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Pitru Paksha 2022: बिहार के गया में ही क्यों करते हैं और क्या है पिंडदान? कैसे करें पंडाजी की पहचान? सबकुछ जानिए

Pitru Paksha 2022 जो पुत्र अपने पितरों को तर्पण और पिंडदान करने के लिए गया श्राद्ध करते हैं उनके पितर तृप्त हो जाते हैं और यह परंपरा आधुनिक काल में भी लोगों के जेहन में बैठी हुई है। पितरों को तृप्त करने के लिए गया श्राद्ध करना आवश्यक है।

By Prashant Kumar PandeyEdited By: Updated: Thu, 25 Aug 2022 10:50 AM (IST)
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Pitru Paksha: शिला पर पड़ा भगवान विष्णु के चरण चिन्ह। जागरण

कमल नयन, गया। Pitru Paksha गया का नाम गयासुर नामक दैत्य से जुड़ा है। एक पौराणिक कथा के अनुसार गया के पंचकोसी भूमि पर गयासुर ने यज्ञ किया। उसकी यज्ञ महिमा से देवतागण भी विचलित हो गए और तब विष्णु ने अपने चरण से उसे शांत कर उसकी अंतिम इच्छा पूछी। इस पर गयासुर ने भगवान से वर मांगा। जिस स्थान पर मैं प्राण त्याग रहा हूं, उस  शिला पर प्रतिदिन एक पिंडदान हुआ करे,  जो यहां पिंडदान करे उसके पूर्वज तमाम पापों से मुक्त होकर स्वर्गवास करें।  वर देने के बाद भगवान विष्णु ने शिला पर जो पैर रखा वह चरण चिह्न बन गया। वह चरण पूजित है।

सभी सनातनधर्मी श्राद्ध करना मानते हैं आवश्यक

किंवदंति है कि भगवान विष्णु द्वारा गयासुर को दिए गए वरदान के बाद से ही पितरों को मोक्ष के लिए गया धाम में पिंडदान की परंपरा चल रही है। ऐसी मान्यता है कि जो पुत्र अपने पितरों को तर्पण और पिंडदान करने के लिए गया श्राद्ध करते हैं उनके पितर तृप्त हो जाते हैं और उन्हें आशीर्वाद देते हैं।भले ही यह बात पौराणिक और किंवदंति है, लेकिन यह परंपरा आधुनिक काल में भी लोगों के जेहन में बैठी हुई है। सभी सनातनधर्मी अपने पितरों को तृप्त करने के लिए गया श्राद्ध करना आवश्यक मानते हैं।

भाद्र पद के कृष्णपक्ष को पितरों के लिए माना गया है उत्तम

देश ही नहीं अब तो विदेशों से भी लोग गयाजी आकर पिंडदान का कर्मकांड करना शुरू कर दिए हैं। वैसे तो पिंडदान के प्रति लोगों की आस्था इतनी बढ़ गई है कि सालभर तीर्थयात्री गया आते हैं। लेकिन पितरों के लिए दिवस विशेष का प्रावधान भी कथा में किया गया है। भाद्र पद के कृष्णपक्ष को पितरों के लिए उत्तम माना गया है। गया में इस पक्ष से एक पखवारे का पितृपक्ष मेला लगता है। मुख्य रूप से यह मेला पुत्रों का है, जो पितरों के लिए गयाजी आते हैं। यानी इह लोक से परलोक के तार गया से जुड़ते हैं।

किसे कहते हैं तर्पण 

तृप्त करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। पितरों के लिए किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध तथा तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण के प्रकार : तर्पण के 6 प्रकार हैं- 1. देव-तर्पण 2. ऋषि-तर्पण 3. दिव्य-मानव-तर्पण 4. दिव्य-पितृ-तर्पण 5. यम-तर्पण 6. मनुष्य-पितृ-तर्पण। सभी के के लिए तर्पण करते हैं।

कैसे करते हैं तर्पण 

पितृ पक्ष में प्रतिदिन नियमित रूप से पवित्र नदी में स्नान करने के बाद तट पर ही पितरों के नाम का तर्पण किया जाता है। इसके लिए पितरों को जौ, काला तिल और एक लाल फूल डालकर दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके खास मंत्र बोलते हुए जल अर्पित करना होता है।

किसे कहते हैं पिंडदान 

चावल को गलाकर और गलने के बाद उसमें गाय का दूध, घी, गुड़ और शहद को मिलाकर गोल-गोल पिंड बनाए जाते हैं। जनेऊ को दाएं कंधे पर पहनकर और दक्षिण की ओर मुख करके उन पिंडो को पितरों को अर्पित करने को ही पिंडदान कहते हैं। धार्मिक मान्यता है कि चावल से बने पिंड से पितर लंबे समय तक संतुष्ट रहते हैं।पहले तीन पिंड बनाते हैं। पिता, दादा और परदादा। यदि पिता जीवित है तो दादा, परदादा और परदादा के पिता के नाम के पिंड बनते हैं।

विष्णुपद वेदी के अतिरिक्त हैं 54 पिंडवेदियां 

कर्मकांड का शुभारंभ फल्गु के जल से तर्पण के साथ होता है। पुराणों में फल्गु नदी का उद्भव श्रीविष्णु के पैर की अंगुली से हुई है और इसे पवित्र गंगा के रूप में माना जाता है। इसलिए पुत्र सबसे पहले फल्गु नदी में जाकर अपने पितरों को जलांजलि देते हैं। तदोपरांत पिंडदान की प्रक्रिया शुरू होती है। विष्णुपद वेदी के अतिरिक्त 54 पिंडवेदियां गया के 10 किमी के अंदर है। इन वेदियों पर जाकर पिंडदान करने का विधान होता है। कालांतर में 365 वेदियों का जिक्र पुराणों में है, जहां प्रतिदिन एक पुत्र जाकर अपने पितृ को पिंडदान करते थे। यानी सालभर पिंडदान की प्रक्रिया चलते रहती थी। 

मृतात्मा के साथ जीवात्मा भी अपना पिंडदान स्वयं कर सकते

अब पिंडदान एक, तीन, पांच, सात, 15 व 17 दिन का होता है। 17 दिन तक पिंडदान करने वाले की संख्या में काफी वृद्धि हो रही है। गया तीर्थ पुरोहित पीतल किवाड़ वाले पंडा महेश लाल गुपुत बताते हैं कि गयाजी में सिर्फ अपने पितरों का ही पिंडदान का विधान नहीं है। जब पिंडदान किया जाता है तो सात पीढ़ी तक के पूर्वजों का नाम स्मरण कर उन्हें नमन कराते हैं। इतना हीं नहीं सातवीं पीढ़ी इष्ट-मित्रों के िलिए होता है जिनको भी हम याद कराते हैं ।पंडा जी बताते हैं कि गया एक ऐसा जगह है जहां मृतात्मा के साथ जीवात्मा भी अपना पिंडदान स्वयं कर सकता है। इसके लिए भगवान जनार्दन पिंडवेदी है। जहां वैसे लोग अपना स्वयं का जीवित रहते पिंडदान करते हैं। 

ललाट पर चंदन, साफ धोती और कुर्ते, पान ये है पंडा जी की पहचान

गयाजी में तर्पण और पिंडदान के कर्मकांड को तीर्थपुरोहित गयापाल पंडा के द्वारा कराया जाता है। इनकी स्वीकृति उपरांत कर्मकांड पुरोहितों द्वारा संपन्न होता है। लेकिन सुफल (आशीर्वाद) पंडाजी ही कराते हैं। गयापाल पंडों का भरापूरा परिवार है जो विष्णुपद मंदिर के पास अंदर गया, पचमहला, ऊपरडीह, नउवागढ़ी आदि क्षेत्रों में वास करती है। ललाट पर चंदन, साफ धोती और कुर्ते में इनकी पहचान अलग है। पान का सेवन इनकी विशेषता है। अलग से ये पहचाने जाते हैं। लगभग 150 परिवारों के बीच पूरे देश के सनातनधर्मी के पूर्वजों का खाता-बही इनके पास होता है। लगभग 200 साल के अंदर गांव-गिरावं से गयाजी करने वाले पूर्वज का नाम इनके खाता-बही में दर्ज है। 

त्रिस्तरीय पोथी में पूर्वजों का नाम और दस्तखत जानें

वर्तमान में जो पुत्र अपने पूर्वज का पिंडदान करने आते हैं उनकी चाहत होती है कि वे अपने पूर्वजों का नाम और दस्तखत जान सके। इसके लिए पंडाजी उन्हें बताते और दिखाते भी हैं। पूर्वजों के नाम को संरक्षित करने के लिए त्रिस्तरीय पोथी व्यवस्था है। पहली पोथी इंडेक्स की होती है। जिसमें जिले के बाद अक्षरमाला के क्रम में गांव का नाम होता है। दूसरी पोथी दस्तखती बही कहलाती है। जिसमें पुरखों का विवरण होता है। तीसरी पोथी हाल-मोकाम बही होती है। इसमें रहने वाले लोग किस शहर और कौन सा व्यवसाय की अद्यतन जानकारी दर्ज होती है। ये सारी प्रक्रिया जानने के बाद पुरखों के हस्ताक्षर व तिथि में बही में दर्शन करने उपरांत श्रद्धालु अकाट्य रूप से उस तीर्थ पुराेहित को अपना पंडा मानकर उन्हें अपना लेते हैं और कर्मकांड करते हैं।

अभी भी पोथी और खाता-बही पंडा के घरों में सुरक्षित

इंटरनेट और मोबाइल के युग में भी अभी भी पोथी और खाता-बही पंडा के घरों में सुरक्षित रखा जाता है। कोई इसे अभी कम्प्यूटराइज करने का काम नहीं किया। बल्कि मोबाइल से इनका काम तीर्थयात्रियों के संपर्क में बराबर रहते हैं। मोबाइल एक सुलभ माध्यम हो गया है जिसके मार्फत तीर्थयात्री को कब आना है, कहां रहना है, कैसे विधान से पूजा करना है आदि जानकारी भी शेयर होती है। 

गयाजी से अच्छे संदेश लेकर जाएं इसीलिए रखते ख़्याल

विष्णुपद प्रबंधकारिणी समिति के अध्यक्ष शंभुलाल बिट्ठल बताते हैं कि यात्रियों के गया आगमन पर उन्हें कर्मकांड के साथ-साथ कोई असुविधा न हो इसका ख्याल जिला प्रशासन और समिति द्वारा रखा जाता है।ताकि वे गयाजी से अच्छे संदेश लेकर जाएं। यह प्रयास समिति ही नहीं पूरे गयावासियों का होता है। पितृपक्ष के दौरान जो महत्वपूर्ण पिंडवेदियों पर तीर्थयात्री कर्मकांड को जाते हैं उनमें सीताकुंड, अक्षयवट है।

जानिए क्यों है सीताकुंड विशेष, क्यों हुआ था बालू का पिंडदान 

सीताकुंड के बारे में कथा है कि भगवान राम, भाई लक्ष्मण और माता सीता के साथ गयाजी अपने पिताश्री दशरथ जी को पिंडदान करने आए थे। पूजन सामग्री लाने के लिए दोनों भाई गए। इसी बीच फल्गु में दोनों भाई का इंतजार कर रही सीता के सामने राजा दशरथ का हाथ बाहर आया और मां सीता से पिंड के लिए बोले। सीता जी ने फल्गु के बालू का पिंड दशरथ जी को समर्पित कर दिया। तब से फल्गु के पूर्वी तट पर सीता कुंड ने एक वेदी के रूप में प्रसिद्धि पाई है। अक्षयवट वेदी पिंडदान की समापन स्थल है। जहां पितृपक्ष के अंतिम तिथि को श्रद्धालु पिंडदान कर दान करते हैं। यहां वट वृक्ष है। यहां गयापाल तीर्थपुरोहित द्वारा श्रद्धालु पुत्रों को सुफल यानी आशीर्वाद देकर अक्षय होने की कामना की जाती है।

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