हृदयनारायण दीक्षित। लोकसभा चुनाव से हम भारत के लोग एक साथ दो लाभ उठाते हैं। पहला संसदीय क्षेत्र की जनता को प्रतिनिधि मिलता है। जनप्रतिनिधि से मतदाताओं के प्रति निष्ठावान रहने की अपेक्षा रहती है। मताधिकार के प्रयोग से ही सरकार मिलती है और प्रधानमंत्री भी। इसलिए चुनाव प्रचार को आदर्श संवाद से भरा पूरा होना चाहिए। सभी दलों के लिए अपनी विचारधारा रखने का यह अवसर बड़ा मूल्यवान है। विचार और मुद्दा आधारित बहसें चुनाव को लोकतांत्रिक अंतर्संगीत से भर देती हैं, लेकिन इस चुनाव में उत्सवी अंतर्संगीत की जगह कलह देखने को मिल रहा है। वैसे तो सभी चुनावों में आरोप-प्रत्यारोप के कारण वातावरण तनावपूर्ण होता रहा है, लेकिन मौजूदा चुनाव में आरोप और प्रत्यारोप की प्रकृति खासी आक्रामक है। भड़काऊ है। चुनावों के दौरान अक्सर कायम रहने वाले सामाजिक कोलाहल की जगह इस बार कलह ने ले ली है। आरोपों की तपिश मई की गर्मी से भी ज्यादा झुलसाने वाली है। वैचारिक असहमति की तुलना में शत्रु भाव दिखाई पड़ रहा है। यत्र तत्र सर्वत्र झूठे आरोप हैं। फर्जी वीडियो भी प्रसारित किए जा रहे हैं। निराधार आरोप और प्रत्यारोप चुनावी उत्सव को कलह में बदल रहे हैं। धनबल का प्रभाव खतरनाक है ही। छल छद्म का दुरुपयोग झूठ की सीमा को पार कर रहा है। अर्धसत्य का प्रयोग राष्ट्रव्यापी है।

तनाव और कलह से भरा वातावरण राष्ट्रीय चुनौती है। आम जनों पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ रहा है। डा. आंबेडकर ने संविधान सभा में जब स्वतंत्र निर्वाचन आयोग बनाने का प्रस्ताव रखा था, तब उन्होंने मताधिकार को जनतंत्र का मूल आधार बताया था। इसीलिए सभा के सभी सदस्यों के मन में चुनावों को पवित्र बनाने की इच्छा थी। हृदयनाथ कुंजरू ने कहा था कि, ‘दोषपूर्ण निर्वाचनों से लोगों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। वे अपने मताधिकार के सदुपयोग से शासन में सुधार लाने और सरकार बदलने जैसी स्थिति को महत्व नहीं देंगे।’ सभा ने स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं निर्भीक निर्वाचन आयोग संबंधी अनुच्छेद-324 का प्रस्ताव पारित कर दिया। भारत के निर्वाचन आयोग की प्रशंसा दुनिया के अन्य देशों में भी होती है। वह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनाव संपन्न कराने में प्रतिष्ठित रहा है, लेकिन वर्तमान में कलह भरे वातावरण में वह भी असहाय दिखाई पड़ रहा है।

संप्रति आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू है, लेकिन चुनाव प्रचार में आदर्श नहीं दिखाई पड़ते। आयोग को सैकड़ों शिकायतें मिल रही हैं। शिकायतों की औपचारिक जांच होती है, लेकिन इसका सकारात्मक लाभ नहीं मिलता। शब्द और अपशब्द का निर्णय करना कठिन है। दलों और नेताओं के बीच आत्मीयता नहीं दिखाई पड़ती। पहले के चुनावों में अभिव्यक्ति की मर्यादा के साथ ही परस्पर प्रेमभाव भी दिखता था। अपने-अपने दलों के प्रचार को गति देना, प्रतिपक्षी की बात काटना सामान्य था, लेकिन परस्पर आत्मीय बने रहना प्रशंसनीय था। इस चुनाव में सारी मर्यादाएं भंग होती दिखती हैं। शायद इसी कटुतापूर्ण वातावरण के कारण भी मतदान के प्रति लोगों में निराशा है। निर्वाचन आयोग की तरफ से मतदान की हरसंभव अपील की जा रही है, लेकिन आरंभिक दो चरणों में मतदान का प्रतिशत गिरा है। आयोग अकेले इस स्थिति का सामना कैसे कर सकता है? कटुतापूर्ण वातावरण को दूर करने के लिए सभी दलों के वरिष्ठ नेताओं को परस्पर विचार-विमर्श करना चाहिए।

आदर्श चुनाव आचार संहिता में व्यक्तिगत आक्षेपों पर पाबंदी है, लेकिन चुनाव प्रचार में व्यक्तिगत आक्षेपों का ही बोलबाला है। भाषा भी कटुतापूर्ण है। जबकि भाषा संवाद का माध्यम है। सुंदर शब्द संवाद को मधुर बनाते हैं। दलों को शब्द और अपशब्द में अंतर करना चाहिए। पतंजलि ने ‘महाभाष्य’ में बताया है कि एक ही शब्द अपने प्रयोग के अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ देता है। ऋग्वेद के अनुसार भाषा बुद्धि से शुद्ध की जाती है। अथर्ववेद में शब्द माधुर्य की स्तुति है कि हमारी जिह्वा का अग्रभाग मधुर हो और हम रोषपूर्ण वाणी भी मधुरता के साथ बोलें। वैदिक कालीन सभा एवं समितियों में मधुर बोलने की प्रतिस्पर्धा थी। उस समृद्ध परंपरा से इतर इस चुनाव में कटुतापूर्ण आक्षेपों की प्रतिस्पर्धा है। वरिष्ठजन जो बोलते हैं, उसी अनुसार स्थानीय स्तर पर भी नेता कड़वा बोलते हैं। ऐसे वातावरण में निर्वाचित प्रतिनिधि संसद और विधानमंडलों में इसी कटुता का प्रयोग करते हैं। सदनों को आत्मीयता का मंच बनाने के लिए पहले हमें चुनावी बहसों को आत्मीय एवं प्रेम पूर्ण बनाना होगा। मूलभूत प्रश्न है कि जो भारत हजारों वर्ष पहले वैदिक काल से ही प्रेम पूर्ण वाणी का उपासक रहा है, उसी भारत के लोकसभा के चुनाव में शब्द के विकल्प अपशब्द क्यों हो गए हैं? समाचार माध्यमों का एक वर्ग भी ऐसे संवाद को महत्व देता है। अपने विपक्षी से सम्मानपूर्ण बात करना लोकतंत्र की शान है। 2017 के विधानसभा चुनाव में मैंने अपने मुख्य प्रतिपक्षी उम्मीदवार का नाम सभी सभाओं में आदर के साथ लिया और कहा कि वह मुझसे श्रेष्ठ हैं। मेरे व्यवहार की प्रशंसा हुई।

भारतीय चिंतन में शब्द को ब्रह्म कहा गया है। हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं में शब्दों का विपुल भंडार है। यह शब्द प्रयोगकर्ता के उद्देश्य और विवेक पर निर्भर है। फेसबुक, एक्स (ट्विटर) आदि ने विचार अभिव्यक्ति का प्रभावी मंच दिया है। इसमें विचार प्रकट करने के अवसर हैं, लेकिन आधुनिक तकनीक का सदुपयोग कम दिखाई देता है। इंटरनेट मीडिया का सदुपयोग सत्य, शिव और सौंदर्य के लिए क्यों नहीं हो सकता? चैनलों पर बहसों में प्रतिभागी चिल्लाते हैं। कभी-कभी मारपीट की भी नौबत तक आ जाती है। समझ नहीं आता कि किसी घटना के वर्णन में आक्रामक वाक्यों के ही प्रयोग क्यों होते हैं? यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में ज्ञानवान गुणी (अरिस्तोस) लोगों के शासन को सर्वोच्च बताया है। भारतीय परंपरा में भी शासक में सदाचार युक्त गुणों की उपस्थिति अनिवार्य बताई गई है, किंतु वर्तमान चुनाव में सब तरफ शोर है। कलह है। आक्रामकता है। परस्पर कटुता है। धनबल बाहुबल का प्रभाव है। ऐसी स्थिति चिंताजनक है। चुनाव युद्ध नहीं हैं। लोकतांत्रिक तरीके से प्रतिनिधि और सरकार चुनने का अवसर हैं। निर्भीक मतदान मतदाता का मौलिक अधिकार है। राजनीतिक दल और नेता मिलजुलकर इस वातावरण को बदल सकते हैं। तभी हम चुनाव को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक उत्सव बना पाएंगे।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)