UN में स्थायी सदस्यता के नाम पर कहीं 'भारत' को धोखा तो नहीं दे रहे ये देश
संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में सुधार के किसी भी प्रस्ताव पर सभी 193 सदस्य देशों में से दो तिहाई का बहुमत यानी कम से कम 129 देशों का समर्थन जरूरी होता है।
नई दिल्ली (स्पेशल डेस्क)। इस वक्त संयुक्त राष्ट्र महासभा का 72वां सत्र न्यूयार्क में चल रहा है। इसमें हिस्सा लेने के लिए दुनिया भर के करीब 193 देशों के प्रतिनिधि वहां पहुंचे हुए हैं, जिसमें भारत भी शामिल है। इसमें हिस्सा लेने के लिए भारत की तरफ से विदेश मंत्री सुषमा स्वराज न्यूयार्क पहुंच चुकी हैं। यूएन महासभा का यह सेशन 19 से 25 सितंबर तक चलेगा। हमेशा की ही तरह इस बार भी सेशन के दौरान कई मुद्दे उठाए जा रहे हैं। इनमें जहां एक ओर उत्तर कोरिया का मुद्दा जोर-शोर से उठाया जा रहा है वहीं संयुक्त राष्ट्र में सुधार का मुद्दा भी अहम हो गया है। ऐसा इसलिए भी हुआ है क्योंकि मंगलवार रात को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा दिए गए अपने पहले संबोधन में उन्होंने इसमें सुधार का जिक्र कर इसमें एक व्यापक बहस होने की गुंजाइश छोड़ दी है। वैसे देखा जाए तो इसको लेकर भारत पहले भी कई बार इसी मंच से आवाज उठा चुका है। इस बार भी सुषमा के संबोधन में इसका जिक्र किया जा सकता है। दरअसल, भारत संयुक्त राष्ट्र का स्थायी सदस्य बनने की काफी समय से कोशिश करता रहा है, लेकिन इसमे उसको अभी तक कोई सफलता हासिल नहीं हुई है।
यूएन में सुधारों पर क्या कहती हैं अमेरिका में भारत की पूर्व राजदूत
संयुक्त राष्ट्र में सुधारों पर Jagran.Com से बात करते हुए अमेरिका में भारत की पूर्व राजदूत मीरा शंकर का कहना था कि भारत लगातार इसकी बात उठाता रहा है। उनके मुताबिक इस मसले कि एक सच्चाई यह भी है कि जो चार देश भारत का समर्थन कर रहे हैं उन्होंने भी इस तरह सच्चे मन से कभी आगे बढ़ने की कोशिश नहीं की है। मीरा ने बताया कि वर्ष 2010 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा जब भारत की यात्रा पर पहली बार आए थे तब उन्होंने अपनी नीतियों में परिवर्तन करते हुए यूएनएससी में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन किया था।
भारत की इस मांग का कई देशों ने समर्थन भी किया है। यहां तक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्यों में से अमेरिका, ब्रिटेन और रूस ने इस मसले पर भारत के रुख का समर्थन किया है। लेकिन चीन इस पर हमेशा से ही भारत के रुख का विरोध करता रहा है। इतना ही नहीं चीन इस मसले पर बार-बार यह कहता रहा है कि भारत का रुख जापान के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। चीन के इस रुख का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उसने अपने कई राजदूतों को इस काम में लगाया भी था। उनका कहना था कि हकीकत यह है कि यूएनएससी के देश नहीं चाहते हैं कि भारत को इसमें शामिल किया जाए। इतना ही नहीं वह यह भी मानते हैं कि जो प्रिवलेज उनके इसमें परिवर्तन के बिना हासिल है वह उस वक्त उन्हें नहीं मिल सकेगी। उनके मुताबिक यह देश नॉन परमानेंट मैंबरशिप दिए जाने की बात करते आए हैं।
यूएन में अपने मन मुताबिक सुधार चाहते हैं इसके स्थाई सदस्य
इसी मसले पर बात करते हुए ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के प्रोफेसर हर्ष वी पंत ने कहा कि अमेरिका समेत अन्य देश इसमें सुधार की बात जरूर करते हैं लेकिन वे ऐसा चाहते नहीं हैं। इसकी वजह उनके अपने हित हैं। उनका यह भी कहना है कि संयुक्त राष्ट्र के स्थायी सदस्यों की संख्या की जहां तक बात की जाए तो वह जो पहले थी वही आज भी है, जबकि आज वक्त बदल चुका है। उनका मानना है कि जिस वक्त इसका गठन किया गया था उस वक्त अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, चीन और फ्रांस सभी एक वैश्विक ताकत थे, लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज भारत एक आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है, जिस लिहाज से वह इस सदस्यता का प्रमुख दावेदार है। लेकिन ऐसा करने पर मौजूदा सदस्यों में से किसी के प्रिवलेज खत्म हो सकते हैं। यह भी सच है कि वह इन्हीं प्रिवलेज के नाम पर आज तक अपनी राजनीति भी करते आए हैं।
पंत ने यहां तक कहा कि अमेरिका मानता है कि वह संयुक्त राष्ट्र को सबसे अधिक फंड देता है इस लिहाज से उसकी बात मानी जानी चाहिए। वहीं भारत का तर्क है कि संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में उसके सबसे अधिक जवान सेवा में रहते हैं लिहाजा उसकी बात को भी माना जाना चाहिए। वहीं अमेरिका इस बात को चाहता है कि संयुक्त राष्ट्र में सुधार हो, लेकिन दूसरी ओर वह चाहता है कि यह सुधार उसके कहे अनुसार और उसकी जरूरत के मुताबिक हो। भारत को यदि इसकी सदस्यता मिल जाती है तो इसके मौजूदा सदस्यों को समस्या हो सकती है।
यूएन में बदलाव के लिए जरूरी है दो तिहाई बहुमतयहां पर यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में सुधार के किसी भी प्रस्ताव पर सभी 193 सदस्य देशों में से दो तिहाई का बहुमत यानी कम से कम 129 देशों का समर्थन जरूरी होता है। इनमें यूएनएससी के स्थाई सदस्य चीन, रूस, ब्रिटेन, अमेरिका और जापान का समर्थन मिलना भी जरूरी है।
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