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KC Tyagi Exclusive Interview: के.सी. त्यागी बोले- लालू यादव के साथ बैठकर न तो आप खाना खा सकते हैं और न राजनीति कर सकते हैं…

KC Tyagi Exclusive Interview नीतीश कुमार जब राजनीतिक करवट बदलते हैं तो उसकी व्याख्या करने के लिए के.सी. त्यागी ही सामने आते हैं। जदयू के विशेष सलाहकार और राष्ट्रीय प्रवक्ता के रूप में उनकी काफी ख्याति है। समाजवादी विचारधारा की उपज इस राजनेता ने आपातकाल से लेकर आज तक की राजनीति को बड़े करीब से देखा है। उनकी सबसे बड़ी खासियत उनकी बेबाकी है।

By Jagran News Edited By: Mohit Tripathi Updated: Sat, 06 Apr 2024 04:46 PM (IST)
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लालू यादव के साथ बैठकर न तो आप खाना खा सकते हैं और न राजनीति कर सकते हैं- त्यागी

ब्रजबिहारी, पटना। KC Tyagi Exclusive Interview । नीतीश कुमार जब राजनीतिक करवट बदलते हैं तो उसकी व्याख्या करने के लिए जो सबसे पहले सामने आते हैं,वह हैं किशन चंद  त्यागी। बहुत से लोग शायद इस नाम से परिचित न हो, लेकिन बेबाक राजनेता केसी त्यागी को सभी जानते हैं। जदयू के विशेष सलाहकार व राष्ट्रीय प्रवक्ता के रूप में उनकी काफी ख्याति है।

समाजवादी विचारधारा की उपज इस राजनेता ने आपातकाल से लेकर आज तक की राजनीति को बड़े करीब से देखा है। जब नेताओं में पढ़ने-लिखने के अभ्यास का लोप होता जा रहा है, तब वे उम्मीद जगाते हैं कि पढ़ाकू नेताओं की प्रजाति अभी खत्म नहीं हुई है।

दैनिक जागरण के वरिष्ठ समाचार संपादक  ब्रजबिहारी  ने  किशन चंद त्यागी (केसी त्यागी) से लोकसभा चुनाव, मोदी सरकार पर विपक्ष के आरोप, समाजवादी आंदोलन और उसके हमसफर नेताओं के बारे में  विस्तृत बातचीत कीः

भाजपा से अलग होने के बाद नीतीश कुमार ने कहा था कि जो 2014 में आए थे, वे 2024 में नहीं आएंगे, वही नीतीश जी अब एनडीए को तीसरी बार सत्ता में लाने को एकजुट हो गए हैं। इस पर क्या कहना है?

देखिए, ये राजनीति के परिवर्तन का दौर है और ये भारत तक सीमित नहीं है बल्कि विश्वव्यापी है। मैं कभी सोवियत क्रांति और लेनिन से प्रभावित हुआ था। आज वहां पुतिन हैं। माओ त्से तुंग कहते थे कि राजनीतिक सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। आज चीन में सत्ता पूंजीवादियों की तिजोरी से निकल रही है। कभी कांग्रेस 400 सीटों के ऊपर की पार्टी हुआ करती थी, आज वह क्षेत्रीय पार्टियों के इशारे पर नाच रही है।

बिहार में सीटों के बंटवारे में राजद ने जो चाहा, वह हुआ है। हमारी पार्टी जदयू समाजवादी आंदोलन से निकली हुई है। बीच-बीच में संक्रमण काल से गुजरती रही, टूटती रही। उस आंदोलन से निकले हुए जितने भी दल और व्यक्तियों के समूह हैं, उनमें नीतीश कुमार अकेले ऐसे हैं, जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा बचाकर, बनाकर रखी है। उन पर परिवारवाद, जातिवाद और भ्रष्टाचार का आरोप नहीं है।

हमारी उपयोगिता राष्ट्रीय नहीं, एक क्षेत्रीय दल की है और वहां की जो बदली हुई परिस्थितियां होती हैं, उनके अनुसार हमारे फैसले होते हैं। हमारी सोच 2014 में भाजपा विरोधी थी, आज नहीं है।

हम तो एनडीए के संस्थापक हैं। आज से नहीं, 1967 में डॉ. राममनोहर लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय ने मिलकर गैर-कांग्रेसवाद चलाया था। हम तो उसके भी संस्थापक हैं।

क्या भारतीय जनता पार्टी, जनसंघ या संघ अपने जन्मकाल से साम्यवादी व्यवस्था के विरोधी नहीं थे, लेकिन 1967 में कम्युनिस्टों के साथ मिलकर सरकार बनाई।

अपनी विचारधारा और अस्तित्व समाप्त नहीं करने की शर्त के साथ वे 1977 में जनता पार्टी में शामिल हुए। आज समय की परिस्थितियां ऐसी हैं कि संघ और भाजपा की मूल विचारधारा का सीधे विरोध करने की स्थिति में लोग नहीं हैं।

आपने नीतीश कुमार और जदयू की राजनीतिक उपयोगिता की बात की। वे जिस-जिस पार्टी या गठबंधन के साथ रहते हैंस उसे फायदा पहुंचता है, तो क्या वे और उनकी पार्टी सिर्फ राजनीतिक इस्तेमाल के औजार बनकर रह गए हैं?

नहीं, औजार तो हम परिवर्तन के हैं। हमारी पार्टी छोटी है, लेकिन हमारे संकल्प और इरादे बड़े हैं। हम सामाजिक परिवर्तन के वाहक दल, व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के वंशज हैं। समाज व्यवस्था अन्यायी है।

जाति पर आधारित दो-तीन हजार साल पुरानी वर्ण व्यवस्था में समाज के एक बड़े तबके के साथ जुल्म-ज्यादतियां हुई हैं। पहले डॉ. आंबेडकर, फिर डॉ. लोहिया और कर्पूरी ठाकुर ने सामाजिक असमानता के विरुद्ध विद्रोह किया।

डॉ. आंबेडकर का विद्रोह लचीला नहीं था। उसमें हल्की-सी तल्खी दिखाई देती है, लेकिन कर्पूरी ठाकुर और नीतीश कुमार के सामाजिक परिवर्तन में तीखापन नहीं है। उसमें दुर्बल वर्गों की समानता का सपना है।

बात डॉ. लोहिया और कर्पूरी ठाकुर जैसे सोशलिस्टों की हो रही है तो एक जुमला याद आता है कि सोशलिस्ट विभाजित होने के लिए अभिशप्त हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कल्पना कीजिए कि जदयू, राजद और लोक जनशक्ति पार्टी जैसे दल साथ होते तो कितनी बड़ी ताकत होते?

इसे समझने के लिए डॉ. लोहिया की किताब 'सुधरो या टूटो' पढ़ना चाहिए। विचार के आधार पर अगर एकता होती है तो ठीक है नहीं तो टूट जाओ। समाजवादी आंदोलन में ये प्रयोग खूब हुए।

1948 आते-आते समाजवादियों को समझ में आ गया था कि कांग्रेस और अंग्रेज सरकार में ज्यादा भेद नहीं है। इसलिए स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हमारे पुरखों ने जो सपने देखे थे, उन्हें पूरा करने की व्यग्रता के कारण गांधी जी के मना करने के बावजूद समाजवादी कांग्रेस से अलग हो गए।

समाजवादियों ने अपने घोषणा-पत्र में उल्लेख किया कि हम आपसे अलग होकर खत्म हो जाएंगे। सामाजिक परिवर्तन की बेचैनी उन्हें शांत नहीं बैठने देती है।

संघ और भाजपा की भी एक विचारधारा है और उनमें कभी रैखिक विभाजन नहीं हुआ। समाजवादी विचारधारा में ऐसा क्या है कि बार-बार विभाजन होता है?

मैं, संघ और समाजवादी आंदोलन का जिक्र नहीं करना चाहता हूं और न ही किसी को छोटा-बड़ा करना चाहता हूं, लेकिन हम अपने सवालों को जमीन पर उतारने के लिए, अपने कार्यक्रमों को क्रियान्वित करने के लिए ज्यादा व्यग्र हैं और यही व्यग्रता हमसे टूट कराती है। बहरहाल, ये पहले की स्थिति थी। अब यह व्यक्तियों की टकराहट में बदल गया है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है।

क्या यह राजनीतिक अवसरवाद नहीं ?

अगर यह सब पहले से स्थापित पद से बड़े पद पर जाने के लिए या किसी आर्थिक प्रलोभन के लिए या सामाजिक रुतबा बढ़ाने के लिए हो रहा है, तो अवसरवाद है, लेकिन अगर किसी कार्यक्रम के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए या गलत दिशा में मुड़ गए आंदोलन को रोकने के लिए टूट या विघटन है तो उसे अवसरवाद कैसे कहेंगे?

जैसे, नीतीश कुमार जब राजद को छोड़कर भाजपा के साथ गए तो पहले भी मुख्यमंत्री थे और बाद में भी उसी पद पर रहे। उससे पहले लोकसभा में 303 सीटों वाले नरेन्द्र मोदी को छोड़कर राजद के साथ गए थे। इस बार राजद से जो अलगाव हुआ उसके पीछे उसके कुछ मंत्रियों की स्थापित सवालों पर व्यग्रता जिम्मेदार थी।

मैं बहुत बेबाकी से कहना चाहता हूं कि हम राम मंदिर आंदोलन के पक्षधर नहीं थे, लेकिन जब इस पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया तो उसे सभी को मानना चाहिए। हमने भी उसे आदरपूर्वक स्वीकार किया।

भारतीय समाज का और हिंदू समाज का व्यापक हिस्सा उसका पक्षधर था, लेकिन जब प्राण-प्रतिष्ठा की घड़ी आई, तो राजद के मंत्री ने रामायण को, राम को और प्राण-प्रतिष्ठा को लेकर गाली-गलौज करना शुरू कर दिया।

भारतीय समाज में महानायक के रूप में प्रतिष्ठित राम को लेकर राजद के लोगों की बयानबाजी ने हमें समाज में घूमने-फिरने लायक ही नहीं छोड़ा।

विपक्ष कह रहा है कि नरेन्द्र मोदी अगर तीसरी बार पीएम बने तो संविधान बदल दिया जाएगा और मुसलमान दोयम दर्जे के नागरिक बना दिए जाएंगे, जिनके पास संविधान प्रदत्त कोई भी अधिकार नहीं होगा?

देखिए, राजनीति में सक्रिय नरेन्द्र मोदी हों या हमारे जैसे कार्यकर्ता, उनके लिए संविधान गीता और कुरान हैं। हमारे पुरखों ने बड़ी मेहनत के साथ और परंपराओं से विद्रोह करते हुए इसका निर्माण किया। राजग की छोड़िए, किसी में हिम्मत नहीं कि संविधान में मौलिक परिवर्तन कर दे।

भाजपा भी गांधीवादी समाजवाद को मानती है और कौन कहता है कि नरेन्द्र मोदी धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं। पिछले दस साल में अल्पसंख्यकों के कौन से अधिकार छीने गए हैं? ये ठीक है कि संघ और हमारे विचारों में कुछ मतभेद हैं, लेकिन मोदी जी को मुस्लिम विरोधी कहना उचित नहीं है।

मुस्लिम देशों के साथ उनके संबंध बहुत अच्छे हैं। उन देशों के शीर्ष सम्मान से उन्हें नवाजा जा चुका है। मैं तो कहता हूं कि कोई भी राजनीतिक पार्टी 20 करोड़ मुसलमानों को मताधिकार से वंचित करके या अपमानित करके न तो उन्हें प्रताड़ित कर सकती है और न भगा सकती है। वो पार्टी तो बिल्कुल भी ऐसा नहीं कर सकती है जो अखंड भारत का सपना देखती है और उसकी भाषा बोलती है।

आपने 1975 में आपातकाल का दौर देखा और झेला है। इस आरोप पर आप क्या कहेंगे कि देश में अघोषित आपातकाल जैसी स्थिति है और देश तानाशाही की ओर बढ़ रहा है?

देखिए, जब एक पार्टी का बहुमत ज्यादा हो जाता है तो वह फैसले लेने में माहिर हो जाती है। मुझे 1974-75 का राजनीतिक घटनाक्रम याद आता है। 25 जून, 1975 को जयप्रकाश नारायण (जेपी) की आखिरी जनसभा से हम लौटते हैं और हमें हमारे घरों से उठा लिया जाता है। आइपीसी और सीआरपीसी सब धरे के धरे रह जाते हैं।

चंद्रशेखर जी अपने नेता जेपी से मिलने पार्लियामेंट स्ट्रीट थाने पहुंचते हैं और उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया जाता है। जो नेता नहीं मिलते हैं, उनकी जानकारी लेने के लिए उनके परिजनों को अकथनीय यातनाएं दी जाती हैं। आज तो किसी के साथ ऐसा नहीं हो रहा है।

लिहाजा, आज की बहुमत वाली पार्टी के दौर की तुलना तब की अधिनायकवादी पार्टी से नहीं की जा सकती है। आज भी राजग या उसके किसी घटक दल में कोई असहनशील चीज होती है तो उसका विरोध होता है।

लेकिन आज जिस तरह से ईडी, सीबीआइ और आयकर विभाग का इस्तेमाल हो रहा है, उससे तो लगता है कि विपक्षियों को कमजोर करने के लिए सरकार किसी भी सीमा तक जाने पर आमादा है?

जब सरकार पर अन्य आरोप थोथे पड़ते दिखाई देते हैं, तब विपक्ष की ओर से ऐसे आरोप लगाए जाते हैं। मुझे तो नहीं लगता कि कोई अतिरेक हो रहा है। न्यायपालिका सहित हमारी संस्थाएं सही ढंग से काम कर रही हैं। एसबीआइ बॉन्ड का ही उदाहरण लीजिए।

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से जैसे तीखे और असहज करने वाले प्रश्न पूछे हैं, वह हमारी न्यायपालिका की स्वतंत्रता का उदाहरण है। प्रेस भी स्वतंत्र है। हमें वो दौर भी याद है जब इंदिरा गांधी के 20 सूत्रीय व संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रम के अलावा समाचार-पत्रों में कुछ भी नहीं छपता था।

विपक्ष तो नागरिकता संशोधन कानून (सीएएए) का विरोध कर रहा है?

हम कभी इसके विरोधी नहीं रहे हैं। हम सिर्फ यह चाहते थे कि सरकार सदन में यह आश्वासन दे कि इस कानून के तहत किसी मुसलमान की नागरिकता नहीं ली जाएगी। सरकार ने सदन में यह आश्वासन दिया है।

एनआरसी पर क्या कहना है?

सभी संबंधित पक्षों से सलाह-मशविरे के बाद ही इसे लागू किया जाए। हम इस पर व्यापक बहस के समर्थक हैं।

लालू प्रसाद के बारे में क्या कहेंगे?

जेपी मूवमेंट में हम सब साथ थे। जब कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु (1988) हुई तो हम सबने मिलकर ही उन्हें नेता बनाया। जब मंडल कमीशन लागू हुआ तो लालू पिछड़ों के एकछत्र नेता बनकर उभरे।

पहले लालू-नीतीश जिंदाबाद के नारे लगते थे, फिर लालू जिंदाबाद होने लगा, लेकिन धीरे-धीरे लालू का नीतीश कुमार, शरद यादव और रामविलास पासवान के साथ बराबरी के रिश्ते में फर्क आना शुरू हुआ। सबसे पहले नीतीश और जॉर्ज फर्नांडिस अलग हुए और फिर शरद यादव और रामविलास पासवान।

लालू यादव के साथ बैठकर न तो आप खाना खा सकते हैं और न राजनीति कर सकते हैं। आपकी थाली में से रोटी भी छीन सकते हैं और दाल भी।

इसका अर्थ ये हुआ कि सत्ता और अहंकार का चोली-दामन का साथ है और लगातार सत्ता में रहने से इस सरकार में भी यह घर कर सकता है?

इस सरकार के पीछे संघ है। लाखों-लाखों भाजपा कार्यकर्ता हैं। ये सभी मिलकर नरेन्द्र मोदी बनाते हैं। लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, ओम प्रकाश चौटाला या ममता बनर्जी बनने के लिए एक परिवार काफी होता है।

नरेंद्र मोदी निर्मित परिवार इन परिवारवादियों से बिल्कुल अलग है। मैं मोदी जी की बात से सहमत हूं कि परिवार अकेले नहीं आता है। उसके साथ वह जाति भी आती है जिसका वह नेता होता है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अबकी बार 400 पार का लक्ष्य आपको वास्तविक लग रहा है या फिर नेताओं और कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने के लिए महज एक नारा?

पिछले और इस बार के चुनाव में फर्क है। राम जन्मभूमि निर्माण भाजपा का सबसे बड़ा वैचारिक मुद्दा था। कभी उन लोगों में हम भी शामिल थे जो भाजपा से कहते थे कि तारीख नहीं बताएंगे। अब उन्होंने तारीख भी बता दी और निर्माण भी कर दिया। इससे मोदी सरकार की प्रामाणिकता स्थापित हो गई है।

दूसरा, लाभार्थी योजनाओं का व्यापक असर दिख रहा है, जो दिल्ली में बैठकर आलोचना करने वालों की कल्पना से बाहर है। मैं स्वयं देखकर आया हूं। गांव में मकान बन रहे हैं और इसमें हिंदू-मुसलमान या ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं है।

तीसरा, राजग का कुनबा भी बढ़ा है। चौथा, विपक्ष पूरी तरह से अविश्वसनीय हो चुका है। उनका कोई नेता नहीं है और मेरा अनुभव कहता है कि अदृश्य नेतृत्व के साथ कभी चुनाव नहीं जीते जाते हैं।

विपक्ष के सामने एक ऐसे प्रधानमंत्री का नेतृत्व है जो 18 घंटे काम करते हैं। इसके अलावा क्षेत्रीय दलों ने अपने आपको परिवार तक सीमित कर लिया है, जिसके रहते उन पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगे हैं।

मैं मोदी जी की इस बाात से सहमत हूं कि परिवार अकेले नहीं आता है। उसके साथ वह जाति भी आती है, जिसका वह स्थापित नेता होता है।

लोकतंत्र की स्थापना के लिए जाति के जिस चक्रव्यूह को हमने तोड़ा था, ये परिवारवादी क्षेत्रीय दल हमें फिर उस सामंती युग में ले जा रहे हैं जहां राजा का बेटा भले ही अयोग्य हो, वही राजा होता था।

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