाव तक मीडिया में छाये रहे, लेकिन उन्हें इतना कम वोट की उम्मीद भी नहीं थी। शाजिया इल्मी गाजियाबाद में जोरदार लड़ीं, लेकिन जहां से यह पार्टी उभरी वहां भी ऐसे हश्र की उम्मीद नहीं थी। ------
नमो की आंधी में उड़े छोटे दलों के तंबूयूपी के सियासी समीकरण में क्षेत्रीय दलों की सबसे अहम भूमिका रहती है, लेकिन छोटे दलों के सूरमा भी अपने को कम नहीं समझते। चुनावी महासमर को उनकी जोर-आजमाइश भी रोमांचक बनाती है। यह अलग बात है कि छोटे दल खाता खोलने और संसद पहुंचने में कामयाब नहीं हो पाते हैं। पिछली बार के चुनाव में छोटे दलों को चुनाव परिणाम आने तक अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा, लेकिन अबकी नमो की आंधी में इनके तंबू ही उखड़ गए। एकतरफा सफाया हुआ और जीत का ख्वाब देखने वाले दिग्गज भी धराशायी हो गए। दो तीन दलों के कांग्रेस और भाजपा से गठबंधन की बात छोड़ दें तो छोटे दलों का सबसे बड़ा गठबंधन एकता मंच के बैनर तले हुआ। आठ दलों की साझेदारी में पूर्वाचल से लेकर पश्चिम तक कई बड़े सूरमा मैदान में आए। इनमें कौमी एकता दल, भारतीय समाज पार्टी, जनवादी पार्टी और राष्ट्रीय परिवर्तन दल जैसी पार्टियां शामिल हैं। इस गठबंधन से संभल और गाजीपुर में पूर्व सांसद डीपी यादव, बलिया में पूर्व सांसद अफजाल अंसारी, घोसी में विधायक मुख्तार अंसारी, सलेमपुर में ओमप्रकाश राजभर व अम्बेडकरनगर में गोपाल निषाद जैसे उम्मीदवार तकदीर आजमा रहे थे, लेकिन मोदी की लहर में सबको मुंहकी खानी पड़ी। इनका जातीय समीकरण भी काम न आया।
विधानसभा चुनाव तक गठबंधन की सियासत करने वाली पीस पार्टी के डॉ. मोहम्मद अयूब इस बार एकला चलो की राह पर किस्मत आजमा रहे थे। डुमरियागंज में डॉ. अयूब को भी करारी हार का सामना करना पड़ा। पिछली बार के लोकसभा और विधानसभा के मुकाबले इस बार अयूब का प्रदर्शन खराब रहा। चुनाव के दौरान ही उनके कई सहयोगी साथ छोड़ गए। स्वराज जे के जटाशंकर त्रिपाठी ने पूर्वी उत्तार प्रदेश में पांच क्षेत्रों को चिन्हित कर भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतारे, लेकिन उन्हें जमानत के भी लाले पड़ गए। तकरीबन दो सौ से ज्यादा पंजीकृत दल यूपी के चुनाव मैदान में मुकाबिल थे, लेकिन उनकी झोली में इधर उधर के बिखरे गिनती के ही वोट आ सके। ----------------- भाजपा के गठबंधन से मुनाफे में अपना दल बड़े दलों से गठबंधन के बाद जो दल मैदान में आए, उनमें भी कइयों की साख बची नहीं, लेकिन भाजपा से गठबंधन कर अपना दल मुनाफे में रहा। चुनाव से पहले गठबंधन की भूमिका में अपना दल की बातचीत कांग्रेस और भाजपा दोनों से हो रही थी। ऐन मौके पर अपना दल की अनुप्रिया ने भाजपा की ओर हाथ बढ़ाया और मीरजापुर और प्रतापगढ़ सीट हिस्से में ली। मीरजापुर से खुद अनुप्रिया और प्रतापगढ़ में क्षत्रिय महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष कुंवर हरिवंश सिंह ने जीत हासिल कर ली। ------कांग्रेस से समझौते में हानिरालोद तथा महान दल ने कांग्रेस से समझौता कर खुद को आजमाया, लेकिन दोनों दलों को मुहं की खानी पड़ी। रालोद के चौधरी अजित सिंह और उनके पुत्र जयंत चौधरी, सिने तारिका जयाप्रदा तथा अमर सिंह जैसे दिग्गज भी लुढ़क गए। महान दल के केशवदेव मौर्या की कोई जुगत काम नहीं आयी और उन्हें इतने बड़े दल से समझौते के बावजूद साख बचानी भी मुश्किल हो गयी।
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