'मुहर्रम' शहादत को याद करने का दिन, जानिए क्यों है खास और इस दिन क्यों मनाते हैं मातम
मुहर्रम Muharram शहादत और कुर्बानी को याद करने का दिन होता है। मुहर्रम से ही इस्लामिक कैलेंडर की शुरुआत होती है। मुहर्रम अधर्म पर धर्म की विजय का संदेश देता है। जानिए क्यों है खास
By Kajal KumariEdited By: Updated: Tue, 10 Sep 2019 07:14 PM (IST)
पटना, जेएनएन। मुहर्रम (Muharram) शहादत और कुर्बानी को याद करने का दिन है। आज ही इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है और इसी से इस्लाम धर्म के नए साल की शुरुआत होती है। लेकिन इस महीने की एक से10वें मुहर्रम तक हजरत इमाम हुसैन की याद में मुस्लिम मातम मनाते हैं। यह दिन पूरी दुनिया को मानवता का संदेश देने के साथ ही हर बुराई से बचने और अच्छाई को अपनाने का संदेश देता है।
मान्यता है कि इस महीने की 10 तारीख को इमाम हुसैन की शहादत हुई थी, जिसके चलते इस दिन को रोज-ए-आशुरा (Roz-e-Ashura) कहते हैं। मुहर्रम का यह सबसे अहम दिन माना गया है। इस दिन जुलूस निकालकर हुसैन की शहादत को याद किया जाता है।10वें मुहर्रम पर रोज़ा रखने की भी परंपरा है।
क्यों मनाते हैं मुहर्रम?इस्लामी मान्यताओं के अनुसार इराक में यजीद नाम का जालिम बादशाह इंसानियत का दुश्मन था। यजीद खुद को खलीफा मानता था, लेकिन अल्लाह पर उसका कोई विश्वास नहीं था। वह चाहता था कि हजरत इमाम हुसैन उसके खेमे में शामिल हो जाएं। लेकिन हुसैन को यह मंजूर नहीं था और उन्होंने यजीद के विरुद्ध जंग का ऐलान कर दिया था।
यह जंग इराक के प्रमुख शहर कर्बला में लड़ी गई थी। यजीद अपने सैन्य बल के दम पर हजरत इमाम हुसैन और उनके काफिले पर जुल्म कर रहा था। उस काफिले में उनके परिवार सहित कुल 72 लोग शामिल थे। जिसमें महिलाएं और छोटे-छोटे बच्चे भी थे। यजीद ने छोटे-छोटे बच्चे सहित सबके लिए पानी पर पहरा बैठा दिया था।
भूख-प्यास के बीच जारी युद्ध में हजरत इमाम हुसैन ने प्राणों की बलि देना बेहतर समझा, लेकिन यजीद के आगे समर्पण करने से मना कर दिया। महीने की 10 वीं तारीख को पूरा काफिला शहीद हो जाता है। चलन में जिस महीने हुसैन और उनके परिवार को शहीद किया गया था वह मुहर्रम का ही महीना था।
मुहर्रम का क्या महत्व है?
पटना के इमारत ए शरिया के नाजिम मौलाना अनिसुर्रहमान कासमी ने बताया कि मुहर्रम मातम मनाने और धर्म की रक्षा करने वाले हजरत इमाम हुसैन की शहादत को याद करने का दिन है। मुहर्रम के महीने में मुसलमान शोक मनाते हैं और अपनी हर खुशी का त्याग कर देते हैं। हुसैन का मकसद खुद को मिटाकर भी इस्लाम और इंसानियत को जिंदा रखना था। यह धर्म युद्ध इतिहास के पन्नों पर हमेशा-हमेशा के लिए दर्ज हो गया। मुहर्रम कोई त्योहार नहीं बल्कि यह वह दिन है जो अधर्म पर धर्म की जीत का प्रतीक है।
मुहर्रम तम और आंसू बहाने का महीना है। शिया समुदाय के लोग 10 मुहर्रम के दिन काले कपड़े पहनकर हुसैन और उनके परिवार की शहादत को याद करते हैं। हुसैन की शहादत को याद करते हुए सड़कों पर जुलूस निकाला जाता है और मातम मनाया जाता है।मुहर्रम की नौ और 10 तारीख को मुसलमान रोजे रखते हैं और मस्जिदों-घरों में इबादत की जाती है। वहीं सुन्नी समुदाय के लोग मुहर्रम के महीने में 10 दिन तक रोजे रखते हैं। कहा जाता है कि मुहर्रम के एक रोजे का सबाब 30 रोजों के बराबर मिलता है।
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