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महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज : ‘देह धरे कर यहि फल भाई। भजिय राम सब काम बिहाई।।’

महर्षि मेंहीं अपने प्रवचनों में कहा करते थे कि सन्तों का विचार मेरा प्राणधार है। मैं इस विचार में इतना दृढ़ हूँ की मुझे कोई डुला नहीं सकता।

By Dilip ShuklaEdited By: Updated: Wed, 05 Jun 2019 12:07 PM (IST)
महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज : ‘देह धरे कर यहि फल भाई। भजिय राम सब काम बिहाई।।’
भागलपुर [जेएनएन]। महर्षि मेंहीं आश्रम कुप्पा घाट में महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की 33वीं पुण्यतिथि पर आयोजित सत्संग में गुरु सेवी भगीरथ दास जी महाराज ने कहा कि ईश्वर एक है और इन्हें पाने का रास्ता भी एक ही है। सत्संग में कहा कि महाराज परमहंस जी महाराज ने अंतिम समय में संत कबीर दास महाराज जी का भजन 'शुकरत कर ले, नाम सुमर ले, को जाने कल की, जगत में खबर पल की'।

महाराज जी ने अनुयायियों को बताया कि बिना गुरु की कृपा पाए जीवन उधार है और संतमत का सारा ज्ञान गुरु में ही निहित है। परमात्मा की ओर जाने का रास्ता सदगुरु ही बताते हैं। महाराज जी ने दो काम करने की सलाह अपने भक्तों दी है। पहला सत्संग और दूसरा सत्यधर्म पर चलना।

भक्तों को सत्संग में कहा कि समय पर आत्ममंथन के लिए सभी को ध्यान करना चाहिए। सत्संग में अनुयायी महाराज की वाणी से मंत्रमुग्ध हो गए। सभी हाथ हिलाकर झूमते दिखे। महाराज की पुण्यतिथि महापरिनिर्वाण दिवस के रूप में मनी। इस दौरान स्वामी प्रमोद बाबा, स्वामी नरेशानंद जी महाराज, स्वामी सत्यप्रकाश बाबा, डॉ. स्वामी विवेकानंद महाराज, स्वामी निर्मलानंद जी महाराज, स्वामी नंद बाबा, सुरेशानंद बाबा, छोटेलाल बाबा, सुबोध बाबा, संजय बाबा, नत्थु बाबा शिरकत किए। वहीं, अखिल भारतीय महासभा के पदाधिकारी अरुण अग्रवाल, मंत्री सूरज नारायण, व्यवस्थापक श्रद्धानंद बाबू थे।

ध्यान शिविर के बाद महाभंडारा

आश्रम में तड़के तीन बजे से ही भक्त पहुंचने लगे थे। चार बजे साधकों और भक्तों के लिए ध्यानाभ्यास शिविर का आयोजन किया गया। इसके बाद दोपहर महाभंडारा का आयोजन हुआ। इसके बाद महर्षि हरिनंदन बाबा के द्वारा संतसेवी जी महाराज के समाधि पर पुष्पांजलि की गई। तीन बजे से महाराज जी का प्रवचन हुआ।

कई राज्य और नेपाल से भी पहुंचे अनुयायी

परमहंस जी महाराज की पुण्यतिथि पर अनुयायी देश के लगभग सभी राज्यों से पहुंचे थे। सत्संग में भागलपुर, पूर्णिया, किशनंगज, सहरसा, कटिहार, मधेपुरा, सुपौल, अररिया, बांका, मुंगेर, नालंदा, पटना, आरा, सासाराम, बक्सर, सिवान, मुजफ्फरपुर, नवादा, लखीसराय, जमुई के अलावा झारखंड, महाराष्ट्र, दिल्ली, हरियाणा, पश्चिम बंगाल के अलावा नेपाल से भी भक्त और अनुयायी पहुंचे थे। करीब पांच हजार के आसपास भीड़ रही।

महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज : एक परिचय 

सद्गुरू महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का अवतरण विक्रम संवत् 1642 के वैशाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के उदाकिशुनगंज थाने के खोखशी-श्याम (मझुआ) नामक ग्राम में अपने नाना के यहां हुआ था। जन्म से ही इनके सिर में सात जटाएं थीं, लोगों ने समझा कि अवश्य ही किसी योगी-महात्मा का प्रादुर्भाव हुआ है। ज्योतिषी ने इनका जन्म-राशि का नाम रामानुग्रहलाल दास रखा। बाद में इनके पिता के चाचा श्री भरतलाल दासजी ने इनका नाम बदलकर ‘मेंहीं लाल’ रख दिया। कालान्तर में इनके अन्तिम सद्गुरूदेव परम संत बाबा देवी साहब ने भी इनके इस नाम की सार्थकता का सहर्ष समर्थन किया।

महर्षिजी का पितृ गृह पूर्णियां जिलान्तर्गत बनमखी थाने के सिकलीगढ़ धरहरा नामक ग्राम में अवस्थित है। मैथिली कर्ण कायस्थ कुलोत्पन्न इनके पिताश्री बबुजनलाल दास जी यद्यपि आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न थे, तथापि वर्षों तक बनैली राज के एक कर्मचारी रहे। पाँच वर्ष की अवस्था में मुण्डन संस्कार होने के बाद अपने गांव की ही पाठशाला में इनकी प्रारम्भिक शिक्षा शुरू हुई, जिसमें इन्होने कैथी लिपि के साथ-साथ देवनागरी लिपि भी सिखी। प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त करके इन्होने 11 वर्ष की अवस्था में पूर्णिया जिला स्कूल में पुराने अष्टम वर्ग में अपना नाम लिखवाया। यहाँ उर्दू, फारसी और अंग्रेजी के कक्षा की पाठ्य पुस्तकें पढ़नें के साथ-साथ पूर्व आध्यात्मिक संस्कार से प्रेरित होकर रामचरितमानस, महाभारत, सुखसागर आदि धर्मग्रन्थों का भी अवलोकन करते और शिव को इष्ट मानकर उन्हें जल चढ़ाया करते। सन् 1909 में इन्होने जोतरामराय (पूर्णियां) के एक दरियापंथी साधु सन्त श्री रामानन्द जी से मानस जप, मानस ध्यान और खुले नेत्रों से किये जानेवाले त्राटक की दीक्षा ले ली और नियमित रूप से अभ्यास भी करने लगे। योग-साधना की और बढ़ती हुई अभिरूचि के कारण अब ये पाठ्य पुस्तकों की और से उदासीन होने लगे और मन-ही-मन साधु-सन्तों की संगति के अभिलाषी हो उठें।

प्रबल वैराग्य: 1904 ई0 में 3 जुलाई से आरम्भ हुई मैट्रिक की परीक्षा के अँग्रेजी प्रश्न-पत्र में एक कविता की जिन प्रारम्भिक चार पंक्तियों उद्धत करके उनकी व्याख्या करने का निर्देश किया गया था, वे इस प्रकार थीः

For the structure that we raise

Time with material's field

Our today's and yeasterday's

Are the blocks with which we build.

इन चार पंक्तियों को उद्धत करके इनकी व्याख्या लिखते-लिखते इनमें वैराग्य की भावन इतनी प्रबल हो गई कि इन्होंने अन्त में रामचरितमानस की यह चैपाई ‘देह धरे कर यहि फल भाई। भजिय राम सब काम बिहाई।।’ लिखकर परीक्षा-भवन का परित्यागकर दिया और यहीं इनकी स्कूली शिक्षा का सदा के लिए अन्त हो गया।

गुरु की तलाशः महर्षि मेंहीं ने धर्मग्रन्थों में पढ़ा था कि मानव-जीवन में ही है। इसलिए इन्होने आजीवन ब्रह्मचारी रहकर ईश्वर-भक्ति में अपना समस्त जीवन बिता देने का संकल्प लिया। आरम्भ में इन्होने अपने गुरु स्वामी श्री रामानन्दजी की कुटिया पर रहकर निष्ठापूर्वक उनकी सेवा की, किन्तु जिज्ञासाएं शान्त नहीं हुई। इसलिए एक सच्चे और पूर्ण गुरू की खोज में ये निकल पड़े। इसी क्रम में इन्होने भारत के अनेक तीर्थों की यात्राएं की, परन्तु कहीं भी इनके चित्त को समाधान नहीं मिला। अन्त में इन्हें जब जोतरामराय-निवासी बाबू श्रीधीरजलाल जी गुप्त द्वारा मुरादाबाद- निवासी परम संत बाबा देवी साहब और उनकी सन्तमत-साधना की जानकारी मिली, जब इनके हृदय में सच्चे गुरु के मिल जाने की आशा बँध गई। बड़ी आतुरता से इन्‍होंने वर्ष 1909 में बाबा देवी साहब द्वारा निर्दिष्ट मार्ग, ‘दृष्टियोग’ की विधि भागलपुर नगर में मायागंज-निवासी बाबू राजेन्द्रनाथ सिंह जी से प्राप्त की, तो इन्हे बड़ा सहारा मिला। उसी वर्ष विजयादशमी पर राजेन्द्रनाथ सिंह ने भागलपुर में ही बाबा देवी साहब से इनकी भेंट करवा दी और इनका हाथ सद्गुरु देव के हाथों में दे दिया और बोले की मैं आपका गुरु नहीं, बाबा साहबही आपके गुरु हैं। मैं तो उनका आदेशपालक हूं। बाबा देवी साहब जैसे महान् सन्त सद्गुरु को पाकर ये निहाल हो गये। उनके दर्शन और प्रवचन से इन्हें बड़ी शान्ति मिली और तृप्ति का बोध हुआ।

गंभीर साधना और साक्षात्कार : वर्ष 1912 में बाबा देवी साहब ने स्वेच्छा से इन्हें शब्दयोग की विधि बतलाते हुए कहा कि अभी तुम दस वर्ष तक केवल दृष्टियोग का ही अभ्यास करते रहना। दृष्टियोग में पूर्ण हो जाने पर ही शब्दयोग का अभ्यास करना। सन् 1918 ई0 में सिकलिगढ़-धरहरा में इन्होने जमीन के नीचे एक ध्यानकूप बनाया और उसमें लगातार तीन महीने तक एकान्त में रहकर तपस्यापूर्ण साधना की, जिसमें इनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया। सन् 1919 की 19 जनवरी को बाबा देवी साहब के परिनिवृत हो जाने के बाद इनके मन में इसी जीवन में मोक्ष प्राप्त कर लेने का प्रबल संवेग सतत् उठता रहा। सन् 1933-34 ई0 में इन्होने पूर्ण तत्परता के साथ 18 महीने तक भागलपुर के कुप्पाघाट की गुफा में शब्दयोग की अत्यन्त गंभीर साधना की, फलस्वरूप ये आत्म-साक्षात्कार में सफल हो गये।

सन्तमत का प्रचार-प्रसार: अब इनका ध्यान सन्तमत-सत्संग के प्रचार-प्रसार की ओर विशेष रूप से गया। इन्होंने सत्संग की एक विशेष नियमावली तैयार की। पुस्तकों के प्रचार का सबसे बड़ा माध्यम समझकर इन्होने लेखन की और ध्यान दिया। ये अपनी साहित्यिक रचनाओं और प्रवचनों द्वारा यह सिद्ध करने लगे की सभी सन्तों के विचार मूलतः एक है और सन्तमत वेद, उपनिषद, गीता आदि ग्रन्थों के विचारों पर ही आधारित है। आज भारत के विभिन्न राज्यों तथा विदेशों में फैले हुए इनके शिष्यों की संख्या अगणित है।

महर्षि मेंहीं अपने प्रवचनों में कहा करते थे कि ‘‘सन्तों का विचार मेरा प्राणधार है। मैं इस विचार में इतना दृढ़ हूँ की मुझे कोई डुला नहीं सकता। मेरी रचित पुस्तकें जो पढ़ेंगे, वे भी दृढ़ होंगे, ऐसा मेरा विचार है।’’ देश-भर में उनके द्वारा और उनके नाम पर संस्थापित 500 से ज्‍यादा आश्रम हैं। महर्षि सन्तसेवी परमहंस जी महाराज प्रधान शिष्य थे। जिनको गुरुदेव प्रायः अपना मस्तिष्क कहा करते थे। संत महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज 8 जून 1986 ई रविवार को जीवन के 101 वर्ष पूरे करके इस संसार से महाप्रयाण कर गये।

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