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Karpoori Thakur Jayanti: एक नेता जो ' कमाने वाला खाएगा ' के हमेशा रहे पक्षधर

समस्तीपुर के शिवाजीनगर निवासी वीरेंद्र चौधरी ने सुनाए कर्पूरी ठाकुर से जुड़े स्मरण। कहा- सहज सर्वसुलभ सरल स्पष्ट और सुमधुर स्वभाव से बना था उनका व्यक्तित्व। एक ऐसा समाजवादी चेहरा जो निजी और सार्वजनिक दोनों जीवन में आचरण के उच्चतम मानदंड पर स्थापित रहा।

By Ajit kumarEdited By: Updated: Sun, 24 Jan 2021 07:59 AM (IST)
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कर्पूरी ठाकुर की विचारधारा में सामाजिक और सांस्कृतिक समरसता की बात थी। फाइल फोटो
मुजफ्फरपुर, [ अजय पांडेय ]। लोकराज की स्थापना के लिए जीवनपर्यंत संघर्ष करती एक शख्सीयत। सहज, सर्वसुलभ, सरल, स्पष्ट और सुमधुर स्वभाव के धनी। इन चरित्रों को समेटती विराट विचारधारा ही कर्पूरी ठाकुर का व्यक्तित्व निर्माण करती है। एक ऐसा समाजवादी चेहरा जो निजी और सार्वजनिक, दोनों जीवन में आचरण के उच्चतम मानदंड पर स्थापित रहा। इस मानदंड की ऊंचाई के कई किस्से हैं जो उनके जीवन का सार्वजनिक पक्ष है। कर्पूरी ठाकुर को करीब से जानने वाले समस्तीपुर के शिवाजीनगर निवासी सेवानिवृत्त शिक्षक व आध्यात्मिक चिंतक वीरेंद्र चौधरी कहते हैं कि सामाजिक क्रांति के हिमायती रहे कर्पूरीजी ने आर्थिक के साथ सांस्कृतिक क्रांति की बात की। उनकी नीतिगत सोच एक नारे में निहित रही, जिसे 'आजादी और रोटी' के बल पर समझाया। यह समावेशी नारा सामाजिक न्याय और बेहतर जीवन की बात करता है। समाज की ऐसी तस्वीर, जिसमें विकास और आत्मसम्मान, दोनों रंग हो।

गांव में सामाजिक और सांस्कृतिक समरसता

अपने समय में सर्वसमाज के नेता रहे कर्पूरी ठाकुर की विचारधारा में सामाजिक और सांस्कृतिक समरसता की बात थी। पितौझिया से कर्पूरीग्राम बना उनका पैतृक गांव आज भी उसी विचारधारा को अपनाए है। पांच हजार की आबादी में जातिगत कई रंग हैं। राजपूत बहुल गांव अब भी धानुक और महादलित जातियां सामाजिक समरसता के ताने-बाने दिखाती हैं।

आर्थिक गतिविधियों में आया बदलाव

वीरेंद्र चौधरी बताते हैं कि कर्पूरी ठाकुर ने गरीबों को जगाया, उन्हेंं आवाज दी। हमेशा कहते रहे, कमाने वाला खाएगा। बस, 'खाने का मतलब बदल गया। उनके जमाने में लगा सामाजिक-आॢथक ढांचे का पौधा वृक्ष तो हुआ, लेकिन छाया कहीं और पड़ी। समय चक्र बदला, लेकिन परिस्थितियां वही रहीं। जमींदार अब सेठ व ठीकेदार हो गए और किसान मजदूर। एक जमाने में उनके सहयोगी रहे यशवंत सिन्हा से अक्सर उनकी इन मुद्दों पर बात होती थी। पूछा करते थे, आॢथक दृष्टिकोण से आगे बढ़ जाने या सरकारी नौकरी में आ जाने से समाज में सम्मान मिल जाता है क्या? वंचित समाज के लोग आज भी इससे वंचित हैं।

मैं नेता हूं, चंदा लेता हूं, देता नहीं...

वीरेंद्र बाबू एक स्मरण में कहते हैं कि 1966 में वे शिवाजीनगर पहुंचे थे। वहां जर्जर हो रही लाइब्रेरी के जीर्णोद्धार के लिए उनसे कुछ चंदा मांगा। इस पर उन्होंने कहा था, भई मैं नेता हूं, चंदा लेता हूं देता नहीं...। लेकिन, वे लोग अड़े रहे। अंतत: उन्होंने 10 रुपये की रसीद कटवाई। हालांकि, एक शर्त रखी कि समाजवादी पत्रिका जन पुस्तकालय में नियमित रूप से रखी जाएगी। 

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