बिहार में विश्वप्रसिद्ध सोनपुर मेले का आगाज, यहां से कभी अंग्रेजों ने खरीदे थे लाखों घोड़े
बिहार का विश्वप्रसिद्ध सोनपुर मेला बुधवार से शुरू हो रहा है। इस मेला का ऐतिहासिक व धार्मिक महत्व है। सदियों पुराने इस मेला का अंग्रेजों ने विस्तार किया। आइए जाने इसकी खास बातें।
By Amit AlokEdited By: Updated: Wed, 21 Nov 2018 04:55 PM (IST)
पटना [जेएनएन]। बिहार के विश्व प्रसिद्ध सोनपुर मेला का उद्घाटन बुधवार की शाम उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने किया। इस मेले का इतिहास सदियों पुराना है, लेकिन अंग्रेजों ने इसे बड़ा रूप दिया। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों ने यहां से डेढ़ लाख से अधिक उन्नत नस्ल के घोड़े खरीदे थे।
उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने किया उद्घाटन गंगा और गंडक के पावन तट पर ऐतिहासिक सोनपुर मेला सज गया है। सजे-धजे घोड़े आकर्षिक कर रहे हैं। थिएटर के गीत दूर से ही बुला रहे हैं। चाट-पकौड़े की सुगंध फैल रही है। रंग-बिरंगी दुकानें भी सज गईं हैं। लोगों के आने का सिलसिला भी तेज हो गया है। बुधवार की शाम उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने मेले का विधिवत उद्घाटन किया।
मूर्तियां बता रहीं ग्रज-ग्राह की लड़ाई हाजीपुर से गंडक पुल पार करते ही ग्रज-ग्राह की प्रतिमा सोनपुर क्षेत्र में होने का अहसास दिलाती है। थोड़ी दिलचस्पी दिखाने पर एक सांस में ग्रज-ग्राह की लड़ाई और भगवान विष्णु के प्रकट होने की कहानी बच्चे-बच्चे तक सुना देंगे। इसके बाद हरिहर नाथ मंदिर और एशिया के सबसे बड़े पशु मेले की जानकारी दी जाएगी।
बाबा हरिहर नाथ पर पुस्तक लिखने वाले ग्रामीण उदय प्रताप सिंह के शब्दों में इस क्षेत्र का बखान पुराण, श्रीमद्भागवत सहित कई धार्मिक पुस्तकों में है। सप्त ऋषियों में दो यहीं गंगा-गंडक के तट पर तपस्या किया करते थे। बाबा हरिहरनाथ मंदिर के सहायक पुजारी सदानंद पांडेय बताते हैं कि पद्म पुराण में हरिहर क्षेत्र का बखान है। पुराण में हरिहर नाथ, कुरुक्षेत्र, बाराह क्षेत्र और मुक्तिनाथ की चर्चा है। इसमें बाराह और मुक्तिनाथ नेपाल में हैं।शैव और वैष्णव संप्रदाय के बीच सौहार्द के लिए बना था मंदिर
सदानंद पांडेय के अनुसार हरिहर नाथ मंदिर की स्थापना शैव और वैष्णव संप्रदाय के बीच सद्भाव के लिए किया था। मंदिर के मुख्य पुजारी सुनील चंद्र शास्त्री का कहना है कि कार्तिक एकादशी से पूर्णिमा तक गंगा-गंडक संगम में स्नान और बाबा हरिहरनाथ पर जलाभिषेक का विशेष महत्व है। आज भी नेपाल, असम, उत्तराखंड आदि से हजारों की संख्या में संत आते हैं। पहले सात दिनों का हरिहर नाथ मेला लगता था। इसमें धार्मिक और व्यावसायिक लाभ के साथ-साथ मनोरंजन आदि की व्यवस्था रहती थी।एक ही शिवलिंग में हैं शिव और विष्णु
बाबा हरिहर नाथ मंदिर में स्थित शिवलिंग विश्व में अनूठा है। यह इकलौता शिवलिंग हैं जिसके आधे भाग में शिव और शेष में विष्णु की आकृति है। मान्यता है कि इसकी स्थापना 14,000 वर्ष पहले भगवान ब्रह्मा ने शैव और वैष्णव संप्रदाय को एक-दूसरे के नजदीक लाने के लिए की थी।मंदिर के मुख्य पुजारी सुशील चंद्र शास्त्री के अनुसार इस क्षेत्र में शैव, वैष्णव और शाक्त संप्रदाय के लोग एक साथ कार्तिक पूर्णिमा का स्नान और जलाभिषेक करते हैं। देश-विदेश में ऐसे किसी पैराणिक शिवलिंग का प्रमाण नहीं है, जिस पर जलाभिषेक और स्तुति से महादेव और भगवान विष्णु दोनों प्रसन्न होते हैं। गंगा-गंडक के तट पर स्नान और धुनी का महत्व कई पुराणों और श्रीमद्भागवत में बताया गया है।
काठ और काले पत्थरों से निर्मित मंदिर बाबा हरिहरनाथ पुस्तक के लेखक उदय प्रताप सिंह के अनुसार 1757 के पहले हरिहरनाथ मंदिर इमारती लकडिय़ों और काले पत्थरों के कलात्मक शिला खंडों से बना था। इनपर हरि और हर के चित्र और स्तुतियां उकेरी गई थीं। उस दरम्यान इस मंदिर का पुनर्निर्माण मीरकासिम के नायब सूबेदार राजा रामनारायण सिंह ने कराया था। वह नयागांव, सारण के रहने वाले थे। इसके बाद 1860 में में टेकारी की महारानी ने मंदिर परिसर में एक धर्मशाला का निर्माण कराया। 1871 में मंदिर परिसर की शेष तीन ओसारे का निर्माण नेपाल के महाराणा जंगबहादुर ने कराया था। 1934 के भूकंप में मंदिर परिसर का भवन, ओसारा तथा परकोटा क्षतिग्रस्त हो गया। इसके बाद बिड़ला परिवार ने इसका पुनर्निर्माण कराया। अंग्रेजी लेखक हैरी एबोट ने हरिहर नाथ मंदिर का भ्रमण कर अपनी डायरी में इसके महत्व पर प्रकाश डाला था। 1871 में अंग्रेज लेखक मिंडेन विल्सन ने सोनपुर मेले का वर्णन अपनी डायरी में किया है।
कभी होता था संतों का शास्त्रार्थ मेला में हाजीपुर तट पर नेपाल के संतों का दल रहता था। सोनपुर तट पर अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार आदि के संत धुनी जमाते थे। 13 भाई त्यागी, 14 भाई महात्यागी और 12 भाई दरिया एक साल की समस्याओं पर शास्त्रार्थ करते थे। चेलों के लिए यह काफी रोचक और ज्ञानवद्र्धन होता था। अब साधु-संतों की संख्या में कमी आई है। बावजूद इसके पांच हजार से अधिक संत पावन संगम पर कार्तिक पूर्णिमा के दिन डुबकी लगाकर बाबा पर जलाभिषेक करते हैं।
अंग्रेजों ने नाम दिया सोनपुर पशु मेला बाबा हरिहरनाथ पुस्तक लिखने वाले और मेला समिति के पूर्व पदाधिकारी उदय प्रताप सिंह बताते हैं कि मेगास्थनीज और फाहियान ने भारत यात्रा के दौरान हरिहरनाथ क्षेत्र की चर्चा की है। अंग्रेजी शासन ने मेले का नाम हरिहरनाथ क्षेत्र मेले से बदलकर सोनपुर पशु मेला कर दिया।
पशु मेले का बड़े स्तर पर अंग्रेजी शासन काल में प्रचार-प्रसार भी किया गया। इसका प्रमुख कारण है कि अंग्रेज बड़े स्तर पर घोड़े और हाथी का उपयोग करते थे। अंग्रेजों ने अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए सोनपुर मेले को बड़ा स्वरूप दिया। मेले में अफगनिस्तान से अरबी घोड़े मंगाए जाते थे। पंजाब और राजस्थान से आज भी घोड़े आते हैं। सामान ले जाने के लिए हाथी, ऊंट और बैल का बड़े स्तर पर उपयोग होता था।
अंग्रेजी शासन काल के रिकॉर्ड के अनुसार प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान डेढ़ लाख से अधिक घोड़े केवल सोनपुर मेले से खरीदे गए थे। दानापुर और रामगढ़ छावनी के लिए अधिसंख्य घोड़े, हाथी और ऊंट का क्रय सोनपुर मेले से ही किया जाता था।अब नहीं दिखते हाथी 45 वर्षों से हरिहरनाथ मेले में आ रहे रामजनकी ठाकुरबाड़ी महुआ के महंत नागफनी दास का कहना है कि समय के साथ बदलाव स्वभाविक है। मठ की कुटिया सैकड़ों वर्षों से लग रही है। कार्तिक पूर्णिमा के एक दिन पहले से 48 घंटे का जप होता है। एक दशक पहले तक मठ का दल हाथी पर सवार होकर आता था। कुछ साल पहले हाथी की मौत हो गई। अब हाथी का स्थान कार ने ले लिया है। दूसरे राज्यों से हाथियों के लाने व उनकी खरीद-बिक्री में कानूनी बाधा भी है। हां, घोड़े आज भी हैं। पूर्णिमा के दिन सभी घोड़ों को मेला क्षेत्र में लाया जाता है।
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