Trichoderma Fungus बिहार में कृषि विज्ञानियों ने जैविक कृषि को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से लड़ने में सक्षम बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया है। भागलपुर के सबौर स्थित बिहार कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू) ने सबौर ट्राइकोडर्मा (फफूंद) विकसित किया है जो जैविक खेती के लिए वरदान बनेगा।
By Jagran NewsEdited By: Prateek JainUpdated: Mon, 10 Apr 2023 06:12 PM (IST)
भागलपुर, ललन तिवारी: जैविक कृषि को निरंतर प्रोत्साहन दिया जा रहा है। शहरों में भी स्वास्थ्य बेहतर रखने के लिए रासायनिक खाद के प्रयोग से तैयार अनाज, फल व सब्जियों के स्थान पर जैविक उत्पादों का प्रयोग बढ़ रहा है।
अब बिहार में कृषि विज्ञानियों ने जैविक कृषि को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से लड़ने में सक्षम बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया है।
भागलपुर के सबौर स्थित बिहार कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू) ने सबौर ट्राइकोडर्मा (फफूंद) विकसित किया है, जो जैविक खेती के लिए वरदान बनेगा। यह मित्र फंफूद बढ़ते तापमान को सहन करने में सक्षम है और 45 डिग्री सेल्सियस तक भी जीवित रह सकता है।
मसूर-चने पर प्रयोग रहा सफल
यह देश में विकसित पहला ट्राइकोडर्मा है, जो इतने अधिक तापमान पर सक्रिय रह सकेगा। यही नहीं क्षारीय मिट्टी में भी यह बेहतर कार्य करेगा।
विलक्षण प्रकृति का यह ट्राइकोडर्मा जलवायु परिवर्तन के कारण प्रभावित होकर सूख रही भूमि पर भी फसलों को रोग मुक्त ही नहीं रखेगा बल्कि गुणवत्तापूर्ण भी बनाएगा।
इसे मसूर और चने की फसलों पर प्रयोग कर परखा जा चुका है। केले में लगने वाली पनामा बिल्ट बीमारी के रोकथाम के लिए भी यह वरदान बनेगा।
सीता कुंड के गर्म जल में किया गया विकसित
बीएयू के विज्ञानी ने मुंगेर के सीता कुंड में इस ट्राइकोडर्मा को विकसित किया है। गर्म कुंड के पानी से विकसित करने का फायदा यह है कि यह अधिक से अधिक तापमान को सहन करने की क्षमता रखता है। अब इसे पेटेंट कराकर राष्ट्रीय स्तर पर प्रयोग के लिए जारी करने की तैयारी की जा रही है।
इस ट्राइकोडर्मा को विकसित करने वाले डॉ. अरशद अनवर कहते हैं कि सबौर ट्राइकोडर्मा अब तक विकसित सबसे बेहतर ट्राइकोडर्मा है। यह गर्म जल से सिंचित होने वाली मिट्टी से विकसित किया गया है।
बाकी ट्राइकोडर्मा क्रॉप फील्ड (शोध के लिए फसल लगाने की जगह) से विकसित किए जाते हैं। यह 35 डिग्री उच्च तापमान में भी बेहतर काम करता है, जबकि अन्य 30 डिग्री तक ही कम कर सकते हैं।
यह 45 डिग्री के तापमान में भी सहनशील है, जबकि अन्य 35 डिग्री में ही दम तोड़ देते हैं। क्षारीय मिट्टी में और सूखी जगह पर भी यह ट्राइकोडर्मा बेहतर काम करता है, जबकि अन्य नहीं कर पाते।
अन्य ट्राइकोडर्मा पौधों में 11 दिन तक रोग लगने से रोक सकते हैं, जबकि इसकी यह क्षमता 18 दिनों की है। यह सभी फसलों के लिए कारगर है।
क्या है ट्राइकोडर्मा ?
जैविक खेती के लिए ट्राइकोडर्मा वरदान है। यह मित्र फफूंद हानिकारक फफूंदनाशी और जैव उर्वरक का काम करता है। मिट्टी में कई तरह के हानिकारक सूक्ष्मजीव पाए जाते हैं।
यह नुकसान करने वाले जीवों को मार देता है और लाभकारी सूक्ष्म जीवों की सहायता करता है। इस तरह बगैर रासायनिक उर्वरक और कीटनाशी का उपयोग किए यह गुणवत्तापूर्ण फसल उत्पादन में सहायक होगा।
ऐसे करें उपयोग
केले का पौधा लगाने के समय 30 ग्राम प्रति पौधा मिट्टी में इसे मिलाकर जड़ के पास दिया जाता है। अन्य फसलों में 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज में मिलाकर बीजों का उपचार किया जाता है।
25 किलो सड़े गोबर की खाद में एक किलोग्राम ट्राइकोडर्मा मिलाकर 15 दिन इसे ढककर छोड़ दिया जाता है। बाद में इसे खेतों में छींटा जाता है। इससे मिट्टी में रोग नहीं लगता है। यह चार प्रकार से काम करता है।
यह ट्राइकोडर्मा भोजन और जगह रोगजनित बैक्टीरिया से अधिक लेता है। इससे हानिकारक बैक्टीरिया को पनपने का कम अवसर मिलता है और वह समाप्त हो जाता है। इससे एंटीबायोसिस बायोकेमिकल निकलता है। यह रोग जनित सूक्ष्म जीवों को मार देता है।
सबौर ट्राइकोडर्मा जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ रहे तापमान के परिपेक्ष्य में काफी उपयोगी है। सफलतापूर्वक किसानों के खेतों में इसका प्रयोग किया जा रहा है। इसे जल्द रिलीज किया जाएगा। विश्वविद्यालय इस दिशा में प्रयासरत है। - डॉ. दुनियाराम सिंह, कुलपति, बीएयू सबौर
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