450 साल पुरानी सिंदुर खेला की परंपरा, मां दुर्गा की विदाई पर खास मान्यता, भक्ति में डूबा सीमांचल और पूर्वी बिहार
Dusseehra 2021 विजयदशमी के दिन बिहारभर में स्थापित हुईं मां दुर्गा की प्रतिमा पर सुबह से ही श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ने लगी। पश्चिम बंगाल की 450 साल पुरानी परंपरा बिहार के कई जिलों में भी देखने को मिली। इस परंपरा का महत्व पौराणिक मान्यता क्या है पढ़ें...
By Shivam BajpaiEdited By: Updated: Fri, 15 Oct 2021 02:47 PM (IST)
आनलाइन डेस्क, भागलपुर। दशहरा (Dusseehra 2021) के अवसर पर बिहार में 450 साल पुरानी परंपरा सिंदूर खेला को महिलाएं जीवंत रखें हुए हैं। महिलाएं सिंदूर खेलते हुए नजर आ रहीं हैं। एक-दूसरे की मांग और गाल पर सिंदूर लगाकर मां की विदाई की जा रही है। परंपरा के पीछे का कहानी भी बड़ी रोचक है। भागलपुर का बरारी घाट हो या कहलगांव का बटेश्वरस्थान, माता की विदाई मानें प्रतिमा विसर्जन पर सिंदूर खेला (Sindur Khela) का भक्तिमय नजारा देखने को मिला। स्थापना स्थान से लेकर घाट तक महिलाएं एक दूसरे को सिंदूर लगा इस उत्सव को मनाती हैं।
नवरात्रि का त्योहार देशभर में मनाया जाता है। हर जगह की अपनी अलग-अलग रीति रिवाज हैं। नौ दिनों तक व्रत-उपवास और फलाहार करने वाले श्रद्धालु भक्ति में लीन रहते हैं। बिहार समेत अन्य दूसरे राज्यों में दशहरा के दिन सिंदूर उत्सव का भी महत्व है। पश्चिम बंगाल की ये परंपरा सीमावर्ती जिलों में पहले तो दिखाई देती थी लेकिन अब इसके महत्व को समझते हुए बिहार की महिलाओं ने भी इसे अपना लिया है।
(भागलपुर में सिंदुर खेला, फोटो- राजकिशोर, छायाकार दैनिक जागरण)बिहार के किशनगंज, अररिया, सुपौल, पूर्णिया और भागलपुर में मां दुर्गा को विदाई देने बंगाली समुदाय की महिलाएं इकठ्ठा हुईं, जहां सभी महिलाओं ने एक-दूसरे को सिंदूर लगाकर सुहागिन रहने की शुभकामनाएं दी। शारदीय नवरात्रि के अंतिम दिन दुर्गा पूजा और दशहरा के अवसर पर बंगाली समुदाय की महिलाएं मां दुर्गा को सिंदूर अर्पित करती हैं। इसे सिंदूर खेला के नाम से जाना जाता है।
सिंदूर खेला की मान्यतामान्यता है कि ये उत्सव मां की विदाई के रूप में मनाया जाता है। सिंदूर खेला के दिन पान के पत्तों से मां दुर्गा के गालों को स्पर्श करते हुए उनकी मांग और माथे पर सिंदूर लगाकर महिलाएं अपने सुहाग की लंबी उम्र की कामना करती हैं। बता दें कि ये उत्सव महिलाएं दुर्गा विसर्जन के दिन ही मनाती हैं।
(सिंदूर उत्सव मनाती महिलाएं)सिंदूर उत्सव की पौराणिक कथाआचार्य पुरोहितों के अनुसार, नवरात्रि में मां दुर्गा 10 दिनों के लिए अपने मायके आती हैं, इन्हीं 10 दिनों को दुर्गा उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इसके बाद 10वें दिन माता पार्वती अपने घर यानी भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत पर चली जाती हैं। आज से 450 साल पहले बंगाल में दुर्गा विसर्जन से पहले सिंदूर खेला का उत्सव मनाया गया था। उत्सव को मनाने के पीछे लोगों की मान्यता है कि मां दुर्गा उनके सुहाग को लंबी उम्र प्रदान करेंगी।
(सेल्फी तो बनती है...)प्रतिमा विसर्जन का विधि विधान
आपके शहर की हर बड़ी खबर, अब आपके फोन पर। डाउनलोड करें लोकल न्यूज़ का सबसे भरोसेमंद साथी- जागरण लोकल ऐप।- विसर्जन के दिन अनुष्ठान की शुरुआत महाआरती से होती है और देवी मां को शीतला भोग अर्पित किया जाता है।
- कोचुर शाक, पंता भात और इलिश माछ को भी शामिल किया जाता है।
- पूजा में एक दर्पण को देवी के ठीक सामने रखा जाता है और श्रद्धालु देवी दुर्गा के चरणों की एक झलक पाने के लिए दर्पण में देखते हैं।
- मान्यता है कि जिसे दपर्ण में मां दुर्गा के चरण दिख जाते हैं उन्हें सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
- पूजा के बाद देवी बोरोन किया जाता है, जहां विवाहित महिलाएं देवी को अंतिम अलविदा कहने के लिए कतार में खड़ी होती हैं।
- उनकी बोरान थाली में सुपारी, पान का पत्ता, सिंदूर, आलता, अगरबत्ती और मिठाइयां होती हैं।
- महिलाएं अपने दोनों हाथों में पान का पत्ता और सुपारी लेती हैं और मां के चेहरे को पोंछती हैं।
- इसके बाद मां को सिंदूर लगाया जाता है।
- शाखां और पोला (लाल और सफेद चूड़ियां) पहनाकर मां को विदाई दी जाती हैं।
- मिठाई और पान-सुपारी चढ़ाया जाता है। आंखों में आंसू लिए हुए मां को विदाई दी जाती है।
- इसी के साथ सिंदूर खेला होता है। पूजा के बाद प्रसाद वितरण किया जाता है।