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Bihar Politics: बिहार की सियासत में रही है JNU से निकले नेताओं की धाक, कन्हैया से लेकर संदीप सौरभ तक इतनी लंबी है लिस्ट

पिछली बार बेगूसराय में करारी शिकस्त के बाद बिहार की राजनीति में एक ठौर के लिए जेएनयू फिर बेकरार है। इस बार नालंदा में संदीप सौरभ पर भाकपा (माले) का दारोमदार है। पिछली बार बेगूसराय में भाकपा के सिंबल पर कन्हैया कुमार चूक गए थे। उसके बाद उन्होंने कांग्रेस का हाथ थाम लिया। कन्हैया कुमार की इच्छा इस बार भी बेगूसराय की ही थी।

By Vikash Chandra Pandey Edited By: Mohit Tripathi Published: Sun, 12 May 2024 07:39 PM (IST)Updated: Sun, 12 May 2024 07:39 PM (IST)
बिहार की सियासत में रही है JNU से निकले नेताओं की धाक। (फाइल फोटो)

विकाश चन्द्र पाण्डेय, पटना। पिछली बार बेगूसराय में करारी शिकस्त के बाद बिहार की राजनीति में एक ठौर के लिए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) फिर बेकरार है। इस बार नालंदा में विधायक संदीप सौरभ पर भाकपा (माले) का दारोमदार है। पिछली बार बेगूसराय में भाकपा के सिंबल पर कन्हैया कुमार चूक गए थे। उसके बाद उन्होंने कांग्रेस का हाथ थाम लिया।

कन्हैया कुमार की इच्छा इस बार भी बेगूसराय की ही थी, लेकिन समझौता और समीकरण ने उन्हें उत्तर-पूर्व दिल्ली में संघर्ष के लिए बाध्य किया है।

भाग्यशाली हैं संदीप सौरभ

संदीप सौरभ सौभाग्यशाली हैं, जो अपने पहले ही मुकाबले में विधायक चुन लिए गए। संयोग यह कि दोनों की पार्टियां (कांग्रेस और माले) अभी उस राजद से चिपकी हुई हैं, जिसके मुखिया लालू प्रसाद ने कभी बिहार से वामदलों को हाफ और कांग्रेस को साफ करने का इरादा प्रकट किया था।

बिहार की नई पीढ़ी में नई पीढ़ी का क्रेज

बिहार की नई पीढ़ी में जेएनयू का आज भी बड़ा क्रेज है। प्रति वर्ष सैकड़ों विद्यार्थी नामांकन की आस में आवेदन करते हैं। कई सफल भी होते हैं और उसके बाद की एक इच्छा वहां की छात्र राजनीति में नाम-मुकाम बनाने का होता है।

संदीप सौरभ जेनयू में पढ़ने वाले बिहार के मेधावी छात्रों में से एक हैं, जो 2020 में अपने पहले ही चुनावी मुकाबले में पालीगंज से भाकपा (माले) के विधायक चुने गए।

JNUSU के संयुक्त सचिव और लेक्चरर रह चुके हैं संदीप सौरभ 

पटना जिला में मनेर के निवासी संदीप सौरभ सन 2013 में जेएनयू छात्र संघ (जेएनयूएसयू) के संयुक्त सचिव चुने गए थे और राजनीति में आने से पहले लेक्चरर थे। इस बार नालंदा से वे संसद पहुंचने की ताक में हैं, जहां माले का जनाधार तो है, लेकिन चुनाव-दर-चुनाव मात खाने का रिकार्ड भी। बहरहाल, जेएनयू वाले संदीप के संगी-साथी भी जुटे हुए हैं।

राजद के चलते मात खा गए थे कन्हैया 

कन्हैया युवा हैं और वाकपटु भी। यही कारण है कि परिवारवादियों को फूटी आंखों नहीं सुहाते। पिछली बार बेगूसराय संसदीय क्षेत्र में राजद की जिद के कारण त्रिकोणीय संघर्ष में फंसकर मात खा गए। उनसे ढाई गुना अधिक मत लेकर भाजपा के फायरब्रांड गिरिराज सिंह न केवल संसद पहुंचे,बल्कि नई पारी में राज्य मंत्री से कैबिनेट मंत्री के रूप में प्रोन्नति भी पा गए।

पहली पराजय ने कन्हैया को भविष्य के लिए सचेत तो किया ही, कठिन परिश्रम का संदेश भी दिया। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी से कदमताल करके वे उनके दिलअजीज हो गए।

भाकपा की आड़ में राजद ने इस बार भी बेगूसराय में अड़ंगा लगाया। अंतत: कन्हैया को कांग्रेस ने उत्तर-पूर्व दिल्ली के मैदान में उतार दिया। वहां भाजपा से मनोज तिवारी दूसरी बार चुनाव लड़ रहे। दोनों बिहार मूल के हैं, लिहाजा मुकाबला मजेदार हो गया है।

कामयाबी की कड़ियां कई

सन 1969 में जेएनयू की स्थापना हुई थी। उसके बाद से छात्रसंघ के हर चुनाव में बिहार के विद्यार्थियों का बोलबाला रहा। कई बार अध्यक्षता का अवसर भी मिला।

कन्हैया के बाद इसकी नई कड़ी गया जिला के धनंजय हैं, जो इसी वर्ष अध्यक्ष चुने गए हैं। धनंजय जेएनयूएसयू के पहले अध्यक्ष हैं, जो अनुसूचित जाति से आते हैं। कन्हैया 2016 में अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे।

1991-92 में एनएसयूआइ के तनवीर अख्तर अध्यक्ष चुने गए थे। बिहार कांग्रेस के उपाध्यक्ष रहे और विधान पार्षद भी। बाद में वे जदयू में चले गए। कोरोना के कारण 2022 में उनकी अकाल मृत्यु हो गई।

कटिहार जिला में कदवा के विधायक शकील अहमद खान अभी विधानसभा में कांग्रेस के नेता हैं। वे लगातार दो बार जेएनएसयू के अध्यक्ष रहे। उनसे पहले दिग्विजय सिंह का नाम बुलंद हुआ करता था,जो केंद्र में मंत्री भी रहे। हालांकि, वे अगले प्रयास में अध्यक्ष का चुनाव हार गए थे, लेकिन जेएनयूएसयू महासचिव का तमगा उनके साथ टंका हुआ है।

शकील से पहले दो बार अध्यक्ष चुने जाने वालों में बिहार से चंद्रशेखर, रोहित और मोना दास के नाम दर्ज हैं। कन्हैया की तरह चंद्रशेखर के विचार भी जनोन्मुखी थे। लोकप्रियता ऐसी कि सिवान के लोग उन्हें चंदू के नाम से पुकारने लगे थे।

जेएनयू से निकलकर वे सीधे सिवान में राजनीति करने पहुंचे थे, लेकिन 1997 में 31 मार्च को उनकी हत्या हो गई। उनके विचारों और कार्यक्रमों से नि:संदेह असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन इससे सभी सहमत हैं कि उनकी हत्या बिहार में जेएनयू के एक चिराग को बुझा देने की दुस्साहस थी।

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