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Darbhanga News: दरभंगा में बाढ़ की आपदा को नवाचार से अवसर में बदल रहे किसान, दूसरे राज्यों से लौटकर पेश कर रहे मिसाल

Darbhanga News बिहार के दरभंगा में किसान आपदा को नवाचार से अवसर में बदल रहे हैं। ये किसान जलीय कृषि पर जोर दे रहे हैं। बिहार के दरभंगा के किसान धीरेंद्र कुमार इस तरह की खेती में हाथ आजमाकर दूसरे किसानों के लिए मिसाल बने हैं। दूसरे किसान भी धीरेंद्र की प्रेरणा से मखाना व कांटा रहित सिंघाड़े की खेती कर अच्छी आमदनी कर रहे हैं।

By Arun kumar Pathak Edited By: Sanjeev Kumar Updated: Wed, 03 Jul 2024 06:35 PM (IST)
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मखाना की खेती के बारे में लोगों को समझाते किसान धीरेंद्र (जागरण)
अरुण पाठक, दरभंगा। हर साल नदियों में आनेवाली बाढ़ ने जब किसानों की कमर तोड़ दी तो बिहार के दरभंगा जिले के किसानों ने पानी पर समृद्धि की राह बना दी। जलीय कृषि की शुरुआत की और मखाना व कांटा रहित सिंघाड़े की खेती से बाढ़ का कलंक धो दिया।

100 से अधिक किसान इस मॉडल को अपना चुके हैं। बाढ़ और सूखे की मार से जो किसान खेती छोड़ मजदूरी के लिए दूसरे राज्यों में चले गए थे, लौटकर जल आधारित खेती कर रहे हैं। यह सब युवा व नवोन्मेषी किसान धीरेंद्र कुमार की प्रेरणा से संभव हुआ है।

उन्होंने प्रयास और प्रयोग से बाढ़ को अवसर में बदल दिया जो अब किसानों के लिए वरदान साबित हो रहा है। प्रगतिशील, नवाचारी तथा कृषि विज्ञान में पीएचडी कर चुके धीरेंद्र ने पिछले छह वर्षों से कृषि में नये प्रयोग कर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई है।

धीरेंद्र बताते हैं कि बाढ़ के दौरान खेतों में 10 से 12 फुट तक जलजमाव हो जाता था। लंबे समय तक पानी ठहरने से खरीफ में धान की फसल नष्ट हो जाती थी। ऐसे में खरीफ के विकल्प के लिए मखाना और सिंघाड़े की खेती उपयुक्त साबित हो रही है।

वर्ष 2019 में शुरू की थी मखाने की खेती

धीरेंद्र बताते हैं कि किसान परिवार से होने के कारण खेती में होने वाले नफा-नुकसान और चुनौतियों को समझा है। 2006 में इंटरमीडिएट पास करने के बाद कृषि में ही करियर बनाने का लक्ष्य तय किया। बताते हैं कि खरीफ सीजन की फसलों को हर साल बर्बाद होते देखता था।

इससे दोहरी आर्थिक क्षति होती थी। एक पूरा सीजन खाली जाता और दूसरा धान की खेती में जो पैसा लगाते वह बाढ़ में डूब जाता था। वर्ष 2019 में मखाना अनुसंधान संस्थान, दरभंगा द्वारा विकसित मखाने के 'स्वर्ण वैदेही' प्रभेद की आधा एकड़ खेत में प्रायोगिक तौर पर खेती की।

उनका यह पहला अनुभव था। समाज में कहा जाने लगा कि मखाने की खेती आसान नहीं है, लेकिन उन्होंने दृढ़ इच्छाशक्ति और कठोर परिश्रम से असंभव को संभव कर दिखाया। प्रायोगिक खेती के दौरान ही बेहतर उत्पादन हुआ और मात्र आधा एकड़ जमीन से 50 हजार रुपये से अधिक की आमदनी की।

मखाना और सिंघाड़े की फसल को बाढ़ से नुकसान नहीं होता: धीरेंद्र

धीरेंद्र बताते हैं कि मखाना और सिंघाड़े की फसल को बाढ़ से नुकसान नहीं, बल्कि और फायदा होता है। बाढ़ के पानी का स्तर जैसे-जैसे बढ़ता है, इनके पौधे बढ़ते हैं। जिस खेत में मखाना और सिंघाड़े की फसल होती है, वहां बाढ़ के साथ आईं मछलियां जमा हो जाती हैं।

अक्टूबर-नवंबर में रबी की बोआई से पहले मछली से अतिरिक्त आय प्राप्त कर लेते हैं। एक एकड़ में मखाना, सिंघाड़ा और मछली से एक लाख रुपये से अधिक की शुद्ध आय सिर्फ खरीफ सीजन में हो जाती है। उसी खेत में रबी सीजन में गेहूं, दलहन, तिलहन तथा मवेशी के लिए हरे चारे की फसल प्राप्त कर लेते हैं। साथ ही मखाना, सिंघाड़ा के पौधे गलने के कारण खेतों की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है।

कोरोना आपदा के बाद किसानों को जोड़ा

धीरेंद्र बताते हैं कि वर्ष 2020 में काेरोना आपदा के बाद जब लोग बेरोजगार होकर गांव आए तो खेती ही एकमात्र सहारा थी, लेकिन बाढ़ प्रभावित इलाके में विकल्प सीमित होने के कारण चुनौती भी बड़ी थी। जलीय क्षेत्र में मखाना व सिंघाड़े की खेती चुनौतीपूर्ण थी।

बेरोजगार हो चुके लोगों के पास पूंजी नहीं थी। खेती का अनुभव भी नहीं था। ऐसे में उनके जलजमाव वाले खेतों में मखाने की खेती करने को प्रोत्साहित किया गया। अनुसंधान केंद्र और विशेषज्ञ किसानों द्वारा प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जाले कृषि विज्ञान केंद्र के विज्ञानियों से संपर्क कर विज्ञानियों के साथ प्रशिक्षण परिभ्रमण में भाग लेने लगे। किसानों के लिए सरकार की योजनाओं की जानकारी जुटाई। मखाने के दो प्रभेद 'स्वर्ण वैदेही' तथा 'सबौर मखाना -1' की खेती शुरू की।

राज्य सरकार को उपलब्ध कराते मखाने का बीज

धीरेंद्र बिहार सरकार के उद्यान विभाग को मखाना बीज उपलब्ध कराते हैं। उसी बीज का मखाना विकास योजना अंतर्गत राज्य भर में वितरण किया जा रहा है। साथ ही, देश के अन्य राज्यों में किसानों को डाक से भेजा जाता है। धीरेंद्र अनाज के पुराने प्रभेद, जिनकी खेती कम हो रही या वे विलुप्त हो रहे, उनको भी संरक्षित कर रहे हैं।

बेकार पड़ी बंजर जमीन पर बांस की खेती तथा श्रीअन्न की खेती को भी बढ़ावा दे रहे हैं। वे काला, नीला व सोना मोती गेहूं की भी खेती कर रहे हैं। मणिपुरी काला नमक, सुगंधित बासमती धान, पूसा बासमती धान को भी उपजाते हैं। दूसरे राज्यों के किसान उनसे बीज ले जाते हैं। जैविक तथा प्राकृतिक खेती को भी बढ़ावा दे रहे हैं। किसानों से रासायनिक खाद और कीटनाशक का कम से कम प्रयोग करने की अपील भी करते हैं।

स्वयं द्वारा बनाई जैविक खाद और कीटनाशक का फसलों में इस्तेमाल करते हैं। इसकी तकनीक भी किसानों को बताते हैं। उनके प्रयास का ही परिणाम है कि जो किसान रबी फसलों की खेती के बाद खरीफ भूल जाते थे, अब मखाना व सिंघाड़ा उपजा रहे हैं। जिले में सैकड़ों एकड़ जमीन मखाना और सिंघाड़े की खेती में परिवर्तित हो गई है।

एक दर्जन से अधिक पुरस्कार

धीरेंद्र को नवोन्मेषी कृषि के लिए कई मंचों पर सम्मानित किया गया है। चार मार्च, 2023 को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, पूसा (नई दिल्ली) द्वारा नवोन्मेषी किसान सम्मान से सम्मानित किया गया। 2020 में डा. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा (समस्तीपुर) द्वारा अभिनव किसान पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया।

नवभारत फर्टिलाइजर एलटीडी (हैदराबाद) उन्हें राज्यस्तरीय उत्तम कृषक पुरस्कार से सम्मानित कर चुका है। इसके अलावा कृषि विभाग दरभंगा, डिपार्टमेंट आफ सोशियोलाजी ललित नारायण मिथिला यूनिवर्सिटी, दरभंगा और कृषि विज्ञान केंद्र, जाले के माध्यम से कई सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।

धीरेंद्र से प्रभावित होकर मखाने की खेती करने वाले बेलवारा के नरेंद्र कुमार सिंह, अमरनाथ राय, सतीश राय, कमतौल के अमरेंद्र कुमार, पतैला के पवन सहनी अच्छी आमदनी कर रहे हैं। उनका कहना है कि धान की खेती नहीं करने से होने वाली हानि की मखाना व सिंघाड़े से पूर्ति हो रही है।

जाले कृषि विज्ञान केंद्र के प्रधान विज्ञानी दिव्यांश शेखर का कहना है कि बाढ़ प्रभावित क्षेत्र एवं निचली भूमि होने के कारण मिथिलांचल के अधिकांश किसान खरीफ के मौसम में अच्छी उपज नहीं प्राप्त कर पाते हैं, ऐसे क्षेत्र में धीरेंद्र कुमार का पारंपरिक धान के खेतों में मखाना एवं सिंघाड़ा उत्पादन सराहनीय कदम है।

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