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विक्रमशिला: एक अनुपम बौद्ध महाविहार, इसके पुरावशेष आज भी बयां कर रहे पुरातन गौरव गाथा

विक्रमशिला के पुरावशेष उस पुरातन गौरव गाथा को आज भी अपने गर्भ में समेटे हुए जिसने इसे विश्वभर में एक अलग पहचान दिलाई। बिहार की ऐतिहासिक धरोहरों में से एक भागलपुर स्थित विक्रमशिला का इतिहास 800 सालों तक दफ्न रहा।

By Shivam BajpaiEdited By: Updated: Sat, 07 May 2022 01:54 PM (IST)
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बिहार की ऐतिहासिक धरोहरों में से एक विक्रमशिला।
जागरण संवाददाता, भागलपुर: प्राचीन भारत में नालंदा, तक्षशिला, ओदंतपुरी और सोमपुरा बौद्ध विहारों की तरह विक्रमशिला की मान्यता शिक्षा के साथ धर्म, अध्यात्म तथा दर्शन के प्रमुख केंद्र के रूप में थी। तिब्बती ग्रंथों उल्लखित है कि बौद्ध धर्म की उद्गम-स्थली भारत में इसके अवसान-काल में विक्रमशिला ने ही इसकी अंतिम लौ को प्रज्जवलित रखा था।

पाल राजा धर्मपाल द्वारा स्थापित-आधुनिक युग का ऑक्सफोर्ड

इतिहास के जानकार शिवशंकर सिंह पारिजात, (अवकाश प्राप्त, उप जनसंपर्क निदेशक ) बताते हैं, 'महाविहार की स्थापना आठवीं शताब्दी में पाल-वंश के राजा धर्मपाल ने की थी। कहलगांव (भागलपुर, बिहार) के अंतीचक ग्राम में विद्यमान विक्रमशिला के पुरावशेष आज भी पुरातन गौरव-गाथा को बयां कर रहे हैं। इस महाविहार की उच्च स्तरीय शिक्षण व्यवस्था को देखते हुए यदि इसे आधुनिक युग का ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।' 

उन्होंने आगे बताया कि यहां यहां प्रवेश पाना अत्यंत कठिन होता था और इसके लिए छात्रों को विद्वान पंडितों की कठिन कसौटी पर खरा उतरना होता था। विक्रमशिला के संस्थापक राजा धर्मपाल ने विक्रमशिला विहार के केंद्र में 108 मंदिरों के बीच एक विशाल मंदिर बनवाया था। जहां धार्मिक कृत्यों के साथ शिक्षा देने का भी काम चलता था। इतिहासकार प्रो. राधाकृष्ण चौधरी के अनुसार यहां आचार्यों की संख्या 160 और छात्रों की संख्या करीब 10,000 थी। अपनी स्थापना से करीब चार शताब्दियों तक उच्च शिक्षण- केंद्र के रूप में मान्य रहे विक्रमशिला की ख्याति भारत सहित दक्षिण-पूर्व एशिया, खासकर तिब्बत तक फैल चुकी थी।

उत्कृष्ट शैक्षणिक व्यवस्था

विहार का मुख्य सभागार विज्ञान-कक्ष कहलाता था, जहां के छह महाविद्यालयों में महायान, तंत्र-मंत्र, योग, काव्य, व्याकरण, न्याय आदि विधाओं के साथ अध्यात्म, हेतु विद्या, सांख्य, शिल्प-स्थान विद्या की भी शिक्षा दी जाती थी। यहां के छह महाविद्यालयों के मुख्य द्वारों पर रत्नव्रज, ज्ञानश्री मित्र, प्रज्ञाकर मति, रत्नाकर शांति, वागीश्वर कीर्ति सरीखे उद्भट विद्वानगण द्वार-पंडित के रूप में नियुक्त थे जो विहार में प्रवेश के पूर्व छात्रों की परीक्षा लेते थे जिसमें उत्तीर्ण होने पर ही दाखिला मिलता था।

राजकीय विश्वविद्यालय-दीक्षांत-समारोह का आयोजन

अपनी स्थापना-काल से ही पाल राजाओं के शासन-केंद्र के निकट रहने के कारण विक्रमशिला नालंदा, सोमपुरा व ओदंतपुरी महाविद्यालयोंकी तुलना में हमेशा अच्छी स्थिति में रहा। राजा ही इस महाविहार के कुलाधिपति (चांसलर) हुआ करते थे जो पंडितों व अन्य आचार्यों की नियुक्तियां करते थे। आज की तरह यहां दीक्षांत समारोह आयोजित कर उपाधियां वितरित की जाती थीं, वहीं समकालीन सिनेट-सिंडिकेट की तरह शैक्षणिक-प्रबंधन का कार्य एक विद्वत-परिषद् द्वारा किया जाता था।

तिब्बत के साथ था घनिष्ठ संबंध

राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाले इस विश्वविद्यालय का तिब्बत के साथ खास संबंध था। यहां बड़ी संख्या में तिब्बती छात्र व विद्वतगण अध्ययन-अध्यापन हेतु आते थे। नालंदा के काल में भारत-चीन के बीच उत्कृष्ट सांस्कृतिक संबंधों के कारण चीनी ग्रंथों में जिस शानदार तरीक़े से नालंदा महाविहार की चर्चा की गयी है, उसी तरह तिब्बतियों ने अपने ग्रंथों में 8 वीं शताब्दी के मध्य में विक्रमशिला-काल के आगाज के साथ पूरी भव्यता से इस महाविहार के उल्लेख किये हैं।

विद्वत जनों के नक्षत्र-मंडल से दीप्त

देश के शैक्षणिक, सांस्कृतिक तथा बौद्ध-ज्ञान के प्रमुख केन्द्र के रूप में प्रसिद्धि के कारण यहां दूर दराज से विद्वान आकर शैक्षिक एवं दार्शनिक विषयों पर चर्चा करते थे। बुद्ध ज्ञानपद यहाँ के संस्थापक शिक्षक थे। वारेन्द्र के जेतारी, कश्मीर के रत्नव्रज और शाक्यश्री, बनारस के बागीश्वर, नालंदा के वीरोचन, ओदंतपुरी के रत्नाकर यहां के प्रतिष्ठित आचार्य थे जिनकी आभा-मंडल से यह विहार दीप्त था।

दीपंकर श्रीज्ञान अतिश: भारत में बौद्ध धर्म के अंतिम प्रमुख आचार्य

विक्रमशिला की विद्वत-मंडली में आचार्य दीपंकर सबसे बड़े विद्वान माने जाते हैं। भारत में उनकी गणना बौद्ध धर्म के अंतिम प्रमुख आचार्य के रूप में है क्योंकि उनके बाद यहाँ उनके स्तर के कोई आचार्य नहीं हुए। तिब्बत के तत्कालीन राजा के आमंत्रण पर उन्होंने 13 साल तक वहां रहकर बौद्ध धर्म के पुर्नजागरण-पुर्नस्थापन का काम किया, जहां वे बुद्ध के दूसरे अवतार के रूप में पूजे जाते हैं।

मंत्र, तंत्र व वज्रयान का प्रमुख केंद्र

पूर्वी भारत में स्थित विक्रमशिला की मान्यता वज्रयान, तंत्रयान एवं मंत्रयान के एक प्रमुख केन्द्र के रूप में रही है। इतिहासकार ए.एल. बासम का मानना है कि 8 वीं शताब्दी में पूर्वी भारत में वज्रयान के नाम से एक तीसरे ’यान’ का जन्म हुआ जिसे बेहतर रुप में विक्रमशिला के आचार्यों ने तिब्बत में स्थापित किया।

विक्रमशिला से विकसित हुई मूर्तिकला की मगध-बंग शैली

धर्म-शिक्षा-संस्कृति के क्षेत्रों में अतुलनीय योगदान के साथ विक्रमशिला की स्थापत्य और मूर्तिकला के क्षेत्र में भी विशिष्ट पहचान थी जो पूर्वी भारत की ’मगध-बंग शैली’ के नाम से जानी जाती है। नालंदा की तरह यहां भी उत्कृष्ट पाण्डुलिपि-चित्रण के साथ अनुवाद का काम भी बड़े पैमाने पर होता था। यहां पाण्डुलिपियों को विशेष पद्धति से वातानुकूलित पुस्तकालय में सहेज कर रखा जाता था।

विध्वंस के बाद 800 वर्षों तक जमींदोज रहा इसका इतिहास

अपनी स्थापना के करीब चार सौ वर्षों तक प्रसिद्धि के शीर्ष पर विराजमान रहे भारत में मोनास्टिक यूनिवर्सिटी के अंतिम उत्कृष्ट उदाहरण विक्रमशिला की विडंबना यह रही कि 12 वीं शताब्दी के अंत में तुर्कों के आक्रमण से ये पूरी तरह नष्ट हो गया। तत्पश्चात क़रीब 800 वर्षों तक के लंबे अंतराल तक भूगर्भ में उपेक्षित पड़े रहने के बाद 1971 से 1982 तक की दस वर्षों की अवधि में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के निदेशक डॉ.बी.एस. वर्मा के नेतृत्त्व में की गई खुदाई के बाद ही पुनः पूरी दुनिया के समक्ष इसका अस्तित्व सामने आ सका। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विक्रमशिला के नाम पर केंद्रीय विश्वविद्यालय की घोषणा की थी, जिसका अस्तित्व में आना अभी बाकी है।

आसपास के दर्शनीय स्थल

बटेश्वर स्थान: विक्रमशिला विहार के निकट गंगा के तट पर स्थित बटेश्वर स्थान एक प्रमुख शैव स्थल है। बटेश्वर पहाड़ी पर स्थित शिव मंदिर के सामने मां काली का मंदिर होने के कारण इसकी मान्यता तंत्र-पीठ के रूप में भी है। मनोरम प्राकृतिक दृश्यों से आच्छादित यहाँ की पहाड़ियों पर कई प्राचीन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं जिनकी गुफ़ाओं में कभी साधु-संत व सिद्ध योगी तपस्या किया करते थे। बंगाल, असम व सुदूर पूर्व के मार्ग पर स्थित होने के कारण बटेश्वर स्थान की ऐतिहासिक महत्ता रही है।

बुद्धासन झील: बटेश्वर के निकट गंगा के पूर्वी भाग में स्थित इस स्थल के बारे में ह्वेनसांग कहते हैं कि यहाँ की एक बड़ी चट्टान पर भगवान बुद्ध ने आसन लगाये थे जिसके स्मारक-चिन्ह विद्यमान हैं। इसके पास एक झील है जिसे लोग बुद्धासन झील कहते हैं।

तीन पहाड़ी: कहलगांव में गंगा के बीच तीन पहाड़ियों की एक मनोरम श्रृंखला है, जहां की प्राचीन गुफाओं में ऋषि-मुनियों की तपोस्थली थी। हरे-भरे वृक्षों से आच्छादित तीन पहाड़ी में कई प्राचीन मूर्तियां व एक एकाश्म पाषाण मंदिर विद्यमान है जिनकी चर्चा ह्वेनसांग सहित कई पुराविदों ने की है।

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