जरा हटकर है मक्खियों का यह बैंक, फायदे जानकार हैरान रह जाएंगे आप
बिहार में खतरनाक मक्खियों का एक बैंक है। जानेलवा कालाजार बीमारी फैलाने वाली ये मक्खियां जान बचाने में कैसे सहायक सिद्ध हो रहीं हैं, जानिए इस खबर में।
By Amit AlokEdited By: Updated: Sun, 02 Dec 2018 10:52 PM (IST)
मुजफ्फरपुर [अमरेंद्र तिवारी]। यूं तो बैंक का नाम आते ही मस्तिष्क पटल पर लेनदेन का दृश्य उभर आता है, लेकिन बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में स्थापित यह बैंक जरा हटकर है। यह बैंक है मक्खियों का। इसके फायदे जानकर आप हैरान रह जाएंगे।
यह मक्खी बैंक कालाजार उन्मूलन पर रिसर्च के लिए स्थापित है। यहां खास प्रजाति की आठ हजार नर व मादा मक्खियां हैं। 26वीं पीढ़ी की मक्खी भी है। ये मक्खियां हैं तो खतरनाक, लेकिन लाभदायक सिद्ध हो रहीं हैं।
इनसे फैलती कालाजार की बीमारी
विदित हो कि कालाजार एक संक्रामक बीमारी है, जो परजीवी लिस्मैनिया डोनोवानी के कारण होता है। कम रोशनी वाली और नम जगहों- जैसे कि मिट्टी की दीवारों की दरारों, चूहे के बिलों तथा नम मिट्टी में रहने वाली बालू मक्खियां (फ्लैबोटामस अर्जेंटाइप्स) कालाजार बीमारी के परजीवी की वाहक होती हैं। समय पर पूरा इलाज नहीं कराया जाए तो यह बीमारी जानलेवा बन सकती है। मुजफ्फरपुर में स्थापित मक्खी बैंक कालाजार फैलाने वाली इन्हीं बालू मक्खियों का है।
2014 में बना मक्खी बैंक
बिहार में कालाजार के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए मुजफ्फरपुर के रामबाग में कालाजार रिसर्च सेंटर बनाया गया है। वहीं 2014 में पांच सौ बालू मक्खियों से 'बैंक' की शुरुआत की गई। शुरुआती दौर में मीनापुर, बोचहां, कुढऩी और मोतीपुर के अलग-अलग गांवों से सीडीसी (बैट्री संचालित उपकरण) से मक्खियों को ट्रैप किया गया।
रख-रखाव व सुरक्षा के पूरे इंतजाम
मक्खियों को सुरक्षित रखने के लिए पांच इनवायरमेंटल चैंबर बनाए गए हैं। यहां मक्खियों को पूरी सावधानी व सुरक्षा के साथ रखा जाता है। उनके चैम्बर की प्रतिदिन तीन से चार बार सफाई की जाती है।
एक मक्खी राेजाना 30 से 100 अंडे देती है। एक बॉक्स में 1500 से 2500 अंडे रहते हैं। मक्खियों को खिलाने के लिए विशेष तरह का दाना तैयार किया जाता है। एक किलो दाने पर दो हजार से ढाई हजार खर्च आता है। अंडा से वयस्क बनने में एक माह का समय लगता है। वयस्क मक्खी 15 से 20 दिन तक जिंदा रहने के बाद मर जाती है।
संचालन पर प्रति माह आठ लाख खर्च
1990 के दशक में बिहार में सबसे ज्यादा कालाजार के मरीज मुजफ्फरपुर में मिलते थे। इसलिए 1994 में यहां कालाजार पर रिसर्च के लिए सेंटर की स्थापना की गई। सीताराम मेमोरियल ट्रस्ट व बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के सहयोग से इसका संचालन हो रहा है। इसपर हर महीने करीब आठ लाख रुपये खर्च होते हैं। ये संस्थान इन बालू मक्खियों पर रिसर्च करता है।
रिसर्च सेंटर के खाते में कई उपलब्धियां
इस संस्थान के खाते में कालाजार की दवा बनाने में मिली कई सफलताएं दर्ज हैं। मुजफ्फरपुर के डॉ. श्याम सुंदर ने बताया कि कालाजार मरीजों की दवा मिलटेफोसिन का रिसर्च यहीं हुआ। चिकित्सकों व कई अन्य सेंटरों ने इसका उपयोग किया। बाद में इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भी स्वीकार किया। भारत सरकार ने भी इसे अपने कार्यक्रम में जगह दी। पहले यह 30 दिनों की खुराक वाला इंजेक्शन था, बाद में सेंटर में शोध कर सिंगल डोज वाला एम्बिसोम इंजेक्शन विकसित किया गया। इसमें मेडिसिन विशेषज्ञ डॉ. दीपक कुमार वर्मा, वरीय कीट वैज्ञानिक डॉ.धीरज कुमार, डॉ. पूजा, डॉ. राहुल और डॉ.ओपी सिंह की भूमिकाएं अहम रहीं।
यह मक्खी बैंक कालाजार उन्मूलन पर रिसर्च के लिए स्थापित है। यहां खास प्रजाति की आठ हजार नर व मादा मक्खियां हैं। 26वीं पीढ़ी की मक्खी भी है। ये मक्खियां हैं तो खतरनाक, लेकिन लाभदायक सिद्ध हो रहीं हैं।
इनसे फैलती कालाजार की बीमारी
विदित हो कि कालाजार एक संक्रामक बीमारी है, जो परजीवी लिस्मैनिया डोनोवानी के कारण होता है। कम रोशनी वाली और नम जगहों- जैसे कि मिट्टी की दीवारों की दरारों, चूहे के बिलों तथा नम मिट्टी में रहने वाली बालू मक्खियां (फ्लैबोटामस अर्जेंटाइप्स) कालाजार बीमारी के परजीवी की वाहक होती हैं। समय पर पूरा इलाज नहीं कराया जाए तो यह बीमारी जानलेवा बन सकती है। मुजफ्फरपुर में स्थापित मक्खी बैंक कालाजार फैलाने वाली इन्हीं बालू मक्खियों का है।
2014 में बना मक्खी बैंक
बिहार में कालाजार के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए मुजफ्फरपुर के रामबाग में कालाजार रिसर्च सेंटर बनाया गया है। वहीं 2014 में पांच सौ बालू मक्खियों से 'बैंक' की शुरुआत की गई। शुरुआती दौर में मीनापुर, बोचहां, कुढऩी और मोतीपुर के अलग-अलग गांवों से सीडीसी (बैट्री संचालित उपकरण) से मक्खियों को ट्रैप किया गया।
रख-रखाव व सुरक्षा के पूरे इंतजाम
मक्खियों को सुरक्षित रखने के लिए पांच इनवायरमेंटल चैंबर बनाए गए हैं। यहां मक्खियों को पूरी सावधानी व सुरक्षा के साथ रखा जाता है। उनके चैम्बर की प्रतिदिन तीन से चार बार सफाई की जाती है।
एक मक्खी राेजाना 30 से 100 अंडे देती है। एक बॉक्स में 1500 से 2500 अंडे रहते हैं। मक्खियों को खिलाने के लिए विशेष तरह का दाना तैयार किया जाता है। एक किलो दाने पर दो हजार से ढाई हजार खर्च आता है। अंडा से वयस्क बनने में एक माह का समय लगता है। वयस्क मक्खी 15 से 20 दिन तक जिंदा रहने के बाद मर जाती है।
संचालन पर प्रति माह आठ लाख खर्च
1990 के दशक में बिहार में सबसे ज्यादा कालाजार के मरीज मुजफ्फरपुर में मिलते थे। इसलिए 1994 में यहां कालाजार पर रिसर्च के लिए सेंटर की स्थापना की गई। सीताराम मेमोरियल ट्रस्ट व बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के सहयोग से इसका संचालन हो रहा है। इसपर हर महीने करीब आठ लाख रुपये खर्च होते हैं। ये संस्थान इन बालू मक्खियों पर रिसर्च करता है।
रिसर्च सेंटर के खाते में कई उपलब्धियां
इस संस्थान के खाते में कालाजार की दवा बनाने में मिली कई सफलताएं दर्ज हैं। मुजफ्फरपुर के डॉ. श्याम सुंदर ने बताया कि कालाजार मरीजों की दवा मिलटेफोसिन का रिसर्च यहीं हुआ। चिकित्सकों व कई अन्य सेंटरों ने इसका उपयोग किया। बाद में इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भी स्वीकार किया। भारत सरकार ने भी इसे अपने कार्यक्रम में जगह दी। पहले यह 30 दिनों की खुराक वाला इंजेक्शन था, बाद में सेंटर में शोध कर सिंगल डोज वाला एम्बिसोम इंजेक्शन विकसित किया गया। इसमें मेडिसिन विशेषज्ञ डॉ. दीपक कुमार वर्मा, वरीय कीट वैज्ञानिक डॉ.धीरज कुमार, डॉ. पूजा, डॉ. राहुल और डॉ.ओपी सिंह की भूमिकाएं अहम रहीं।
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