उत्तराखंड में बागी विधायकों का सियासी खेल कहीं भाजपा को न पड़ जाए भारी, पढ़ें...
सप्तम सुर में गूंज रही कांग्रेस विधायक दल की बगावत से भारतीय जनता पार्टी फाल्गुनी उल्लास में दिख रही है। राज्य के मौजूदा सियासी हालात के लिए मुख्यमंत्री हरीश रावत मुश्किलों में घिरे हैं।
कुशल कोठियाल, देहरादून। सप्तम सुर में गूंज रही कांग्रेस विधायक दल की बगावत से भारतीय जनता पार्टी फाल्गुनी उल्लास में दिख रही है। राज्य के मौजूदा सियासी हालात के लिए मुख्यमंत्री हरीश रावत मुश्किलों में घिरे हैं, लेकिन भाजपा के भीतर व बाहर भी सवाल उठने शुरू हो गए हैं। कांग्रेस के नौ बागी विधायकों पर बड़ा सियासी खेल खेलना भाजपा के लिए भारी भी पड़ सकता है, यह आशंका पार्टी के अंदरखाने कुछ गंभीर व परिपक्व नेता जताने लगे हैं।
नौ बागी विधायकों के बूते सरकार तोड़ने व बनाने की पटकथा लिखने वाले चंद नेताओं के पास पार्टी में उठने वाले उन बड़े सवालों के जवाब नहीं है, जो देर सबेर पार्टी के भीतर व बाहर खड़े होने वाले हैं। राज्य की सियासत किस करवट बदलेगी यह तो 28 मार्च को विधानसभा में ही पता चलेगा, लेकिन भाजपा को हर सूरत में, चाहे सरकार बने या न बने, कुछ सवालों के जवाब तो संगठन व जनता को देने ही होंगे।
इस पूरी बिसात बिछाने में राज्य से भाजपा के महज दो नेताओं की ही सक्रिय भूमिका रही, बाकी को तो विधानसभा में कांग्रेस की बगावत के सार्वजनिक प्रदर्शन के बाद ही पता चला। अब भले ही भाजपा के सभी बड़े नेता कांग्रेस सरकार के खिलाफ एकजुट दिख रहे हों, लेकिन उनमें से ज्यादातर पार्टी के इस कदम की टाइमिंग व टारगेट पर दबी जुबान सवाल उठा रहे हैं।
आम राज्यवासी का यक्ष प्रश्न तो यह है कि चार साल तक कांग्रेस सरकार के साथ मित्र विपक्ष की भूमिका निभाने वाली पार्टी एक साल और सब्र क्यों नहीं कर पाई। इस दरम्यान ऐसा क्या हुआ कि कांग्रेस के बागियों के गले लग कर हर हाल में रावत सरकार को हटाना पड़ रहा है। राष्ट्रीय राजनीति में भी उत्तराखंड की इस घमासान को अरुणाचल की अगली कड़ी के रूप में देखा जा रहा है और पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व यह सफाई देता दिखाई दे रहा है कि यह महज कांग्रेस की फूट है व कांग्रेस की सरकार चलाना उनकी जिम्मेदारी नहीं है।
भाजपाई रणनीतिकार इन दिनों केवल कांग्रेस सरकार गिराने की ही नहीं सोच रहे, बल्कि उन अहम सवालों के जवाब भी खोज रहे हैं जिनसे उन्हें विधानसभा में फ्लोर टेस्ट के बाद दो-चार होना पड़ेगा। अब यदि उत्तराखंड में भाजपा या भाजपा समर्थित सरकार बनती है, तो एक साल बाद होने वाले चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ जमा हो रही एंटी इनकंबेंसी, भाजपा के सिर चढ़ कर बोलेगी और हरीश रावत शहीद मुख्यमंत्री बन कर सूबे में घूम-घूम कर भाजपा की नाक में दम करेंगे ।
सवाल यह भी है कि सरकार में नौ बागियों और उनके समर्थकों को भाजपा ऐसा क्या ओहदा और अधिकार देने वाली है, जो उन्हें कांग्रेस सरकार नहीं दे रही थी। अपनी पार्टी के उन दिग्गजों व कार्यकर्ताओं का क्या होगा जो चार सालों से सत्ता की बाट जोह रहे हैं। सत्ता में रहते हुए भी बागी विधायकों को सहेजना आसान नहीं होगा।
भाजपा के कैंप में रह रहे बागियों के नेता डॉ. हरक सिंह तो आज भी यह कह रहे हैं कि रावत को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया जाए तो वे आज भी कांग्रेसी हैं। भाजपा के कुछ नेता इस तरह के बयान से परेशान भी दिख रहे हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि यदि कांग्रेस हाईकमान हरीश रावत की जगह कल किसी और नेता को आगे लाती है तो क्या बागी फिर कांग्रेस में तो नहीं चले जाएंगे। दूसरी सूरत यह भी हो सकती है भाजपा सरकार न बना पाए। यह स्थिति तब ही आ सकती जब रावत विधानसभा में बहुमत साबित कर दें व बागी अयोग्य घोषित हो जाएं।
इन हालात में भाजपा ऐसे खांटी कांग्रेसी बागियों व उनके समर्थको का सम्मानजक समायोजन कैसे करेगी और वह भी अपनों को बगैर ठेस पहुंचाए। सभी नौ विधायक कांग्रेसी संस्कृति में रचे बसे हैं व क्षेत्र में अपना आधार भी रखते हैं। जब सत्ता में अपने कई समर्थकों सहित बड़ी कुर्सियों पर रहने के बावजूद बागी हो सकते हैं तो भाजपा अपने कैडर में इन्हें कहां, कैसे और किस कीमत पर फिट करेगी। पार्टी में इनकी आमद के लिए पार्टी के अन्य गुटाधीशों (जिन्हे पूरी डील की भनक नहीं लगने दी गई) को मनाना भी मुश्किल है।
सभी बागी अगले चुनाव में विधायक के मजबूत दावेदार होंगे, जाहिर है कि भाजपा को नौ सीटें इनके लिए छोड़नी पड़ेंगी यानि अपने नौ प्रबल दावेदारों को असंतुष्ट बोगी में बैठाना पड़ेगा। इस स्थिति में भाजपा को पार्टी से बाहर भी राज्य की जनता के सामने फ्लाप शो के लिए तमाम वजहें गढ़नी होंगी, उस पर भी जनता की अपनी समझ होने व राय बनाने का जोखिम अलग से। एक और सूरत रावत सरकार गिरने व राष्ट्रपति शासन की भी दिख रही है, इसमें भी ये सभी सवाल अपनी जगह अड़े रहेंगे।
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