व्हाइट हैलमेट: जिन्होंने मौत के खौफ को दी है नो-एंट्री, इनको हमारा सलाम
हिंसा से घिरे सीरिया में कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने मौत के खौफ को दिल से निकाल चुके हैं। अपने गम और अपनी परेशानियों को किनारे रखकर ये लोग हमले में घायल हुए लोगों को बचाने के लिए दौड़ पड़ते हैं।
By Kamal VermaEdited By: Updated: Sun, 05 Aug 2018 01:32 PM (IST)
नई दिल्ली [कमल कान्त वर्मा]। सीरिया का नाम आपने जरूर सुना होगा। फिलहाल इस देश को अशांत देशों में गिना जाता है। यह एक ऐसा देश है जो वर्षों से गृहयुद्ध की आग में झुलसा हुआ है। इसके चलते यहां पर लाखों नागरिकों की मौत हो चुकी है। लाखों लोग अपने ही देश को छोड़कर दूसरे देशों में शरण लिए हुए हैं। लाखों बच्चे मारे जा चुके हैं। यह आंकड़ा बेहद चौंकाने वाला है। सीरिया को लेकर संयुक्त राष्ट्र भी कई बार चिंता जता चुका है। यहां कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब यहां पर हमले में किसी की जान न जाती हो। मौत का खौफ यहां के नागरिकों के चेहरे पर भी साफतौर पर देखा जा सकता है। सीरिया की ये बेहद भयावह तस्वीर हमारे सामने है, जिस पर चिंता होना लाजमी है।
अपना गम भुलाकर दूसरों की मदद
बहरहाल, हिंसा से घिरे इसी देश में कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने मौत के खौफ को दिल से निकाल चुके हैं। अपने गम और अपनी परेशानियों को किनारे रखकर ये लोग हमले में घायल हुए लोगों को बचाने के लिए दौड़ पड़ते हैं। एक ओर जहां नागरिक हमले के बाद उससे बचने के लिए दूसरी ओर भागते हैं वहीं ये लोग हमले की जगह की तरफ भागते हैं। इनका मकसद जिंदगियों को बचाने का होता है। इन्हें यहां पर व्हाइट हैलमेट के नाम से जाना और पहचाना जाता है। यह एक गैर सरकारी संस्था है, जिसमें यहां के स्थानीय निवासी निस्वार्थ भाव से अपना योगदान देते हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने अपनों को बेहद करीब से मरते देखा है। अपनों को खोने का गम इनके चेहरे पर हमेशा झलकता है। लेकिन फिर भी ये हमेशा दूसरों की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। संयुक्त राष्ट्र से लेकर कई देश इनकी तारीफ कर चुके हैं। सवा लाख से ज्यादा लोगों को बचा चुकी है संस्था
व्हाइट हैलमेट के मुताबिक करीब सवा लाख से ज्यादा लोगों को अब तक ये बचा चुके हैं। यहां पर छिड़े गृहयुद्ध में ऐसा नहीं है कि व्हाइट हैलमेट के कार्यकर्ता चपेट में नहीं आते हैं। आज तक करीब 204 कार्यकर्ताओं ने अपनी जान दूसरों को बचाने में गंवाई है। इस संस्था के कार्यकर्ताओं में हर क्षेत्र के लोग शामिल हैं।
बहरहाल, हिंसा से घिरे इसी देश में कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने मौत के खौफ को दिल से निकाल चुके हैं। अपने गम और अपनी परेशानियों को किनारे रखकर ये लोग हमले में घायल हुए लोगों को बचाने के लिए दौड़ पड़ते हैं। एक ओर जहां नागरिक हमले के बाद उससे बचने के लिए दूसरी ओर भागते हैं वहीं ये लोग हमले की जगह की तरफ भागते हैं। इनका मकसद जिंदगियों को बचाने का होता है। इन्हें यहां पर व्हाइट हैलमेट के नाम से जाना और पहचाना जाता है। यह एक गैर सरकारी संस्था है, जिसमें यहां के स्थानीय निवासी निस्वार्थ भाव से अपना योगदान देते हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने अपनों को बेहद करीब से मरते देखा है। अपनों को खोने का गम इनके चेहरे पर हमेशा झलकता है। लेकिन फिर भी ये हमेशा दूसरों की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। संयुक्त राष्ट्र से लेकर कई देश इनकी तारीफ कर चुके हैं। सवा लाख से ज्यादा लोगों को बचा चुकी है संस्था
व्हाइट हैलमेट के मुताबिक करीब सवा लाख से ज्यादा लोगों को अब तक ये बचा चुके हैं। यहां पर छिड़े गृहयुद्ध में ऐसा नहीं है कि व्हाइट हैलमेट के कार्यकर्ता चपेट में नहीं आते हैं। आज तक करीब 204 कार्यकर्ताओं ने अपनी जान दूसरों को बचाने में गंवाई है। इस संस्था के कार्यकर्ताओं में हर क्षेत्र के लोग शामिल हैं।
रोक के बावजूद गिराए गए बैरल बम
यहां पर कई बार बैरल बम भी गिराए गए हैं। ऐसा तब है जब यूएन सिक्योरिटी काउंसिल ने वर्ष 2014 में एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें इस तरह के बमों का उपयोग वर्जित कहा गया था। इसके बाद भी यहां पर लोगों के ऊपर इन बमों को गिराया जा रहा है। इसके अलावा वर्ष 2015 में एक प्रस्ताव पास कर रसायनिक हमले या हथियारों के उपयोग को वर्जित किया गया था, लेकिन वह भी कागजों पर ही होकर रह गया है। बीते कुछ वर्षों में यहां पर कई बार रसायनिक हमला किया जा चुका है।
यहां पर कई बार बैरल बम भी गिराए गए हैं। ऐसा तब है जब यूएन सिक्योरिटी काउंसिल ने वर्ष 2014 में एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें इस तरह के बमों का उपयोग वर्जित कहा गया था। इसके बाद भी यहां पर लोगों के ऊपर इन बमों को गिराया जा रहा है। इसके अलावा वर्ष 2015 में एक प्रस्ताव पास कर रसायनिक हमले या हथियारों के उपयोग को वर्जित किया गया था, लेकिन वह भी कागजों पर ही होकर रह गया है। बीते कुछ वर्षों में यहां पर कई बार रसायनिक हमला किया जा चुका है।
पहली बार महिलाएं साथ
व्हाइट हैलमेट संस्था की मानें तो यह यहां पर काम करने वाली सबसे बड़ी संस्था है। पहले इसकी टीम में केवल पुरुष ही शामिल थे लेकिन वर्ष 2014 में पहली बार इस संस्था ने महिलाओं को भी अपने मिशन रेस्क्यू में शामिल किया। आज इनकी संख्या 140 तक जा पहुंची है। ये भी पुरुष कार्यकर्ताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती हुई दिखाई देती हैं। इसमें काम करने वाले कार्यकर्ताओं की कहानी अपने-आप में रौंगटे खड़े कर देने वाली है। आज उनमें से कुछ की कहानी यहां पर आपको हम बता रहे हैं। अबू हसन
अबू हसन व्हांइट हेलमेट पहने एक ऐसे ही जांबाज कार्यकर्ता हैं जिनके सामने 2017 में एक समय ऐसा भी आया था जब उनके ही बेटे का लहूलुहान हुआ शव मलबे से निकाला गया था। शव को देखने से पहले उन्हें इस बात का कोई अंदाजा भी नहीं था कि यह उनका ही बेटा है। आज इसको काफी वक्त गुजर चुका है, लेकिन इस वाकये को भुलापाना किसी के बस की बात नहीं है। पेशे से बढ़ई हैं हसन
पचास वर्षीय हसन पहले बढ़ई का काम करते थे। लेकिन वर्षों से चल रहे युद्ध ने यहां पर सब कुछ तबाह कर दिया। लोगों से अपनों को छीन लिया। इसके बाद इन्हों ने लोगों को बचाने की ठानी और व्हाइट हेलमेट पहन लिया। उनके मुताबिक हमेशा की ही तरह अलेप्पो पर उस दिन भी भीषण बमबारी हुई थी। बमबारी के बीच उन्हें एसओएस कॉल आया और बमबारी में तबाह हुई जगहों की जानकारी दी गई। वह अपनी टीम के साथ तुरंत वहां के लिए रवाना हो गए थे। जब वह अपने साथियों के साथ बमबारी वाली जगह पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि वहां पर एक युवक का शव खून से लथपथ मलबे के नीचे दबा है। उसके पांव पूरी तरह से चकनाचूर हो चुके थे। उसका सिर भी मलबे में दबा हुआ था। मलबे से उसके शरीर के अंदर से मांस निकलकर बाहर आ चुका था। आंखों के आगे छा गया अंधेरा
अबू ने अपने साथियों के साथ मिलकर मिलकर उसको बाहर निकालने की कोशिश की। उन्हें उम्मीद थी कि जिसे वह निकाल रहे हैं शायद उसमें कुछ जान बची हो। लेकिन जब उसके शरीर से मलबा हटाया गया और उसके चेहरे को साफ किया गया तो अबू की आंखें फटी की फटी रह गईं। कुछ समय के लिए उनकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया। वह सब कुछ भूल गए। उनके हाथ कांप रहे थे और वह उस उसके सिर को हाथ में लिए कुछ बोल नहीं पा रहे थे। एकाएक उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े। दरअसल, जिसे उन्होंने मलबे से निकाला था वह उनका ही बेटा था। जिस बेटे को वह सुबह ठीक ठाक घर पर छोडकर आए थे वह अब उनके हाथों में मृत पड़ा था। वह उसका सिर अपने सीने से दबाए घंटो बैठे रहे। उनके सीने में इतना दर्द था कि आंखों से आंसू भी सूख गए थे। खालिद
खालिद के लिए हर रोज एक जैसा ही होता है। एक वाकये को वह आज तक नहीं भूले हैं। उस दिन एक बैरल बम ने एक इलाके में कई इमारतों को ध्वस्त कर दिया था। उनको एक इमारत के मलबे में दबे दो परिवारों को सकुशल निकालने की जिम्मेदारी दी गई थी। वह नहीं जानते थे कि मलबे में कितने लोग जिंदा मिलेंगे। लेकिन काफी मशक्कत के बाद उन्होंने वहां से कुछ लोगों को जिंदा बचाने में कामयाबी पा ली थी। इसके बाद उन्हें जानकारी मिली की एक महिला अब भी मलबे में दबी है। उनके लिए उसको बचाना किसी चुनौती से कम नहीं था। लेकिन यहां भी वह कामयाब हुए। लेकिन जब उस महिला ने अपनी दो सप्ताह के बच्चे का जिक्र किया तो खालिद के पांव के नीचे से जमीन ही निकल गई थी। महिला बार-बार अपने बच्चे को बचाने की गुहार लगा रही थी। खालिद पर इस दुधमुंहे बच्चे को तलाशने और बचाने की बड़ी जिम्मेदारी थी।खुदाई में बरती काफी एहतियात
बच्चे को देखते हुए मलबा हटाने और वहां खुदाई करने में काफी एहतियात बरती जा रही थी। ऐसे में वक्त तेजी से बीत रहा था। काफी मशक्कत के बाद उन्हें बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी। खालिद ने मलबे के अंदर जाने का फैसला किया। उनको इस बात का भी डर सता रहा था कि कहीं उनके मलबे को हटाने के चक्कर में बच्चे के ऊपर मलबा न गिर जाए। यदि ऐसा हुआ तो वह महिला को मुंह नहीं दिखा पाएंगे। खालिद के लिए यह वक्त काफी भारी था। आखिरकार खालिद वहां तक पहुंचने में कामयाब हो गए जहां से वह बच्चे को देख पा रहे थे। लेकिन उस तक उनका एक हाथ ही पहुंच पा रहा था। काफी मशक्कत के बाद खालिद ने बच्चे से लिपटे कपड़े को खींचना शुरू किया और दो सप्ताह के बच्चे को सकुशल मलबे के बीच से निकाल लिया। बच्चे को सकुशल देख वहां पर खुशी की लहर दौड़ पड़ी और खालिद की आंखों से आंसू छलक गए थे। खालिद से जब ये पूछा गया कि क्या उस दिन के बाद वह उस बच्चे को देखने के लिए गए तो उनका कहना था कि इसके लिए वक्त ही नहीं मिल सका। लॉय मशादी
लॉय मशादी एक रेस्क्यू ऑपरेशन के दौरान एक इमारत के मलबे में जिंदा लोगों की खोज कर रहे थे। वह बताते हैं कि इस वाकये से वह करीब तीन दिनों तक बैचेन रहे थे। अलेप्पो में हुई बमबारी के बाद उन्होंने काफी मशक्कत के बाद एक नवजात को मलबे के ढ़ेर से जिंदा निकाला था। उसकी हालत बेहद नाजुक थी। उसे देखकर उनका दिल दहल गया, उनका अपना बच्चा भी उसी उम्र का था। कुछ समय के लिए वह भूल गए थे कि यह उनका बच्चा नहीं है। उस नवजात की पांव की हड्डी टूट चुकी थी और पेट पर भी गहरे जख्म थे, फिर भी वह जिंदा था। उस वक्त उनके आसपास कोई नहीं था। वह उस बच्चे को बचाने के लिए पैदल वहां से भाग निकले। इस बीच उन्होंने एंबुलेंस को भी कॉल किया। लेकिन एंबुलेंस जब तक आई उस नवजात के प्राण निकल चुके थे। मशादी के हाथों में एक नवजात निर्जीव पड़ा था। वह कुछ नहीं समझ पा रहे थे। उसको न बचा पाने के दुख से वह इस कदर विचलित हुए कि तीन दिनों तक वह खुद को संभाल नहीं सके।मोहम्मद वावी
लोगों की जान बचाने वाले मोहम्मद वावी के सामने भी एक समय ऐसा आया था। अपने इस वाकये का जिक्र करते हुए वावी बताते हैं कि अलेप्पो में हुए धमाकों के बाद वह अपनी रेस्क्यू टीम के साथ मौके पर पहुंचे थे। इस दौरान इमारत में आग लगी हुई थी और वह अपनी टीम के साथ लोगों को बचाने की जद्दोजहद में लगे थे। तभी वहां पर दोबारा एक बम गिरा जिसमें उनके छह साथी गंभीर रूप से घायल हो गए थे। उन्हें बचाने के लिए वावी तुरंत उनकी और भागे और उन्हें एक ट्रक के माध्यम से बचाया।
व्हाइट हैलमेट संस्था की मानें तो यह यहां पर काम करने वाली सबसे बड़ी संस्था है। पहले इसकी टीम में केवल पुरुष ही शामिल थे लेकिन वर्ष 2014 में पहली बार इस संस्था ने महिलाओं को भी अपने मिशन रेस्क्यू में शामिल किया। आज इनकी संख्या 140 तक जा पहुंची है। ये भी पुरुष कार्यकर्ताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करती हुई दिखाई देती हैं। इसमें काम करने वाले कार्यकर्ताओं की कहानी अपने-आप में रौंगटे खड़े कर देने वाली है। आज उनमें से कुछ की कहानी यहां पर आपको हम बता रहे हैं। अबू हसन
अबू हसन व्हांइट हेलमेट पहने एक ऐसे ही जांबाज कार्यकर्ता हैं जिनके सामने 2017 में एक समय ऐसा भी आया था जब उनके ही बेटे का लहूलुहान हुआ शव मलबे से निकाला गया था। शव को देखने से पहले उन्हें इस बात का कोई अंदाजा भी नहीं था कि यह उनका ही बेटा है। आज इसको काफी वक्त गुजर चुका है, लेकिन इस वाकये को भुलापाना किसी के बस की बात नहीं है। पेशे से बढ़ई हैं हसन
पचास वर्षीय हसन पहले बढ़ई का काम करते थे। लेकिन वर्षों से चल रहे युद्ध ने यहां पर सब कुछ तबाह कर दिया। लोगों से अपनों को छीन लिया। इसके बाद इन्हों ने लोगों को बचाने की ठानी और व्हाइट हेलमेट पहन लिया। उनके मुताबिक हमेशा की ही तरह अलेप्पो पर उस दिन भी भीषण बमबारी हुई थी। बमबारी के बीच उन्हें एसओएस कॉल आया और बमबारी में तबाह हुई जगहों की जानकारी दी गई। वह अपनी टीम के साथ तुरंत वहां के लिए रवाना हो गए थे। जब वह अपने साथियों के साथ बमबारी वाली जगह पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि वहां पर एक युवक का शव खून से लथपथ मलबे के नीचे दबा है। उसके पांव पूरी तरह से चकनाचूर हो चुके थे। उसका सिर भी मलबे में दबा हुआ था। मलबे से उसके शरीर के अंदर से मांस निकलकर बाहर आ चुका था। आंखों के आगे छा गया अंधेरा
अबू ने अपने साथियों के साथ मिलकर मिलकर उसको बाहर निकालने की कोशिश की। उन्हें उम्मीद थी कि जिसे वह निकाल रहे हैं शायद उसमें कुछ जान बची हो। लेकिन जब उसके शरीर से मलबा हटाया गया और उसके चेहरे को साफ किया गया तो अबू की आंखें फटी की फटी रह गईं। कुछ समय के लिए उनकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया। वह सब कुछ भूल गए। उनके हाथ कांप रहे थे और वह उस उसके सिर को हाथ में लिए कुछ बोल नहीं पा रहे थे। एकाएक उनकी आंखों से आंसू छलक पड़े। दरअसल, जिसे उन्होंने मलबे से निकाला था वह उनका ही बेटा था। जिस बेटे को वह सुबह ठीक ठाक घर पर छोडकर आए थे वह अब उनके हाथों में मृत पड़ा था। वह उसका सिर अपने सीने से दबाए घंटो बैठे रहे। उनके सीने में इतना दर्द था कि आंखों से आंसू भी सूख गए थे। खालिद
खालिद के लिए हर रोज एक जैसा ही होता है। एक वाकये को वह आज तक नहीं भूले हैं। उस दिन एक बैरल बम ने एक इलाके में कई इमारतों को ध्वस्त कर दिया था। उनको एक इमारत के मलबे में दबे दो परिवारों को सकुशल निकालने की जिम्मेदारी दी गई थी। वह नहीं जानते थे कि मलबे में कितने लोग जिंदा मिलेंगे। लेकिन काफी मशक्कत के बाद उन्होंने वहां से कुछ लोगों को जिंदा बचाने में कामयाबी पा ली थी। इसके बाद उन्हें जानकारी मिली की एक महिला अब भी मलबे में दबी है। उनके लिए उसको बचाना किसी चुनौती से कम नहीं था। लेकिन यहां भी वह कामयाब हुए। लेकिन जब उस महिला ने अपनी दो सप्ताह के बच्चे का जिक्र किया तो खालिद के पांव के नीचे से जमीन ही निकल गई थी। महिला बार-बार अपने बच्चे को बचाने की गुहार लगा रही थी। खालिद पर इस दुधमुंहे बच्चे को तलाशने और बचाने की बड़ी जिम्मेदारी थी।खुदाई में बरती काफी एहतियात
बच्चे को देखते हुए मलबा हटाने और वहां खुदाई करने में काफी एहतियात बरती जा रही थी। ऐसे में वक्त तेजी से बीत रहा था। काफी मशक्कत के बाद उन्हें बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी। खालिद ने मलबे के अंदर जाने का फैसला किया। उनको इस बात का भी डर सता रहा था कि कहीं उनके मलबे को हटाने के चक्कर में बच्चे के ऊपर मलबा न गिर जाए। यदि ऐसा हुआ तो वह महिला को मुंह नहीं दिखा पाएंगे। खालिद के लिए यह वक्त काफी भारी था। आखिरकार खालिद वहां तक पहुंचने में कामयाब हो गए जहां से वह बच्चे को देख पा रहे थे। लेकिन उस तक उनका एक हाथ ही पहुंच पा रहा था। काफी मशक्कत के बाद खालिद ने बच्चे से लिपटे कपड़े को खींचना शुरू किया और दो सप्ताह के बच्चे को सकुशल मलबे के बीच से निकाल लिया। बच्चे को सकुशल देख वहां पर खुशी की लहर दौड़ पड़ी और खालिद की आंखों से आंसू छलक गए थे। खालिद से जब ये पूछा गया कि क्या उस दिन के बाद वह उस बच्चे को देखने के लिए गए तो उनका कहना था कि इसके लिए वक्त ही नहीं मिल सका। लॉय मशादी
लॉय मशादी एक रेस्क्यू ऑपरेशन के दौरान एक इमारत के मलबे में जिंदा लोगों की खोज कर रहे थे। वह बताते हैं कि इस वाकये से वह करीब तीन दिनों तक बैचेन रहे थे। अलेप्पो में हुई बमबारी के बाद उन्होंने काफी मशक्कत के बाद एक नवजात को मलबे के ढ़ेर से जिंदा निकाला था। उसकी हालत बेहद नाजुक थी। उसे देखकर उनका दिल दहल गया, उनका अपना बच्चा भी उसी उम्र का था। कुछ समय के लिए वह भूल गए थे कि यह उनका बच्चा नहीं है। उस नवजात की पांव की हड्डी टूट चुकी थी और पेट पर भी गहरे जख्म थे, फिर भी वह जिंदा था। उस वक्त उनके आसपास कोई नहीं था। वह उस बच्चे को बचाने के लिए पैदल वहां से भाग निकले। इस बीच उन्होंने एंबुलेंस को भी कॉल किया। लेकिन एंबुलेंस जब तक आई उस नवजात के प्राण निकल चुके थे। मशादी के हाथों में एक नवजात निर्जीव पड़ा था। वह कुछ नहीं समझ पा रहे थे। उसको न बचा पाने के दुख से वह इस कदर विचलित हुए कि तीन दिनों तक वह खुद को संभाल नहीं सके।मोहम्मद वावी
लोगों की जान बचाने वाले मोहम्मद वावी के सामने भी एक समय ऐसा आया था। अपने इस वाकये का जिक्र करते हुए वावी बताते हैं कि अलेप्पो में हुए धमाकों के बाद वह अपनी रेस्क्यू टीम के साथ मौके पर पहुंचे थे। इस दौरान इमारत में आग लगी हुई थी और वह अपनी टीम के साथ लोगों को बचाने की जद्दोजहद में लगे थे। तभी वहां पर दोबारा एक बम गिरा जिसमें उनके छह साथी गंभीर रूप से घायल हो गए थे। उन्हें बचाने के लिए वावी तुरंत उनकी और भागे और उन्हें एक ट्रक के माध्यम से बचाया।