डिजिटल जमाने में दम तोड़ रहे है पुस्तकालय
By Edited By: Updated: Wed, 25 Apr 2012 10:34 PM (IST)
बुलंदशहर : सूचना प्रौद्योगिकी के दौर में पुस्तकालयों की स्थिति बदहाल है। लैपटॉप और टेबलेट कंप्यूटर के क्रेजी युवा पीढ़ी 'गूगल' एवं ऑनलाइन लाइब्रेरी पर भरोसा कर रही है। घर बैठे किंडल से मनपसंद उपन्यास और किताबें पढ़ रहे हैं। दूसरा पहलू यह भी है कि पुस्तकालय एवं बाचनलयों में साहित्यिक एवं वैचारिक बहस-मंथन का माहौल भी अब नहीं रहा। सरकारी एवं निजी पुस्तकालयों की रौनक लगातार कम हो रही है।
डिजिटल जमाने में पुस्तकालय दम तोड़ रहे हैं। इसके दो कारण है। पहला कि सूचना प्रौद्योगिकी के दौर में 'गूगल', 'एमएसएन' जैसे सर्च इंजन और ऑनलाइन लाइब्रेरी पुस्तकालय के विकल्प बन गए है। माउस पर एक क्लिक करने से सूचना का संसार हाजिर हो जाता है। वहीं दूसरा कारण है युवाओं में साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तक आदि को लेकर रुझान कम हुआ है। जमाना था जब पुस्तकालयों में युवा कार्ल मार्क्स और गांधी पर बहस करते नजर आते थे। मार्क्सवाद, पूंजीवाद, गांधीवाद आदि पर लंबी-चौड़ी बौद्धिक बहस होती थी। अब ऐसा नहीं दिख रहा है।जनपद के अधिकांश पुस्तकालयों की रौनक फीकी हो गई। नगर के राजेबाबू रोड स्थित राजकीय पुस्तकालयों में गत एक दशक पूर्व लोग रोजना 130-150 किताबें इश्यू कराते थे। घर ले जाते और पढ़ने के बाद लौटाते थे। अब तो महीने भर में 65 पुस्तकें लोग घर ले जा रहे हैं। राजकीय पुस्तकालय में फणीश्वर नाथ रेणु की मैला आंचल पढ़ रहे 65 वर्षीय डा. डीके शर्मा कहते हैं वह गत डेढ़ दशक से इस पुस्तकालय से जुड़े हैं। जमाना था जब रीडिंग टेबल पर दर्जनों लोग नजर आते थे। कुर्सियां कम पड़ जाती थी। अब तो गाहे-बगाहे की तीन-चार लोग एक साथ दिखते हैं।
डीएवी पीजी कालेज के प्राचार्य डा. एके शर्मा ने बताया कि इंटरनेट ने दुनियां बदल दी है। अब पुस्तकालयों में जाना जरूरी नहीं है। लैपटॉप खोलिए हर पुस्तक मौजूद है। इसका भी असर हुआ है। समाजशास्त्री डा. केके सक्सेना की राय कुछ अलग है। उनका कहना है कि साहित्य, कला, बौद्धिक चर्चा का जो माहौल पहले था, अब नहीं है। बच्चों को पहली कक्षा से ही सिखाया जा रहा है कि उसे डाक्टर बनना है या इंजीनियर। करियर को लेकर अंधी दौड़ है। सबसे महत्वपूर्ण मोटी कमाई वाली नौकरी हो गई है। साहित्य के प्रति लोगों में ललक कम हुई है।
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