आपके सवालों का जवाब देने आ रहा है वर्चुअल राजनेता, नाम है 'SAM'
सवालों के रूप में आपके दिमाग में उठ रही लहरों को शांत करने के लिए वैज्ञानिकों ने एक रोबोट बनाया है, जिसको वर्चुअल पॉलिटिशियन का नाम दिया गया है।
नई दिल्ली (स्पेशल डेस्क)। इंसान के दिमाग में सवाल हर वक्त जन्म लेते रहते हैं। कई सवालों का जवाब उसको तुरंत चाहिए होता है तो कुछ सवालों के जवाब के लिए वह हमेशा परेशान होता है। अक्सर ऐसा भी होता है कि इसके लिए वह फोन का सहारा भी लेता है। कभी जवाब मिल जाता है तो कभी नहीं मिलता। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। अब हर सवालों के जवाब आपको मिलेंगे तो जरूर लेकिन ये जवाब देना वाला कोई इंसान नहीं होगा। चौंक गए आप। खैर चौंकना आपके लिए जरूरी भी है। दरअसल, सवालों के रूप में आपके दिमाग में उठ रही लहरों को शांत करने के लिए वैज्ञानिकों ने एक रोबोट बनाया है, जिसको वर्चुअल पॉलिटिशियन का नाम दिया गया है।
आर्टिफिशल इंटेलीजेंस वाले इस रोबोट की सबसे बड़ी खासियत है कि यह राजनीति, आवास, शिक्षा, आव्रजन संबंधी नीतियों जैसे स्थानीय मुद्दों पर पूछे गए सवालों के जवाब दे सकता है। इतना ही नहीं, वैज्ञानिक इसे 2020 में न्यूजीलैंड में होने वाले आम चुनाव में उम्मीदवार बनाने की तैयारियां भी जोर दे रहे हैं। यदि ऐसा हुआ तो विज्ञान के दम पर हमारे सामने एक नई क्रांति का उदय होगा जहां इंसान के प्रतिनिधि के तौर पर रोबोट देखने को मिलेंगे। खैर फिलहाल यह कल्पना ही है।
वैज्ञानिकों ने इस रोबोट को 'वर्चुअल राजनेता' का नाम SAM रखा है। इसे बनाने वाले न्यूजीलैंड के 49 वषीर्य उद्यमी निक गेरिटसन हैं। उनका कहना है कि 'ऐसा लगता है कि फिलहाल राजनीति में कई पूवार्ग्रह हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि दुनिया के देश जलवायु परिवर्तन और समानता जैसे जटिल मुद्दों का हल नहीं निकाल पा रहे हैं। गौरतलब है कि न्यूजीलैंड में साल 2020 के आखिर में आम चुनाव होंगे। गेरिटसन का मानना है कि तब तक सैम एक प्रत्याशी के तौर पर मैदान में उतरने के लिए तैयार हो जाएगा।
फिलहाल आर्टिफिशल इंटेलीजेंस (एआई) वाला यह राजनीतिज्ञ फेसबुक मेसेन्जर के जरिए लगातार लोगों को प्रतिक्रिया देना सीख रहा है। इसके अलावा यह विभिन्न सर्वे पर भी तवज्जो दे रहा है। गेरिटसन का मानना है कि एल्गोरिदम में मानवीय पूवार्ग्रह असर डाल सकते हैं। लेकिन उनके विचार से यह इस रोबोट पर बदलती तकनीक का असर नहीं दिखाई देगा। 'टेक इन एशिया' की खबर में कहा गया है कि प्रणाली भले ही पूरी तरह सटीक न हो, लेकिन यह कई देशों में बढ़ते राजनीतिक और सांस्कृतिक अंतर को भरने में मददगार हो सकती है।
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