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क्यों ना बात करें? ये हमारी बात है, इसमें शर्म कैसी…

प्रगति पथ पर अग्रसर बिहार में अाज भी महिलाएं अपने शरीर के उस हिस्से को लेकर शर्म महसूस करती हैं और बात करने से कतराती हैं जिसकी वजह से वो मां कहलाती हैं। पढ़िए रिपोर्ट...

By Kajal KumariEdited By: Updated: Fri, 09 Mar 2018 11:43 PM (IST)
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क्यों ना बात करें? ये हमारी बात है, इसमें शर्म कैसी…

 पटना [काजल]। मिस वर्ल्‍ड मानुषी छिल्लर भले ही मासिक धर्म को स्त्री की पहचान व गर्व की बात बताएं, लेकिन इसे लेकर जागरूकता का आज भी अभाव है। ज्यादातर बच्चियां और महिलाएं शर्म की वजह से इस विषय पर खुलकर बात नहीं करतीं। अपने ही शरीर के हिस्से में होने वाले बदलाव में किसी प्रकार की परेशानी हो तो उसे छुपाती हैं। मासिक धर्म या उससे संबंधित बातों पर चर्चा करने से कतराती हैं।इसकी वजह से वे कई गंभीर बीमारियों की शिकार हो जाती हैं।

इस विषय को लेकर जागरूक करती अक्षय कुमार और सोनम कपूर की हालिया फिल्म 'पैडमैन’ को लोगों ने खूब पसंद किया। इसने लोगों की मानसिकता बदली है। पैडमैन की तर्ज पर कई संस्थाओं और कंपनियों द्वारा सस्ते पैड बनाए जा रहे हैं। इसके लिए अभियान भी चलाया जा रहा है।

लेकिन, गांव-गांव में महिलाओं और बच्चियों को जागरूक करने में अभी इसमें वक्त लगेगा। क्योंकि आज भी ये मानसिकता है कि उन दिनों होने वाली परेशानियों को शर्म की वजह से बताना नहीं, पैड खरीदने में संकोच, या दुकानदार भी जब पैड देता है तो उसे काली पॉलिथिन में डालकर, जैसे वह कोई अछूत सी चीज हो। ये मानसिकता आज भी कायम है और अभी इसे बदलने में शायद बहुत वक्त लगेगा।

क्या है मासिक चक्र 

महिलाओं में होने वाला मासिक चक्र एक शारीरिक प्रक्रिया है। 10 से 15 साल के आयु की लड़की का अंडाशय हर महीनेएक विकसित डिंब उत्पन्न करना शुरू कर देता है। वह अंडा फैलोपियन ट्यूब के द्वारा नीचे जाता है जो अंडाशय को गर्भाशय से जोड़ती है। जब अंडा गर्भाशय में पहुंचता है तो वह रक्त और तरल पदार्थ से गाढ़ा हो जाता है और योनिमार्ग से निकल आता है, इसी स्राव को मासिक धर्म या पीरियड्स या माहवारी कहते हैं। 

जागरूकता का अभाव 

यह चक्र हर महीने चलता रहता है। यह चक्र सामान्यत: 28 या 32 दिनों का होता है। इन दिनों महिलाओं और लड़कियों को साफ-सफाई का खास ध्यान रखना चाहिए। लेकिन, भारत जैसे विकासशील देश में माहवारी पर खुलकर बात करने से आज भी महिलाएं और लड़कियां कतराती हैं। इसी वजह से माहवारी और उस दौरान क्या उपयोग करें जिससे सेहत पर असर ना पड़े, इसको लेकर जागरूकता का नितांत अभाव है, जो स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का कारण बनता है। 

बीमार पडतीं 70 फीसद महिलाएं 

डॉक्टर्स का कहना है कि शर्म और संकोच, जानकारी के अभाव की  वजह से करीब 70 फीसद महिलाएं तरह-तरह की बीमारियों से ग्र्रसित हो रही हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार गांवों-कस्बों के स्कूलों की बच्चियां पीरियड्स के दौरान पांच दिनों तक स्कूल नहीं जातीं। यही नहीं, करीब 23 फीसद बच्चियां माहवारी शुरू होने के बाद अपनी पढ़ाई छोड़ देती हैं।
इसे ध्यान में रखकर केंद्र सरकार ने सातवीं और आठवीं क्लास की बच्चियों के लिए साल में 150 रुपये देने की योजना शुरू की है, ताकि वे अपने लिए सेनेटरी नैपकिन खरीद सकें। इसके अलावे बिहार सरकार ने भी मिडिल स्कूल और हाई स्कूल की छात्राओं को मुफ्त सेनिटरी पैड्स देने की योजना भी शुरू की है। 

आज भी करतीं बोरा, राख और पत्ते का इस्तेमाल 
बिहार में ग्रामीण और स्लम इलाके कीमहिलाओं के बीच आज भी एेसी चीजें उपयोग की जाती हैं जिसे सुनकर आपको आश्चर्य होगा। उन दिनों साफ-सफाई के लिए जागरूकता फैला रही सामाजिक संस्था में कार्यरत आकांक्षा भटनागर ने बताया कि जब मैं गावों में गई तो मुझे देखकर आश्चर्य हुआ कि अशिक्षित महिलाएं, जिनके पास पर्याप्त सुविधाएं नहीं, वो गंदे कपड़े, गंदे बोरे के टुकड़े, बड़े-बड़े पत्ते, और कपड़े के बीच में राख भरकर उसे उपयोग में लाती हैं।

यह देखकर ऐसा लगा कि हम स्वच्छता और जागरूकता की जो बातें करते हैं वो कितनी बेमानी हैं। उनके सेहत के लिए ये सब कितना खतरनाक है, इसका अंदाजा उन्हें नहीं। जबतक इन महिलाओं को ये बताया नहीं जाएगा कि वो अपने सेहत से खिलवाड़ कर रही हैं, कैंसर और बच्चेदानी की गंभीर बिमारियों को बुलावा दे रहीं हैं, ऐसा होता रहेगा। 

सामाजिक कार्यकर्ता रीतू चौबे ने बताया कि ग्र्रामीण तबके की महिलाओं का कहना है कि लड़कियों या औरतों को हर महीने साफ कपड़े उपयोग करने की क्या जरूरत, वो तो गंदे ही हो जाते हैं और उन्हें फेंकना ही पड़ता है। जब उनसे पूछा गया कि सेनेटरी पैड के बारे में जानती हैं तो उन्हें इसका नाम भी पता नहीं। इस बारे में बात करने से लड़कियां शर्माती रहीं और खुलकर नहीं बताया। 

वहीं शहरी इलाके में सरकारी स्कूल में पढऩे वाली बच्चियों को एक बार सेनेटरी पैड मुफ्त देने वाली कंपनी में कार्यरत नेहा गोस्वामी ने बताया कि मैं भी लड़की हूं लेकिन जब हमने इन लड़कियों से बात की तो उन्होंने बताया कि उनके घर में मां-दादी, भाभी-चाची का कहना है कि हमने तो कपड़ा ही लिया और तुम्हें अब सेनेटरी पैड चाहिए, इसमें पैसे नहीं लगते क्या? जो दे रहे हैं वही यूज करो। इसके लिए पैसे लगाना फिजूल की बात है। 

आज भी मात्र 12 से 18 फीसद महिलाएं करतीं सेनेटरी पैड का इस्तेमाल 

नेहा गोस्वामी ने बताया कि आज पूरे देश में 12 से 18 फीसद महिलाएं ही जागरूक हैं और सेनेटरी पैड का इस्तेमाल करती हैं। बिहार की बात करें तो शहरी इलाके में 10 में से छह महिलाएं और लड़कियां ही सेनेटरी पैड का इस्तेमाल करती हैं।

ग्र्रामीण इलाके में तो 10 में से तीन महिलाएं और लड़कियां ही सेनेटरी पैड को जानती हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं, लड़कियों में अपनी साफ-सफाई के प्रति जागरूकता की कितनी कमी है। 

पर्सनल हाइजीन को ले जागरूकता जरूरी 

पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल के स्त्री व प्रसूति विभाग में कार्यरत डॉक्टर अनुपमा ने बताया कि शहरी क्षेत्र की महिलाएं तो फिर भी पर्सनल हाइजीन के बारे में जानती हैं, लेकिन ग्र्रामीण महिलाओं में जागरूकता की काफी कमी है। इसकी ये वजह भी है कि उनके पास साधनों की कमी है। उनके पास धन की कमी होती है, लेकिन उन्हें हम साफ-सफाई के बारे में तो बता ही सकते हैं।

उन्हें पीरियड्स के दिनों में पुराने साफ व सूखे कपड़े इस्तेमाल करने की सलाह तो दी ही जा सकती है। वे इस कपड़े को दोबारा इस्तेमाल के पहले फिर साफ कर धूप में अच्छे से सुखा लें। 

उन्होने बताया कि शहरी इलाके की भी लड़कियां अपनी पर्सनल हाइजीन के प्रति लापरवाह रहती हैं। अपने शरीर के हिस्सों के बारे में ठीक से नहीं बता पातीं। इसका कारण है कि परिवार में हम बच्चियों को इस बारे में बताते नहीं हैं। समझाते नहीं हैं कि उन्हें किस तरह साफ-सफाई रखनी चाहिए। यही वजह है कि उन्हें इंफेक्शन हो जाता है और वो तरह-तरह की बीमारियों की शिकार हो जाती हैं। 

पर्सनल सफाई पर ध्यान नहीं देने की वजह से ही महिलाओं और लड़कियों में गर्भाशय की समस्या के साथ ही कई तरह की गंभीर बीमारियां जकड़ लेती हैं और अगर उनका सही इलाज ना हो तो फिर ये विकराल रूप भी ले सकती हैं। 

सेनेटरी नैपकिन के साथ भी हैं ये समस्याएं 
शोध बताते हैं कि आज जो महिलाएं और लड़कियां बाजार में बिक रहे तरह-तरह के सेनेटरी नैपकिन का प्रयोग कर रही हैं, जिससे उन दिनों में वो सुरक्षित तो महसूस करती हैं। लेकिन वे ये नहीं जानतीं कि इनमें प्रयुक्क्त कुछ रासायनिक पदार्थ उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। इन्हें रिसाइकिल नहीं किया जा सकता है और खुले में फेंकने की वजह से ये पर्यावरण के लिए भी हानिकारक हैं। 

दरअसल, सेनेटरी पैड को डिस्पोज करने पर किसी का ध्यान नहीं गया। यह देश व राज्य की ही नहीं,एक अंतरराष्ट्रीय समस्या बन गई है। अमेरिका के उत्तरी कैरोलिना में स्थित गैर लाभकारी संगठन आरटीआई इंटरनेशनल के वरिष्ठ निदेशक माइल्स एलेज के अनुसार मासिक धर्म से संबंधित कचरे के डिस्पोजल के मुद्दे पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि अगर हम इस समस्या से नहीं निपटते तो हमारे पास बहुत सारा नॉन बायोजीग्र्रेडेबल कचरा जमा हो जाएगा। 
फिल्म 'पैडमैन’ से आई जागरूकता 
हाल ही में अक्षय कुमार और सोनम कपूर की फिल्म आई थी पैडमैन, जिसे लोगों ने खूब पसंद किया। इस फिल्म ने अच्छा संदेश  दिया और इसने लोगों की मानसिकता को बदला। आज पैडमैन की तर्ज पर कई संस्थाओं और कंपनियों द्वारा सस्ते पैड बनाए जा रहे है। इसके लिए अभियान भी चलाया जा रहा है कि गांव-गांव जाकर महिलाओं और बच्चियों को जागरूक किया जाए। लेकिन अभी इसमें वक्त लगेगा। 

पर्यावरण समर्थकों का ऐसे पैड पर जोर 
आज के बदलते दौर में पर्यावरण के समर्थक दोबारा इस्तेमाल में लाए जा सकने वाले कपड़े के पैड व बायोडिग्र्रेडेबल पैड  के इस्तेमाल पर जोर दे रहे हैं, जो स्वास्थ्य के हित में है। आज ये बात भी  सामने आई है कि पुरानी पद्धति के तहत पुराने कपड़े के बने सेनेटरी पैड अगर बेहतर तरीके से इस्तेमाल किए जाएं तो सबसे सुरक्षित हैं। साथ ही ये पर्यावरण के लिए भी सही हैं। 

बिहार में सस्ते नैपकिन का निर्माण आरंभ 

आजकल बिहार में कई संस्थाएं हैं जिन्होंने सस्ते दर पर कपड़े की सेनेटरी नैपकिन बनाने का काम शुरू किया है। इसके साथ ही अब जूट से बने सेनेटरी नैपकिन भी बाजार में उपलब्ध हैं। अब अपने शरीर और इससे जुड़ी बातों को बताने में शर्म नहीं, गर्व होना चाहिए। 

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