बिहार की सियासत में 'फैमिली फर्स्ट'
बिहार की सियासत में वंशवाद कोई नई बात नहीं। मौका मिलते ही नेता अपनी विरासत संतान को सौंपने के लिए बेताब दिखते हैं। कुछ क्षेत्रीय दल तो परिवार की पार्टी बन गए हैं।
By pradeep Kumar TiwariEdited By: Updated: Mon, 22 Jun 2015 09:58 AM (IST)
पटना [अरविंद शर्मा]। बिहार की सियासत में वंशवाद कोई नई बात नहीं। मौका मिलते ही नेता अपनी विरासत संतान को सौंपने के लिए बेताब दिखते हैं। कुछ क्षेत्रीय दल तो परिवार की पार्टी बन गए हैं।
इसमें जिसमें बेटा-बेटी और भाई-भतीजा के साथ समधी-समधिन के लिए भी जगह सुरक्षित रहती है। इसके बाद जगह बचती है, तो कार्यकर्ता स्थान पाते हैं। पार्टियों में परिवार को सबसे अधिक प्रमुखता मिलती है। इस चुनाव में भी बेटों, भतीजों, पत्नियों समेत नजदीकी रिश्तेदारों को टिकट देने और दिलाने के लिए लामबंदी शुरू हो गई है। राजनीति में वंश को विरासत सौंपने कांग्रेस में शुरू हुआ। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अपने शासनकाल में ही इंदिरा प्रियदर्शिनी को कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवा दिया था।
इंदिरा गांधी के समय में ही उनके पुत्र संजय गांधी का पार्टी में महत्व बढ़ा। इंदिरा की हत्या के बाद कांग्रेस ने अपना और देश का नेता राजीव को चुन लिया। फिर सोनिया और अब राहुल गांधी। इस परिपाटी से बिहार भी अछूता नहीं रहा। राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह और समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर ने इस मर्ज से परहेज किया। पुत्रों को राजनीति में नहीं आने दिया, किंतु बाद में स्थिति बदल गई।
श्रीकृष्ण सिंह के पुत्र बंदीशंकर सिंह विधायक भी बने और बिहार सरकार में मंत्री भी। कर्पूरी के पुत्र रामनाथ ठाकुर ने भी पिता के प्रताप से मंत्री पद तक हासिल किया। कांग्र्रेस में जिस परंपरा की शुरुआत प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने की थी, उसे बिहार में कांग्र्रेस के दो दिग्गज ललित नारायण मिश्र और अनुग्र्रह नारायण सिंह ने आगे बढ़ाया। पूर्व मुख्यमंत्री हरिहर सिंह के पुत्र मृगेंद्र प्रताप सिंह और उनके भाई अमरेंद्र प्रताप सिंह ने भी अलग-अलग राज्यों में राजनीति में अच्छा नाम कमाया। टाटा कर्मचारी यूनियन का नेतृत्व करते करते मृगेंद्र झारखंड में विधानसभा के अध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचे। अमरेंद्र बिहार भाजपा में ऊंचे ओहदे पर हैं। कांग्र्रेस के बुजुर्ग नेता एलपी शाही की बहू वीणा शाही भी कई दलों में सक्रिय रही हैं। बिहार विभूति अनुग्र्रह नारायण सिंह के पुत्र सत्येंद्र नारायण सिंह मुख्यमंत्री बने। परंपरा आगे बढ़ी। उनके भी पुत्र निखिल कुमार औरंगाबाद से सांसद एवं बाद में राज्यपाल पद तक पहुंचे। जब वह दिल्ली पुलिस की नौकरी में थे तो पत्नी श्यामा सिन्हा औरंगाबाद की सांसद थीं। कद्दावर कांग्र्रेसी नेता ललित नारायण मिश्र का परिवार सियासत में कभी पीछे नहीं रहा। भाई मृत्युंजय मिश्र भाजपा में सक्रिय थे, किंतु दूसरे भाई जगन्नाथ मिश्र तो बेहद प्रभावी रहे। दो-दो बार मुख्यमंत्री रहे। आज भी सक्रिय हैं। अब तो दोनों भाइयों के पुत्रों ने भी सदन तक की दूरी तय कर ली है। जगन्नाथ मिश्र के पुत्र नीतीश मिश्र जदयू सरकार में मंत्री थे। अभी जीतनराम मांझी के साथ हैं। इसी तरह ललित नारायण के पुत्र विजय मिश्र एमएलसी हैं और उनके पुत्र ऋषि मिश्र भी जदयू की ओर से विधानसभा के सदस्य हैं। प्रारंभ में जगदीश शर्मा के पुत्र को विधानसभा में टिकट न देकर नीतीश कुमार ने अपने दल को वंशवाद के आरोपों से काफी हद तक बचाया, किंतु जोड़-जुगाड़ के चक्र से कोई कब तक बच सकता है। औरंगाबाद के सांसद (अब भाजपा) सुशील सिंह के भाई को टिकट नहीं दिया तो वह राजद के टिकट पर लड़े। काराकाट के सांसद महाबली सिंह कुशवाहा के पुत्र को भी राजद से ही टिकट लेना पड़ा। विधायक मुन्ना शुक्ला के सामने कानूनी अड़चन आई तो उनकी पत्नी अन्नु शुक्ला को टिकट दे दिया गया। वह विधायक भी बन गईं। पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह के दो-दो पुत्र भी जदयू से ही विधायक हैं। नरेंद्र मांझी खेमे में चले गए तो पुत्र भी मददगार हो गए। मांझी ने अपनी समधिन ज्योति मांझी को पहले ही विधायक बना रखा है। अब पुत्र संतोष भी कतार में हैं। समाजवादी नेता जगदेव प्रसाद वर्मा के पुत्र नागमणि और उनकी पत्नी सुचित्रा सिन्हा को भी जदयू से टिकट मिलता रहा है। हालांकि नागमणि को बारी-बारी से कांग्रेस, राजद, जदयू टिकट दे चुके हैं। लोजपा तो रामविलास पासवान की जागीर की तरह है। सारे पद भी परिवार के लोग ही संभालते हैं। रामविलास राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। दूसरे भाई पशुपति कुमार पारस प्रदेश अध्यक्ष और तीसरे भाई संसदीय दल के नेता। अब पुत्र चिराग भी संसद में पहुंच चुके हैं। लालू प्रसाद की पार्टी राजद में तो वंशवाद के आरोपों पर घमासान हो चुका है। ऐसे आरोप लगाने वाले सांसद पप्पू यादव को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। 1997 में जब लालू को जेल जाने की नौबत आई तो पत्नी राबड़ी देवी को सीएम बना दिया।बड़े-बड़े नेता दरकिनार हो गए। रिश्तेदार साधु और सुभाष यादव भी सांसद हो गए। कानूनी अड़चन से लालू प्रसाद के चुनाव लडऩे पर रोक लगी, तो उन्होंने इस बार के लोकसभा चुनाव में अपनी पुत्री मीसा भारती को पाटलिपुत्र से टिकट दे दिया। समय-समय पर पुत्र तेजस्वी और तेजप्रताप को भी वे राजनीतिक मंच पर लाते रहते हैं। शकुनी चौधरी ने भी बहती गंगा में हाथ धोया। बेटे सम्राट को पहले विधायक, फिर मंत्री भी बनवाया। राष्ट्रीय स्तर पर आदर्श की बात करने वाली भाजपा भी बिहार में इस मर्ज से उबर नहीं सकी। सीपी ठाकुर के दबाव के आगे उनके पुत्र विवेक को विधान पार्षद बनाना पड़ा। हुकुमदेव नारायण यादव के पुत्र अशोक यादव विधायक बन चुके हैं।
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