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बाबू कुंवर सिंह के शौर्य का प्रतीक है भोजपुर का जगदीशपुर किला, यहां अंग्रेजों की पराजय की निशानियां

बिहार के भोजपुर के जगदीशपुर में बाबू कुंवर सिंह का किला है। यहां बाबू कुंवर सिंह के शौर्य और पराक्रम की ढेरों कहानियां हैं। इसके साथ ही अंग्रेजों की पराजय की निशानियां हैं। 1857 के संग्राम में भोजपुर जिला व वीर कुंवर सिंह का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है।

By Akshay PandeyEdited By: Updated: Sat, 26 Mar 2022 11:10 AM (IST)
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भोजपुर के जगदीशपुर स्थित बाबू वीर कुंवर सिंह किले में लगी मूर्ति।
शमशाद 'प्रेम', आरा : 1857 के गदर की जब बात होती है, तो बाबू कुंवर सिंह के शौर्य और पराक्रम की कहानियां सुनकर हर भारतीय गदगद हो जाता है। भोजपुर के जगदीशपुर आने पर ऐसा लगता है जैसे कि उज्जैनियां सल्तनत की शान और वैभव सामने आकर खड़ा हो गया हो। आज भी यहां जगदीशपुर का किला शान से खड़ा है। किले के अंदर और आसपास कुंवर सिंह के जमाने की स्मृतियों को सहेजा गया है। पास में ही युद्ध के दौरान इस्तेमाल में लाए गए शस्त्रों और पुरातात्विक सामग्रियों को सहेजने के लिए एक संग्रहालय बना है। साथ ही आरा हाउस और कुंवर सिंह पार्क दिलकश नजारा प्रस्तुत करता है। संग्रहालय में सत्रहवीं शताब्दी के सिक्के और शस्त्र तो हैं हीं, जगदीशपुर के सैनिकों के कवच वस्त्र और माडल के रूप में तोप भी रखे गए हैं।

दरअसल, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पृष्ठों को उलटने पर 1857 के संग्राम में भोजपुर जिला व वीर कुंवर सिंह का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। कुंवर सिंह ने 80 वर्ष की आयु में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध तलवार म्यान से खींचकर अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि पौरुष तथा इच्छा शक्ति के समक्ष उम्र बाधा नहीं होती। उन्होंने दमन व शोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ी। भोजपुर के जगदीशपुर के एक बड़े शक्तिशाली व्यक्ति थे साहेबजादा थे। इनके चार पुत्र क्रमशः कुंवर सिंह, दयालु सिंह, राजपति सिंह और अमर सिंह। वीर कुंवर सिंह बाल्यावस्था से ही वीरता के रस में डूबे हुए थे, जिसके कारण पढ़ाई में विशेष रुचि न थी। उन्होंने जितौरा के जंगल में अपना बंगला बनवाया। वे जंगल के अत्यंत प्रेमी थे, जिस कारण पौधारोपण कार्य को बढ़ावा दिया।

युद्ध कला में निपुण थे बाबू कुंवर सिंह

कुंवर सिंह तत्कालीन जगदीशपुर के लोकप्रिय राजा व 1857 के सफल योद्धा थे। युद्ध कला में निपुर्ण होने के कारण अंग्रेजों के चयनित प्रतिनिधियों को सात बार परास्त किया। 24 जुलाई 1857 को दानापुर की देसी पलटनों ने विद्रोह कर दिया और जगदीशपुर की ओर कूच किया। इस क्रांतिकारी सेना ने जगदीशपुर पहुंचकर कुंवर सिंह को अपना नेता स्वीकार कर लिया। उन्होंने इस सेना का नेतृत्व अविलंब स्वीकार कर लिया। सेना के जवानों ने आरा पहुंचकर खजाने पर कब्जा किया और कैदियों को रिहा किया। 

मारा गया डनवर, फौज की हुई पराजय

इस बगावत को दबाने के लिए दानापुर से डनवर की सेना आरा के लिए बढ़ी। 29 जुलाई 1857 को आरा के आराम बाग के निकट आम बाग में सेना के साथ संघर्ष हुआ। इसमें डनवर मारा गया और फौज को बुरी तरह पराजय का मुंह देखना पड़ा। 

सीमित सेना होने के कारण कुंवर सिंह को मिली शिकस्त

2 अगस्त 1857 को मेजर आयर से सेना की भिड़ंत आरा के बीबीगंज के निकट हुई, जिसमें कुंवर सिंह के पास सीमित सेना होने के कारण शिकस्त मिली। कुंवर सिंह स्त्रियों व सैनिकों के साथ महल से निकल गए। मेजर आयर का जगदीशपुर पर कब्जा हो गया। 

पानी पीने को ले अंग्रेजों ने की कुएं की खोदाई 

इसके पूर्व 26 जुलाई 1857 को शाम में दानापुर छावनी से देसी सिपाही विद्रोह कर आरा पहुंचे। शहर के महाराजा कालेज स्थित आरा हाउस में अंग्रेज अधिकारी, सिख पुलिस आदि अपनी जान व माल की सुरक्षा के लिए एकत्रित हुए थे। आरा पहुंचे देशी सिपाहियों के साथ लगभग 10 हजार की संख्या में जनता ने वीर कुंवर सिंह के नेतृत्व में आरा हाउस को 27 जुलाई से तीन अगस्त तक घेरे रखा। लगातार अंग्रेजों व देसी सैनिकों-जनता के साथ लड़ाई जारी रही। आरा हाउस के अंदर छिपे लोगों को निकलना नामुमकिन था, जिसके कारण अंदर पानी के लिए कुआं खोदना पड़ा। इस दौरान मुगलसराय जा रहे कर्नल आयर को जब इस घटना की जानकारी मिली तो उन्होंने आरा आकर आरा हाउस से अंग्रेज अफसरों सहित अन्य को मुक्त कराया। इसके बाद कुंवर सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों से कई लड़ाइयां लड़ी गईं।

गोली लगने पर कुंवर सिंह ने काट दी अपनी बांह

17 अप्रैल 1858 को कुंवर सिंह और डगलस के बीच भिड़ंत हुई। इसमें डगलस की हार हुई। कुंवर सिंह ने सिकंदरपुर घाघरा को पारकर गाजीपुर के मनोहर गांव पहुंचकर थोड़ी देर के लिए रात में आराम किया। डगलस ने प्रात: काल ही कुंवर सिंह की सेना पर अचानक हमला कर दिया। कुंवर सिंह अपनी सेना के साथ नाव द्वारा बलिया से शिवपुर घाट पार कर रहे थे। सबसे पीछे कुंवर सिंह की नाव थी। उसी समय अंग्रेज सैनिक वहां पहुंच गए और घाट पार कर रहे कुंवर सिंह पर गोली चलाने लगे। कई निशाने चूके पर एक गोली कुंवर सिंह के दाहिने हाथ में लगी। शरीर में विष न फैले इस सोच के तहत कुंवर सिंह ने अपने बाएं हाथ से दाहिने हाथ को काटकर गंगा को समर्पित कर दिया।

23 अप्रैल को जगदीशपुर हुआ स्वतंत्र

कुंवर सिंह ने लीग्रेन्ड और उसकी सेना को हराकर 23 अप्रैल 1858 को जगदीशपुर में अपना पताका फहराया। हालांकि युद्ध के दौरान अपना घायल हाथ खुद ही काट कर गंगा को समर्पित करने के कारण कुंवर सिंह के शरीर से काफी रक्तस्त्राव हुआ और इसी हालत में वीरता से लड़ते हुए अंग्रेजों को पीछे ढकेलते रहे। इसके कारण उनके शरीर में जहर फैल गया। जगदीशपुर के स्वतंत्र होने के तीन दिन बाद ही 26 अप्रैल 1858 को उनकी मृत्यु हो गई।

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