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मुखर हुआ मृत्यु दंड का विरोध

By Edited By: Updated: Wed, 11 Dec 2013 04:46 AM (IST)

सिलीगुड़ी, जागरण संवाददाता :

मृत्युदंड न्यायिक दंड नहीं बल्कि न्यायिक हत्या है। इसे स्वीकार करते हुए दुनिया के 140 देशों ने अपने यहां मृत्युदंड समाप्त कर दिया है। अभी मात्र 58 देश ही मृत्युदंड अपनाए हुए हैं। दुर्भाग्यवश इन 58 में से एक देश भारत भी है जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा करता है। मगर, यहां अब भी मृत्युदंड बदस्तूर जारी है। ऐसा नहीं होना चाहिए। एक सभ्य समाज में मृत्युदंड की गुंजाइश नहीं है। इसलिए भारत में भी मृत्युदंड को समाप्त किया जाना चाहिए।

यह विचार प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता व बॉम्बे हाईकोर्ट की जानी-मानी वकील माहरुख आदेनवाला ने अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस मंगलवार की शाम यहां मित्र सम्मिलनी हॉल में आयोजित एक परिचर्चा में व्यक्त किए। मृत्युदंड विरोधी यह परिचर्चा सभा एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स की सिलीगुड़ी शाखा की ओर से आयोजित की गई थी।

उन्होंने कहा कि भारत की वर्तमान न्यायिक व्यवस्था इतनी संवेदनहीन है कि यहां की सर्वोच्च अदालत ने मृत्युदंड की कई पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करने तक से इंकार कर दिया है। भारत के वर्तमान राष्ट्रपति ने मात्र एक साल में 20-20 दया याचिकाएं खारिज कर दी हैं। अदालतों में अनेक मामलों में यहां तक देखा गया है कि तीन न्यायाधीशों की पीठ में से एक न्यायाधीश, अपराधी को मृत्युदंड देने का विरोधी है तो दो पक्षधर। इस बाबत जब स्वयं न्यायाधीशों में एक मत नहीं है तो इस मृत्युदंड को सर्वसम्मत या समाज सम्मत कैसे कहा जा सकता है?

उन्होंने सवाल उठाया कि क्या सिर्फ अपराधी को खत्म कर देने मात्र से ही अपराध खत्म हो जाता है? फिर खुद ही कहा, हर्गिज नहीं। न जाने कितने तरह के अपराध के मामलों में अदालतों ने आरोपी को मृत्युदंड दिया है मगर उनमें से एक भी तरह का अपराध न तो कम हुआ है और न ही खत्म हुआ है, तो फिर कैसे मान लिया जाए कि मृत्युदंड बहुत प्रभावी है। दरअसल, मृत्युदंड सत्ता का वह हथियार है जिसे न्याय की संज्ञा देकर सत्ता अपने विरोधियों की समाप्ति में इस्तेमाल करती है। अब तो यह लोकतंत्र इतना खतरनाक हो गया है कि यहां विचारों का भी अपराधीकरण किया जाने लगा है। उसके लिए तरह-तरह के काले कानून बना दिए गए हैं, जिसकी बदौलत पुलिस किसी को मात्र इस आधार पर गिरफ्तार कर प्रताड़ित कर सकती है कि उसके विचार सही नहीं हैं, उसकी गतिविधि संदिग्ध है, वह सुरक्षा के लिए खतरा है। क्या यह न्यायसंगत है? क्या बिना किसी ठोस सबूत के किसी को अपराधी बना देना न्याय है? ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें पुलिस पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर एक पक्षीय जांच करती है, झूठे सबूत और गवाह पेश कर किसी को फासी के फंदे तक पहुंचा देती है। यह सब नहीं होना चाहिए। इसके खिलाफ हम सबको एक होकर आवाज बुलंद करने और जोरदार आंदोलन करने की जरूरत है। इस अवसर पर बतौर मुख्य वक्ता, प्रख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं एपीडीआर की सचिव मंडली के सदस्य सुजात भद्र को उपस्थित होना था लेकिन शारीरिक अस्वस्थता के चलते वह नहीं आ पाए। हालांकि फोन के जरिये उन्होंने अपना वक्तव्य रखा, जिसे सीधे माइक के द्वारा उपस्थित लोगों को सुनाया गया। उन्होंने कहा कि किसी की भी जान लेने का हक एकमात्र उसी को है जिसने उसे जान दी है उसके अलावा किसी और को नहीं। उन्होंने रोष जताया कि आज मृत्युदंड का विरोध करने वाले मानवधिकार कार्यकर्ता समुदाय को अल्पसंख्यक कहा जाता है, उनकी सुनी नहीं जाती है। मगर, शासन-सत्ता और समाज को यह ध्यान रखना चाहिए कि एक समय सती प्रथा का विरोध करने वाले राजा राम मोहन राय को भी तब अल्पसंख्यक कहा गया था लेकिन उसी अल्पसंख्यक आवाज ने सती प्रथा का उन्मूलन करके ही दम लिया। इसलिए हम सबको भी मृत्युदंड के खात्मे के लिए एकजुट होकर आंदोलन करना चाहिए।

इस अवसर पर एपीडीआर की सिलीगुड़ी शाखा के कार्यकारी अध्यक्ष असीम चक्रवर्ती, सचिव अभिरंजन भादुड़ी समेत कई लोग मौजूद रहे।

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