100 साल बाद भी दया की बाती से जल रहा प्रेम का दीपक, मकर संक्रांति पर मंदार आते हैं हजारों सफा धर्मावलंबी
100 साल बाद भी दया की बाती से प्रेम का दीपक जल रहा है। हर साल इसका उजाला मंदार में मकर संक्रांति के आसपास देखने को मिलता है। मंदार की तलहटी से लगभग 100 वर्ष पूर्व चंदर दास ने प्रेम के इसी नए पंथ सफा की शुरुआत की थी।
By Shekhar Kumar SinghEdited By: Prateek JainUpdated: Mon, 09 Jan 2023 09:54 PM (IST)
बांका, शेखर सिंह। 100 साल बाद भी दया की बाती से प्रेम का दीपक जल रहा है। हर साल इसका उजाला मंदार में मकर संक्रांति के आसपास देखने को मिलता है। मंदार की तलहटी से लगभग 100 वर्ष पूर्व चंदर दास ने प्रेम के इसी नए पंथ सफा की शुरुआत की थी। लक्ष्य था- आदिवासी समाज में प्रचलित बुराइयों को दूर करने का। प्रेम व दया को अपनाकर जीवन बिताने का। तब से आज तक सफा धर्मावलंबी मांस, मदिरा, प्याज-लहसुन और बलि प्रथा तक से दूर हैं।
हर साल 10 से 14 जनवरी तक ये मंदार के पास कड़ाके की ठंड में जमा होकर अपने धार्मिक अनुष्ठान के साथ मानवता का यह संकल्प भी दोहराते हैं। शराब पीना तो दूर रहा, ये लोग शराब को छूते तक नहीं। इस बार भी सैकड़ों धर्मावलंबी मंदार की तलहटी में अपने इस संकल्प को दोहराने के लिए जमा हो चुके हैं।
1934 में हुई सफा धर्म की स्थापना
सफा धर्मावलंबी आज मंगलवार से पापहरणी सरोवर में स्नान करने के बाद सफा धर्म के संस्थापक चंदर दास की पूजा-अर्चना करेंगे। साफ-सुथरी व सात्विक विचारधारा के कारण ही इस धर्म का नाम सफा पड़ा। सबलपुर निवासी स्वामी चंदर दास ने 1934 में सफा धर्म की स्थापना की थी। उस समय संथाल समाज में नशे के साथ बलि प्रथा का बोलबाला था। इसे दूर करने के लिए उन्होंने अभियान चलाया। आज बिहार, झारखंड, बंगाल और ओडिशा में उनके एक लाख से अधिक अनुयायी हैं। उनका देहांत 1974 में हुआ था। उनके सेवक निर्मल दास ने बताया कि सनातन धर्म का ही एक रूप सफा धर्म है।मंदार पर्वत को साक्षी मानकर नशामुक्ति के लिए चला रहे अभियान
संत चंदर दास ने नशामुक्त समाज की परिकल्पना का प्रचार-प्रसार 1920 से शुरू किया था। बाद में आश्रम की भी स्थापना की। आदिवासी समुदाय से आनेवाली कटोरिया की भाजपा विधायक डा. निक्की हेंब्रम बताती हैं कि 100 वर्ष से अधिक समय से सफा धर्मावलंबी मंदार पर्वत को साक्षी मानकर नशामुक्ति के लिए अभियान चला रहे हैं। सफा धर्म के वर्तमान आचार्य सेवक निर्मल दास ने बताया कि हिंसा व नशा से दूर होकर स्वच्छता, गौसेवा व आध्यात्मिक ज्ञान का सहारा लेना ही उनके धर्म का मूल संदेश है। इसका पहला अधिवेशन 1946 में मंदार की तराई में स्थित नाथ थान में हुआ था।
सफा धर्म के संस्थापक संत चंदर दास का जन्म मंदार पर्वत के बगल में स्थित सबलपुर गांव में 1892 में हुआ था। मंदार पर्वत पर भगवान नरसिंह के तत्कालीन पुजारी नरहरिदास की संगत में आकर उनमें भक्ति व समाज सुधार की भावना आई। उनका निधन 1974 में हुआ था। सफा धर्मावलंबी मंदार में अपने अराध्य मरांग बुरु (शिव का एक रूप) की पूजा-अर्चना करते हैं। ये पूरे मंदार को ही अपना देवता मानते हैं।
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