कर्पूरी ठाकुर ने सबसे पहले दिया था सवर्ण आरक्षण, चुनावी साल में हुए विशेष प्रासंगिक
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर अपनी सादगी व ईमानदारी के लिए जाने जाते थे। लेकिन लोकसभा चुनाव के साल में उनकी प्रासंगिकता अन्य कारणों से बढ़ी हुई है। डालते हैं नजर।
By Amit AlokEdited By: Updated: Thu, 24 Jan 2019 09:27 PM (IST)
पटना [अरविंद शर्मा]। लोकसभा चुनाव से पहले पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर उत्तर प्रदेश (यूपी) व बिहार में तीन तरह से प्रासंगिक हो गए हैं। पहला यह कि वे अति पिछड़ा वर्ग में जन्मे थे, जिसे अब बड़ा वोट बैंक माना जाता है। दूसरा, उन्हें सामाजिक न्याय का मसीहा माना जाता था, जिनके अनुसरण का दावा कई दल और नेता करते हैं। तीसरा यह कि देश में सर्वप्रथम बिहार में उन्होंने ही आर्थिक आधार पर सवर्णों को तीन फीसद आरक्षण दिया था, जिसे बाद में कोर्ट ने खत्म कर दिया था।
चुनावी साल में कर्पूरी के नाम पर श्रद्धा का प्रवाह चुनावी साल है। इसलिए सियासी गलियारे में कर्पूरी के नाम पर श्रद्धा का प्रवाह मजबूरी भी है। बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान भी इतना ही सम्मान उडेला गया था। अबकी बिहार से यूपी थोड़ा आगे निकल गया। समाजवादी पार्टी (सपा) व बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की संयुक्त ताकत का जवाब तलाश रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने यूपी के सभी जिले में कम से कम एक सड़क को कर्पूरी के नाम पर रखने का ऐलान कर दिया है।
सोशल इंजीनियरिंग में जुटे सियासी दल बिहार में भी सामाजिक न्याय की सियासत करने वाले दल सोशल इंजीनियरिंग में जुट गए हैं। किंतु हैरत यह कि न तो किसी को कर्पूरी की ईमानदारी से मतलब है और न ही उनके आदर्शों से। उन्हें इससे भी नहीं मतलब कि कर्पूरी परिवारवाद के प्रबल विरोधी थे। जीते जी अपने दोनों पुत्रों को राजनीति से दूर रखा। निधन के बाद ही राजनीतिक दलों ने वोट बैंक साधने के मकसद से सप्रयास रामनाथ ठाकुर को राजनीति में प्रवेश कराया।
सियासत मतलब जनसेवा आज के नेताओं से अलग कर्पूरी ठाकुर ने सियासत भी जनसेवा की तरह की। सरल, सहज, सरस और सादगी के कारण वह चहेतों के लिए जननायक हो गए। सरकार में रहते उन्होंने आम आदमी के लिए कई फैसले लिए और व्यक्तिगत जीवन में ईमानदारी बरती।
कर्पूरी ठाकुर राजनीति में आने से पहले शिक्षक थे। उन्होंने आजादी की लड़ाई में 26 महीने जेल में बिताए थे।दो-दो बार मुख्यमंत्री एवं एक बार उपमुख्यमंत्री भी रहने के बावजूद जब 1988 में उनका निधन हुआ तो अपने आश्रितों को देने के लिए उनके पास एक मकान तक नहीं था। पैतृक गांव में भी एक इंच जमीन नहीं जोड़ पाए। उनका जन्म समस्तीपुर जिले के पितौंझिया गांव में हुआ था। अब इसे कर्पूरीग्राम के नाम से जाना जाता है।
सड़क से सदन तक किया संघर्ष कर्पूरी का नारा था -हक चाहो तो लडऩा सीखो। जीना है तो मरना सीखो। ताउम्र आम लोगों के लिए सड़क से सदन तक संघर्ष किया। जातियों में अंतर किए बिना समाजवादी नेता की तरह सबके लिए लड़ते-भिड़ते रहे, किंतु बाद के मतलबी नेताओं ने उन्हें जाति की सीमा में कैद कर दिया।
अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म की थी कर्पूरी का समाजवाद आज के जातिवाद की तरह नहीं था, बल्कि सबके लिए था। मैट्रिक परीक्षा में अंग्रेजी की बंदिश खत्म कर कमजोर वर्गों के लिए शिक्षा का दरवाजा खोल दिया था। उन्होंने 1978 में बिहार में सबसे पहले सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू किया था। इसमें 12 फीसद अति पिछड़ों एवं आठ फीसद पिछड़ों के लिए सुरक्षित था। तीन फीसद गरीब सवर्णों को भी दिया गया था। शायद यही कारण है कि 1952 में विधायक बनने के बाद वे कभी विधानसभा चुनाव में पराजित नहीं हुए। दशकों तक विरोधी दल के नेता रहे।
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