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एक मंदिर एेसा जहां हिंदू-मुस्लिम एक साथ सालों भर करते हैं सरस्वती पूजा

आज सरस्वती पूजा है और आज हम आपको ऐसी जगह के बारे में बता रहे हैं, जहां मां सरस्वती साल भर पूजी जाती है। जी हां, कटिहार जिले के बारसोई प्रखण्ड क्षेत्र स्थित बेलवा गांव के लोग सालभर मां सरस्वती की आराधना करते हैं।

By Kajal KumariEdited By: Updated: Sat, 13 Feb 2016 10:45 PM (IST)
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कटिहार [राजकुमार साह]। आज सरस्वती पूजा है और आज हम आपको ऐसी जगह के बारे में बता रहे हैं, जहां मां सरस्वती साल भर पूजी जाती है। जी हां, कटिहार जिले के बारसोई प्रखण्ड क्षेत्र स्थित बेलवा गांव के लोग सालभर मां सरस्वती की आराधना करते हैं।

इस प्राचीन मंदिर से लोगों की असीम आस्था जुड़ी हुई है। लोग यहां नियमित पूजा-अर्चना करते हैं। ग्रामीणों की आराध्य मां सरस्वती ही है। उनकी राय में ज्ञान ही समृद्धि का सबसे बड़ा स्त्रोत है।

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अनोखा है मां सरस्वती का मंदिर

प्राचीन सरस्वती स्थान में स्थापित मूर्ति महाकाली, महागौरी और महासरस्वती का संयुक्त रुप है। यहां के लोग इसे नील सरस्वती कहते हैं। पुजारी राजीव कुमार चक्रवर्ती का कहना है कि बेलवा से चार किलोमीटर दूर पर वाड़ी हुसैनपुर स्थित है। जहां अब भी राजघरानों का अवशेष है।

मान्यता है कि महाकवि कालीदास का ससुराल यहीं था। कालीदास अपनी पत्नी से दुत्कार खाने के बाद इसी सरस्वती स्थान में आकर उपासना की थी। इसका इतिहास कहीं नहीं है लेकिन ग्रामीणों का दावा है कि महाकवि कालीदास उज्जैन में जाकर प्रसिद्ध हुए थे। उससे पहले उनका जीवन गुमनाम था।

उन्हें कहां ज्ञान प्राप्त हुआ, इसकी जानकारी किसी पुस्तक में नहीं है। ऐसे में बेलवा में उनकी सिद्धि की बात को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता।

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कभी दी जाती थी बलि

पुजारी राजीव चक्रवर्ती का कहना है कि तीनों देवियों के संयुक्त रूप के कारण यहां पूर्व में बलि देने की प्रथा भी थी लेकिन सात्विक प्रवृत्ति की देवी मानी जाने के कारण मां सरस्वती स्थान में सन 1995 से बलि पर पूरी तरह रोक लगा दी गई है।

पुजारी राजीव चक्रवर्ती का कहना है कि तीनों देवियों के संयुक्त रूप के कारण यहां पूर्व में बलि देने की प्रथा भी थी। परंतु सात्विक प्रवृत्ति की देवी मानी जाने के कारण मां सरस्वती स्थान में सन 1995 से बलि पर पूरी तरह रोक लगा दी गई है। गांव के लोग मंदिर को अनुपम उपहार मानते हैं। उनकी माने तो बेशक यहां हिन्दू समुदाय के लोग ही पूजा-अर्चना करते हैं, लेकिन मुस्लिम समुदाय के लोग भी इस तोहफे को नायाब मानते हैं।

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