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धर्म पर टिकी है दुनिया इसलिए दिखावा नहीं करें, धर्म के सिद्धांतों को अपने जीवन में अपनाएं- जीयर स्‍वामी

औरंगाबाद जिले के बारुण प्रखंड के पौथू गांव में जीयर स्वामी ने शनिवार को प्रवचन करते हुए उन्‍होंने जीवन दर्शन पर प्रकाश डाला। कहा कि दुनिया धर्म पर टिकी है। जड़ और चेतन दोनों का अपना-अपना धर्म होता है। धर्म हमारे जीवन को मर्यादित बनाता है।

By Vyas ChandraEdited By: Updated: Sat, 20 Feb 2021 05:27 PM (IST)
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आैरंगाबाद के बारुण में प्रवचन करते जीयर स्‍वामी। जागरण

जागरण संवाददाता, औरंगाबाद। पुनपुन-बटाने की संगम तट पर स्थित बारुण प्रखंड के पौथू गांव में जीयर स्वामी के प्रवचन की सरिता प्रवाहित हो रही है। शनिवार को प्रवचन करते हुए उन्‍होंने जीवन दर्शन पर प्रकाश डाला। कहा कि दुनिया धर्म पर टिकी है। जड़ और चेतन दोनों का अपना-अपना धर्म होता है। धर्म हमारे जीवन को मर्यादित बनाता है। मानव अपने धर्म से विमुख हो जाए तो संसार का संचालन रुक जाएगा।

सिर्फ पूजा-अर्चना करना ही नहीं होता है धर्म

उन्‍होंने कहा कि सूत जी के अनुसार धर्म मानव जीवन की सीढ़ी है। धर्म से अभिप्राय सिर्फ पूजा-वंदना नहीं। जो जिस निमित्त है, उसके द्वारा संबंधित कार्य का संपादन ही धर्म है। संसार का संचालन धर्म के आधार पर हो रहा है। उदाहरण देते हुए कहा कि माइक का आवाज देना, बल्ब का प्रकाश, पंखा की हवा और मानव ईमानदारी से अपना दायित्व निर्वहन करना छोड़ दे, तो उन्हें धर्म से विचलित माना जाएगा। इनका कोई महत्व नहीं रह जाएगा। धर्म या स्वभाव के कारण ही वस्तुओं एवं प्राणियों का वजूद है। केवल भोजन, शयन एवं संतानोत्पत्ति करना मानव धर्म नहीं है। सभी योनियों में मानव जीवन ही धर्म एवं संस्कृति के लिए है।

मनुष्‍य में ही होता है धर्म का विशेष गुण

आहार, निद्रा, भय और मैथुन-ये चार बातें मनुष्य और अन्य जीवों में सामान्य रूप से विद्यमान होते हैं। मनुष्य में एक गुण ऐसा है, जो मानवेतर जीवों में नहीं पाया जाता है। वह है धर्म। धर्म मानव का विशेष गुण है, जिस कारण वह पशु से भिन्न है। शेष भोग भोगने के लिए संसार में आते हैं। धर्म हमारे जीवन की वह पद्धति है, जिसके अनुपालन से पतन रुक जाता है और मनुष्य पावन हो जाता है। धर्म केवल दिखावा के लिए नहीं, बल्कि व्यवहार और आचरण में होनी चाहिए। सूत जी ने कहा है कि अट्ठारह पुराणों में दो बातों का महत्व विशेष है। परोपकार से बड़ा कोई धर्म व पुण्य नहीं और अकारण किसी को दंड देने से बड़ा कोई पाप नहीं।  अट्ठारह पुराण में महर्षि व्यास ने मुख्य रूप से दो ही बातें कही हैं। परोपकार पुण्य है और दूसरे को पीड़ा पहुंचाना पाप है। जो दूसरे की पीड़ा समझे, उससे बड़ा वैष्णव नहीं है। पीड़ित के प्रति दया, गरीब कन्या का विवाह और गरीब बच्चे को शिक्षा देना परोपकार है।

मृत्‍यु एक यात्रा है इसे मंगल बनाएं

जीयर स्‍वामी ने कहा कि भोग की अंतिम ऊंचाई पर पहुंचकर भी शांति प्राप्त नहीं होती। मृत्यु के बाद पत्‍नी सिर्फ द्वार तक, परिजन श्मशान तक और पुत्र जिसके लिए धर्म गवां दिया जाता है, मुखाग्नि देने तक रहता है। जीव का धर्म ही साथ जाता है। यदि वर्तमान में कोई व्यक्ति अच्छे आचरण के नहीं होने के बावजूद सांसारिक वैभव से पूर्ण है, तो उसका पहले का पुण्य है। संत-महात्मा हंसते हुए मरते हैं, लेकिन सामान्य आदमी हाय-हाय कर मरता है। मृत्यु एक यात्रा है, इसे मंगल बनाना चाहिए।

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