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Bihar News : पटना में गोशाला पर्यटन, सेवा संग नई पीढ़ी को संस्कार और स्नेह की भी शिक्षा

Patna News वीकेंड पर टूरिस्ट प्लेस की यात्रा या मूवी जैसे प्लान बनाना तो आम बात है। फास्ट फूड खाना और कोल्ड ड्रिंक पीना भी चलन में है। हालांकि वीकेंड के मौके पर कोई गोशाला को अपनी पसंद बना ले औ गाय-बैल को सेवा करे तो! शायद आपको यह थोड़ा अटपटा लगेगा लेकिन हकीकत है। बिहार की राजधानी पटना में यह संस्कृति तेजी से विस्तृत रूप ले रही है।

By Ravi Shankar Edited By: Shashank Shekhar Updated: Wed, 17 Jul 2024 08:16 PM (IST)
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कोल्हू चलाते बैल को पुचकारते यहां के संचालक विनोद सिंह। जागरण

रवि शंकर, बिहटा (पटना)। सप्ताहांत (वीकेंड) पर किसी रमणीक स्थल की यात्रा या फिल्म आदि देखने जैसे कार्यक्रम बनाना आम चलन में है। फास्ट फूड और कोल्ड ड्रिंक भी पसंद में है, पर ऐसे अवसर पर कोई गोशाला को अपनी पसंद बना ले तो! खाने में लिट्टी-चोखा, देसी गाय का शुद्ध दूध और छाछ। पटना में यह संस्कृति बहुत तेजी से विस्तार ले रही है।

इसके कई पक्ष हैं। गोवंश के प्रति प्रेम। अपनी मिट्टी से जुड़ाव। उस विरासत से साक्षात्कार, जिसे पूर्वजों ने अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनाया। पटना से लगभग 20 किलोमीटर दूर बिहटा प्रखंड के विष्णुपुरा गांव स्थित आक्सीजन गोशाला उसी जीवनशैली और संस्कृति को सहेज रही है। इसका संचालन विनोद सिंह कर रहे हैं।

गोशाला में केवल गिर नस्ल की गायें और बैल

कोल्हू चलाते बैल को पुचकारते यहां के संचालक विनोद सिंह। जागरण

गोशाला में केवल गिर नस्ल की गायें और बैल हैं। सुबह-शाम भजन बजता है। गायों का रंभाना, बछड़े-बाछियों का उछलना-कूदना...। गांव की स्वच्छ हवा, चारों ओर खेत। मन को मोह लेने वाला दृश्य। इसे गोशाला पर्यटन भी कह सकते हैं।

गोवंश प्रेमियों का क्लब भी कह सकते हैं, जहां सदस्यता लेनी होती है। वे गायों को गोद लेते हैं, जिनकी देखभाल का दायित्व गोशाला का होता है। गाय-बैलों की सेवा बड़े मनोयोग से की जाती है। इसकी अनुभूति यहां आकर ही हो सकती है। सदस्यता लेने वालों में नेता, उद्योगपति, व्यवसायी, प्रशासनिक अधिकारी, प्रोफेसर से लेकर समाज के कई प्रबुद्ध लोग हैं।

गोशाला में मौजूद गायों के अलग-अलग नाम

उन्हें हर दिन उनकी गोद ली गई गायों का शुद्ध दूध भेजा जाता है। गोशाला की सदस्यता गोवंश के प्रति एक सेवाभाव भी है। साथ ही दुग्ध के रूप में प्रसाद। गायों के नामकरण हैं। गोपी, राधा, चंदा, यशोदा...। गोशाला के सदस्य परिवार के साथ यहां आते हैं। गाय-बैल, बछड़े-बाछियों को गुड़, गाजर आदि खिलाते हैं।

यहीं बैठकर शुद्ध घी में बने लिट्टी-चोखा और दूध की मिठास का आनंद लेते हैं। विशेष रूप से बच्चों का भाव देखते बनता है, जब वे नन्हें हाथों से गोद ली गई अपने परिवार की गाय को चारा खिला रहे होते हैं। नई पीढ़ी को ग्राम्य जीवन और गोवंश से परिचित कराने का बहुत ही सुंदर उपक्रम है यह गोशाला।

बैलों से स्नेह 

गायें तो दूध देती हैं, पर इस मशीनी युग में बैलों की पूछ कहां? यह एक बड़ा प्रश्न है, जिसका उत्तर भी यह गोशाला देती है। यहां बछड़े के जन्म पर भी उत्सव मनाया जाता है। बैलों से खेत की जोताई की जाती है। उन्हें कोल्हू में भी लगाया जाता है। अच्छे चारा-पानी से तंदुरुस्त बैल भी इसे जैसे समझते हों, सो जमकर अपना काम करते हैं। कोल्हू में बैलों से सरसों की पेराई की जाती है।

यह तेल स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बहुत उत्तम होता है। गोशाला का संदेश है कि बैलों का भी संरक्षण उतना ही जरूरी है। यदि गांव-गांव इस तरह बैलों से चलने वाले कोल्हू हो जाएं तो यह एक बड़ी क्रांति होगी। उनकी उपयोगिता भी बनी रहेगी, लघु-कुटीर उद्योग की परिकल्पना को भी बल मिलेगा।

सेवा भाव से संकल्प साकार

अपने आप में एक अनूठी गोशाला के संकल्प को साकार करने वाले विनोद सिंह परास्नातक हैं। मूल रूप से आरा के पिपरा जयपाल के रहने वाले हैं। वे बताते हैं कि करीब 25 वर्ष पूर्व जब पटना आए तो घर में गाय नहीं थी। दूध खरीदकर लेते थे, पर उसमें वह स्वाद नहीं था। ज्यादा नहीं, 30-40 वर्ष पहले ही की बात करें, गांवों में तो अमूमन हर घर में एक गाय होती थी।

सो, उनके यहां भी गांव में देसी गायें थीं। पटना में इसकी कमी खल रही थी। मन में यह विचार आया कि गौ माता की सेवा के लिए क्यों न ऐसी एक गोशाला बनाई जाए, जहां लोग सप्ताह में एक ही दिन आएं और सेवा करें। पर्व-त्योहार के भी अवसर आते रहते हैं। करीब सात वर्ष पहले शुरुआत हुई। प्रारंभिक दौर में 35-40 लोगों ने सहयोग का आश्वासन दिया। धीरे-धीरे लोग जुड़ते चले गए।

गोशाला में करीब 300 गाय-बैल, बछड़े व बाछियां

आज करीब 300 गाय-बैल, बछड़े व बाछियां हैं। सदस्य गोशाला में आते हैं और गायों की सेवा करते हैं तो एक अलग ही अनुभूति होती है। यह बहुत संतोष देता है कि विशेष रूप से बच्चे उत्साह से आते हैं।

अपनी संस्कृति का यही मूल संस्कार है। यहां दो सांड़ हैं, जिनके नाम शिवा और भीम हैं। बछड़े-बाछी का जन्म होता है तो उन्हें मां के दूध से कभी वंचित नहीं किया जाता है। मूल भाव है गोवंश की सेवा।

विनोद कहते हैं कि आज यह आवश्यक है कि देश में गोपालन और बछड़ों को बचाने का अभियान छेड़ा जाए। बैलों की संख्या तेजी से घट रही है। इसे बचाने का एक छोटा सा प्रयास है। विष्णुपुरा में साढ़े तीन बीघा जमीन किराए पर लेकर गोशाला की शुरुआत की थी, आज इसके दो सौ से अधिक लोग सदस्य हैं।

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