उत्तराखंड में अस्थिरता के दौर में हवा में चार विकल्प
कांग्रेस सरकार में बगावत से उपजे राजनैतिक हालात में अगर कोई सवाल सबको मथ रहा है, तो वह यह कि अब उत्तराखंड में भावी सियासी परिदृश्य क्या होगा।
विकास धूलिया, देहरादून। कांग्रेस सरकार में बगावत से उपजे राजनैतिक हालात में अगर कोई सवाल सबको मथ रहा है, तो वह यह कि अब उत्तराखंड में भावी सियासी परिदृश्य क्या होगा। क्या हरीश रावत सरकार इस बगावत से सफलतापूवर्क उबर सकेगी और कांग्रेस के नौ बागी विधायकों की सदस्यता खतरे में पड़ जाएगी। राज्य गठन के बाद पहली दफा उत्तराखंड क्या राष्ट्रपति शासन के हवाले हो जाएगा या भाजपा एक साल की अल्पावधि के लिए सरकार बनाने को तैयार हो जाएगी। यह भी मुमकिन है कि कांग्रेस के नौ बागियों को सरकार बनाने के लिए भाजपा बाहर से समर्थन दे।
उत्तराखंड में शुक्रवार शाम से राजनैतिक घटनाक्रम तेजी से घूमा। विधानसभा में विनियोग विधेयक पारित करने को लेकर हुए बवाल में कांग्रेस के नौ विधायकों ने बगावत कर दी। एक मनोनीत विधायक समेत 71 सदस्यीय विधानसभा में विनियोग विधेयक के दौरान कुल 68 सदस्य उपस्थित थे। भाजपा के कुल 28 विधायकों में से सदन में मौजूद 26 विधायकों के साथ कांग्रेस के नौ बागियों के आ मिलने से विधायकों का आंकड़ा 35 तक पहुंच गया। उधर, कांग्रेस इस स्थिति में 27 विधायकों के आंकड़े पर आ ठहरी। इसके अलावा सरकार को समर्थन दे रहे प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट के छह विधायकों समेत कांग्रेस के पाले में कुल 33 विधायक हुए।
दिलचस्प बात यह कि शुक्रवार को सदन में गैरहाजिर भाजपा के दो विधायकों में से एक भीमलाल आर्य कांग्रेस की तरफ नजर आ रहे हैं जबकि एक अन्य बसपा विधायक पीडीएफ का हिस्सा हैं। यानी, इन दोनों को मिलाकर भी कांग्रेस के पास ताजा हालात में 35 ही विधायक हो रहे हैं, जो बहुमत के 36 के आंकड़े से एक कम है। उधर, भाजपा विधायक गणेश जोशी न्यायिक हिरासत में हैं और उनकी मौजूदगी में भाजपा 36 का आंकड़ा छू लेगी। दरअसल, आंकड़ों के इस मजेदार खेल ने सूबे की सियासत में तमाम विकल्प खड़े कर दिए हैं। मसलन, राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री हरीश रावत को 28 मार्च तक बहुमत साबित करने के निर्देश दिए गए हैं। यानी, हरीश रावत सरकार उसी स्थिति में बच सकती है अगर कांग्रेस के नौ बागियों की सदस्यता व्हिप के उल्लंघन के आरोप में खत्म हो जाए। अगर ऐसा नहीं होता तो सरकार चली जाएगी।
इन तमाम हालात में सूबे में राष्ट्रपति शासन एक बड़ा विकल्प हो सकता है। वह इसलिए, क्योंकि जरूरी नहीं कि भाजपा महज एक साल के लिए बागियों की मदद से सरकार बनाना ही चाहे। इसके भी कारण हैं। एक तो भाजपा को उस स्थिति में कांग्रेस सरकार के चार साल की एंटी इनकमबेंसी अपने सिर लेनी पड़ सकती है, जो वह कतई गवारा नहीं करेगी। दूसरे इन नौ बागियों को सरकार में एडजस्ट करने के लिए ऐसा फार्मूला तलाशना होगा, जो सर्वमान्य हो। यही नहीं, भाजपा अगर सरकार बनाती है तो उस पर जुगाड़ तंत्र से सरकार चलाने का आरोप चस्पा हो सकता है। सबसे बड़ी बात, हरीश रावत की छवि सियासत में जबरन शहीद कर दिए गए एक मुख्यमंत्री की बन सकती है, जो उनके पक्ष में सहानुभूति लहर का सबब बनेगी।
इसके उलट सोचा जाए तो, अगर राष्ट्रपति शासन के हालात पैदा होते हैं तो भाजपा केंद्र में अपनी सरकार होने के कारण इसका लाभ लेने की स्थिति में होगी। तब, राज्यपाल की भूमिका ही महत्वपूर्ण होगी और भाजपा केंद्र की तमाम योजनाओं का त्वरित क्रियान्वयन करा इसका अपने पक्ष में फायदा ले सकती है। यही नहीं, वर्ष 2017 में विधानसभा चुनाव में जाने से पहले भाजपा, कांग्रेस के चार साल के शासन के तमाम मुद्दों, मसलन घोटाले और भ्रष्टाचार के आरोप, कानून-व्यवस्था का सवाल, कमजोर वित्तीय हालात आदि पर कांग्रेस के खिलाफ माहौल तैयार करने की रणनीति अख्तियार कर सकती है। अलबत्ता, इस सबके अलावा एक विकल्प कांग्रेस के बागियों को सरकार बनाने का मौका देकर बाहर से समर्थन देने का भी। हालांकि इसकी संभावना सबसे कम समझी जा रही है।
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