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    Chaugain Estate: 'चौगाईं इस्टेट' के सियासी युग पर लग गया ब्रेक, बिहार से झारखंड तक रहा है दबदबा

    Updated: Tue, 04 Nov 2025 03:53 PM (IST)

    Chaugain Estate Political Era: आजादी के बाद बिहार की राजनीति में चौगाईं इस्टेट का प्रभाव कम हो रहा है। 1951 में सरदार हरिहर सिंह की जीत से शुरू हुआ यह सिलसिला, अमरेंद्र प्रताप सिंह के टिकट कटने से टूट गया। इस परिवार ने साढ़े सात दशक तक बक्सर-आरा क्षेत्र की राजनीति को प्रभावित किया। सरदार हरिहर सिंह मुख्यमंत्री भी बने और किसानों के लिए काम भी किया।

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    बिहार सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री सरदार हरिहर सिंह सहित अन्य प्रतिनिधियों के चौगाईं गांव स्थित पैतृक आवास तक जाने वाला मुख्य प्रवेश मार्ग।

    रंजीत कुमार पांडेय, डुमरांव (बक्सर)। आजादी के बाद से बिहार की राजनीति में चौगाईं इस्टेट का जो प्रभाव और प्रभुत्व कायम था, उस पर फिलहाल ब्रेक लगता दिख रहा है।

    यहां के एक प्रतिष्ठित परिवार ने लगभग साढ़े सात दशक तक न केवल बक्सर-आरा क्षेत्र, बल्कि पूरे शाहाबाद की राजनीति को दिशा दी।

    हालांकि, इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में आरा सीट से अमरेंद्र प्रताप सिंह का टिकट कट जाने के बाद चौगाईं इस्टेटे के दबदबे का यह सिलसिला टूट गया है। इस राजनीतिक वर्चस्व की शुरुआत सन 1951 में हुई थी, जब ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले 'शाहाबादी शेर' सरदार हरिहर सिंह ने डुमरांव से चुनाव जीतकर विधानसभा में प्रवेश किया।

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    वह बिहार की आजादी के बाद के पहले जनप्रतिनिधियों में से एक थे, जिनकी लोकप्रियता और संगठन क्षमता ने चौगाईं इस्टेट को एक सशक्त राजनीतिक पहचान दी।

    1951 में हुए पहले आम चुनाव में सरदार हरिहर सिंह ने अंबिका ठाकुर को हराकर जीत हासिल की थी। इसके बाद 1957 और 1962 में गंगा प्रसाद सिंह ने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। 1967 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर सरदार हरिहर प्रसाद सिंह ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में विजय प्राप्त की।

    जनसेवा के प्रति समर्पित रहते हुए हरिहर प्रसाद सिंह ने 1969 से 1977 तक न सिर्फ इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया, बल्कि बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में, किसानों के ताकाबी ऋण माफ कर पूरे देश की राजनीति में काफी चर्चित हए। सरदार हरिहर सिंह के इस निर्णय ने चौगाईं का नाम बिहार की राजनीति में अमिट रूप से अंकित कर दिया।

    वर्ष 1977 में पहली बार उन्हें सीपीआई के रामाश्रय प्रसाद सिंह से हार का सामना करना पड़ा, किंतु उनका जनाधार कभी भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ। वर्ष 1980 में राजाराम आर्य और 1981 में विजय नारायण भारती ने विधानसभा में जीत हासिल की। 1985 से 2000 तक चौगाईं गांव के ही जमींदार बाबू बसंत सिंह ने लगातार तीन बार इस क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधित्व कर चौगाईं के राजनीतिक प्रभाव को बनाए रखा।

    झारखंड विधानसभा तक रहा चौगाईं का जलवा

    इसी दौरान चौगाईं के एक और सपूत मृगेंद्र प्रताप सिंह झारखंड विधानसभा में स्पीकर और वित्त मंत्री के रूप में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते रहे, जबकि इसी गांव के रंजीत बहादुर सिंह गया स्नातक क्षेत्र से एमएलसी निर्वाचित हुए थे।

    राजनीतिक के नए दौर में चौगाईं इस्टेट के निवासी अमरेंद्र प्रताप सिंह ने इस परंपरा को नई ऊंचाइयां दीं। उन्होंने वर्ष 2000 से अब तक, लगातार पांच बार आरा विधानसभा सीट से जीत हासिल कर बिहार विधानसभा के उपाध्यक्ष तथा कृषि मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों को संभाला है। 

    बिहार विधानसभा 2025 में जब पार्टी ने आरा सीट से अमरेंद्र प्रताप सिंह का टिकट काटकर संजय सिंह टाइगर को उम्मीदवार बनाया, तब यह माना गया कि बिहार की राजनीति में चौगाईं युग का अंत हो गया।

    चौगाईं गांव की सियासत का साढ़े सात दशक का लंबा सफर

    • 1951 – सरदार हरिहर सिंह ने डुमरांव से पहला चुनाव जीतकर चौगाईं की सियासी नींव रखी।
    • 1957–1962 – गंगा प्रसाद सिंह लगातार दो बार निर्वाचित हुए।
    • 1967 – सरदार हरिहर सिंह निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में फिर विजयी हुए।
    • 1969–1977 – हरिहर सिंह लगातार चार बार विधायक बनकर क्षेत्र का नेतृत्व किया और बिहार के मुख्यमंत्री बनें।
    • 1977 – सीपीआई के रामाश्रय प्रसाद सिंह ने हरिहर सिंह को हराया।
    • 1980–1981 – राजाराम आर्य और विजय नारायण भारती ने क्रमशः जीत दर्ज की।
    • 1985–1995 चौगाईं के बाबू बसंत सिंह ने लगातार तीन बार विधानसभा म पहुंचकर परंपरा कायम रखी।
    • 1985,1995 और 2000 : झारखंड के जमशेदपुर पश्चिमी विधानसभा क्षेत्र से मृगेंद्र प्रताप सिंह तीन बार चुनाव जीतकर झारखंड के प्रथम वित्त मंत्री और एक बार विधानसभा स्पीकर भी रह चुके हैं।
    • 2000–2020 – अमरेंद्र प्रताप सिंह ने आरा से पांच बार जीत हासिल की, विधानसभा में उपाध्यक्ष और कृषि मंत्री बने।
    • 2025 – अमरेंद्र प्रताप सिंह का टिकट कटने से बिहार की राजनीति में चौगाईं का सियासी वर्चस्व समाप्त हुआ।