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Bihar Politics : एक-दूसरे के वोट झटकने की कोशिश में महागठबंधन और NDA, छोटी-छोटी कड़ियों को जोड़ने में जुटे

बिहार में लोकसभा चुनाव 2024 की तैयारी अभी से शुरू हो गई है। सभी दल जातीय समीकरणों को साधने के लिहाज से अपनी जुगत भिड़ा रहे हैं। महागठबंधन और राजग दोनों ही बिना सांसद-विधायक वाली पार्टियों और सामाजिक प्रभाव वाले समूहों को खुद से जोड़ने में जुटे हैं। इन छोटे दलों की भी मंशा खुद को बचाकर चलने और भविष्य में मोलभाव कर लेने की दिख रही है।

By Edited By: Yogesh SahuUpdated: Wed, 12 Jul 2023 01:02 AM (IST)
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Bihar Politics : एक-दूसरे के वोट झटकने की कोशिश में महागठबंधन और NDA, छोटी-छोटी कड़ियों को जोड़ने में जुटे

विकाश चन्द्र पाण्डेय, पटना। दो ध्रुवीय हो चुकी बिहार की राजनीति में एक-एक वोट को सहेजने-संभालने की प्रतिस्पर्द्धा चरम पर है। फिलहाल दोनों गठबंधनों (महागठबंधन और राजग) के बीच कुनबे के विस्तार का प्रयास चल रहा है।

इस कड़ी में पूर्व केंद्रीय मंत्री नागमणि की केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से ताजातरीन मुलाकात को राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) की ओर से बड़ा संदेश देने का प्रयास माना जा रहा है।

दूसरी तरफ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कुछ छोटे दलों और सामाजिक प्रभाव वाले समूहों को महागठबंधन से जोड़ने का संकेत देकर हाशिए पर खड़े क्षेत्रीय क्षत्रपों की आस जगा दी है।

मुख्यमंत्री ने यह संदेश महागठबंधन और उसके बाद जदयू की बैठक में दिया है। ऐसे ही संकेत-संदेश राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद भी अपनी पार्टी नेताओं को दे रहे हैं।

कांग्रेस भी पीछे नहीं, हाथ-पैर मारने लगे दल

राजद और जदयू के बाद महागठबंधन की तीसरी महत्वपूर्ण घटक कांग्रेस भी चाहती है कि दूसरे पाले में जाकर बिखर जाने वाले वोटों को किसी तरह समेट लिया जाए।

दोनों गठबंधनों की आवश्यकता और अपनी राजनीतिक संभावना का आकलन करते हुए सांसद-विधायक रहित ऐसे राजनीतिक दल हाथ-पैर मारने लगे हैं।

उनका प्रयास है कि बड़ी छतरी तले अभी किसी तरह अपना अस्तित्व बचाए रखा जाए, क्योंकि इस बार आर-पार का संघर्ष है। इस संघर्ष में साझीदारी से वे भविष्य के लिए अपनी संभावना सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं।

यहां से हुई जोड़-तोड़ की शुरुआत

इस जोड़-तोड़ की शुरुआत पूर्व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह के पाला बदल से हुआ। जदयू से उपेंद्र कुशवाहा का मोहभंग और महागठबंधन से जीतन राम मांझी के हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) व मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) की विदाई का असली कारण सीटों से जुड़ी उनकी महत्वाकांक्षा है।

हम और वीआईपी के लिए महागठबंधन में सीटों की संभावना बहुत कम थी, जबकि भाजपा इन पार्टियों की कथित जातीय आधार में अपने लिए संभावना देख रही है।

एक सच्चाई यह भी है कि स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने की स्थिति में छोटे दल आज तक कोई उल्लेखनीय प्रदर्शन नहीं कर पाए हैं, भले ही वे बड़े जातीय समूह का प्रतिनिधित्व करते हों।

खाली रह गई झोली

विधानसभा का पिछला चुनाव इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा और लोक जनतांत्रिक पार्टी के राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव आदि की झोली खाली की खाली रह गई थी।

कुशवाहा के 99 में से 94 प्रत्याशी अपनी जमानत गंवा बैठे थे। पप्पू यादव के किसी प्रत्याशी की जमानत नहीं बची। वे 148 सीटों पर उतरे थे।

हालांकि, इन दोनों पार्टियों के खाते में क्रमश: 1.77 और 1.03 प्रतिशत वोट आए थे। 0.05 प्रतिशत वोट पाने वाले नागमणि के भी कुल 22 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई थी।

शीर्ष नेता चल रहे सधा हुआ दांव

इन तमाम समीकरणों को आकलन करते हुए ही दोनों गठबंधनों के शीर्ष नेता सधा हुआ दांव चल रहे हैं। पिछले दिनों पान-तांती सामाजिक सम्मेलन में महागठबंधन के शीर्ष नेताओं की सक्रियता और पिछले दिनों मुख्यमंत्री से पासवान समाज के प्रतिनिधियों की मुलाकात को इसी क्रम में देखा जा रहा है।

वीर कुंवर सिंह के बहाने भाजपा और भामा शाह के हवाले से महागठबंधन द्वारा आयोजित होने वाले समारोहों का लक्ष्य ही संबंधित समाज को अपने से जोड़ने का होता है।