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Nitish Kumar: नीतीश कुमार पर बिहार को पूरा भरोसा, मगर I.N.D.I.A पर भी दिखाई 'दरियादिली'

दोनों गठबंधनों को उनके परिश्रम-प्रयास से कुछ अधिक मिलना भी नहीं था। वैसा ही हुआ लेकिन समग्रता में देखें तो बिहार को नीतीश कुमार का बड़ा भरोसा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ मिलकर भरोसे का यह फलक कुछ और बड़ा हो जाता है। किसी लहर या एकतरफा प्रवाह के बावजूद NDA को जो 30 सीटें मिली हैं वह उसी भरोसे (सुशासन विकास और मोदी की गारंटी) का प्रतिफल है।

By Vikash Chandra Pandey Edited By: Rajat Mourya Updated: Tue, 04 Jun 2024 09:36 PM (IST)
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नीतीश कुमार पर बिहार को पूरा भरोसा, मगर I.N.D.I.A पर भी दिखाई 'दरियादिली' (फाइल फोटो)

विकाश चन्द्र पाण्डेय, पटना। बिहार ने इस बार किसी को निराश नहीं किया तो पिछली बार की तरह एकमुश्त भरोसा भी नहीं। आखिर क्यों? इसका भी कारण है। पूरे चुनाव खट्टी-मीठी बातें सभी ने कीं। कई वादे अच्छे लगे तो कुछ दावे बुरे भी। ऐसे में किसी एक पर विश्वास की गुंजाइश ही नहीं थी।

दोनों गठबंधनों को उनके परिश्रम-प्रयास से कुछ अधिक मिलना भी नहीं था। वैसा ही हुआ, लेकिन समग्रता में देखें तो बिहार को नीतीश कुमार का बड़ा भरोसा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ मिलकर भरोसे का यह फलक कुछ और बड़ा हो जाता है।

किसी लहर या एकतरफा प्रवाह के बावजूद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को जो 30 सीटें मिली हैं, वह उसी भरोसे (सुशासन, विकास और मोदी की गारंटी) का प्रतिफल है। संविधान और आरक्षण से छेड़छाड़ की आशंका पर वह भरोसा टूटता भी है।

पिछली बार की एक से बढ़कर इस बार दस सीटों (निर्दलीय पप्पू यादव को जोड़ते हुए) की उपलब्धि महागठबंधन को उत्साहित करने वाली है। हालांकि, सारण, हाजीपुर और वाल्मीकिनगर की हार से यह मानने में थोड़ी झिझक होती है कि बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दे हाशिये की जनता तक असर भी करते हैं, अगर कि पेट भरा हो और सुरक्षा की चिंता भी नहीं हो।

प्रतिबद्ध मतदाताओं के अपने-अपने खेमों में खड़े हो जाने के बाद इन क्षेत्रों में क्रमश: अति पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के वोट निर्णायक हो जाते हैं। इन तीनों संसदीय क्षेत्रों में राजग सफल रहा है। इस सफलता में मुफ्त के पांच किलो अनाज का कम योगदान नहीं। बेशक यह कांग्रेस के शासन-काल की योजना का रूपांतरण है, लेकिन इसका लाभ राजग के दौर में मिल रहा।

वह लाभार्थी जनता जिस नव-संप्रभु वर्ग से बुरी तरह बिदकती है, वह राजद का कोर वोटर है। राजग ने जंगल-राज के पुराने किस्से सुनाने के साथ भय-भूख-भ्रष्टाचार से मुक्त शासन का वादा कर तटस्थ मतदाताओं को अपने से जोड़ लिया। कोई दो राय नहीं कि डर के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण हुआ। इसके विपरीत जहां आरक्षण और संविधान की चिंता व्याप्त हुई, वहां बाजी महागठबंधन के हाथ लगी।

औरंगाबाद और जहानाबाद आदि उदाहरण हैं। ध्रुवीकरण के संदर्भ में यह विशेष उल्लेखनीय है कि बिहार इस बार भी हिंदू-मुसलमान के फरेब में भी नहीं फंसा। अगर यह फरेब प्रभावी होता तो बेगूसराय में शुरुआत से ही गिरिराज सिंह बढ़त बना लिए होते। कटिहार में पिछड़ने के बावजूद तारिक अनवर विजयी नहीं होते।

डराने-धमकाने (तेजस्वी को जेल में डालने का प्रसंग) की बातों को ही जन-मानस असली राजनीति मान लेता तो पाटलिपुत्र में मीसा भारती सफल नहीं होतीं और अगर जाति-जमात ही आखिरी सत्य है तो लालू प्रसाद के सामाजिक न्याय वाले अंदाज पर सारण भी मुग्ध हो गया होता, जहां उनकी दूसरी पुत्री रोहिणी आचार्य पटखनी खा चुकी हैं।

दरअसल, यह परिणाम महागठबंधन को अपने रंग-ढंग पर विशेषकर विचार करने का संदेश है तो भाजपा को बोल-चाल में संभलने का भी। इधर-उधर डोलने-फिरने वाले (उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी) तो नकार ही दिए गए हैं। कोई सबसे बड़ा बाजीगर रहा है तो वह लोजपा और भाकपा (माले) है।

चुनाव में वस्तुत: तीन ही चेहरे होते हैं : पार्टी, प्रत्याशी और प्रधानमंत्री पद का दावेदार। समेकित रूप से इन तीनों या फिर इनमें से किसी एक-दो पर रीझ मतदाता अपना निर्णय देते हैं। जीत के लिए इनमें से किसी एक का प्रभावी होना आवश्यक है।

पिछले दो चुनाव (2014 और 2019) तो पूरी तरह से मोदी लहर से प्रभावित रहे हैं। उससे पहले 2009 के चुनाव ने राजनीति के एक संक्रमण-काल से निकल कर दूसरे युग में प्रवेश करने की पृष्ठभूमि बनाई थी। तब बिहार में राजग को अपेक्षा से कहीं अधिक सफलता मिली थी। उस चुनाव में नीतीश कुमार भी एक फैक्टर थे, जिनके नेतृत्व में बिहार सरकार अपना उत्कृष्ट प्रदर्शन कर रही थी।

हालांकि, उसके बाद से समीकरण भी बदला और कुछ हद तक गणित भी। सत्ता की हेरा-फेरी में नौकरी-नियुक्ति से संबंधित उपलब्धियों पर तेजस्वी यादव भी दावेदारी किए। जनता ने उनकी भी बातें गंभीरता से सुनीं, लेकिन मोदी-नीतीश के राज-काज ने उसे कुछ अधिक लुभाया है।

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