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अस्तित्व और पहचान के संकट से जूझ रहा वनवासी समुदाय, लोकगीतों में मिलता है सदियों पुराना गौरवशाली इतिहास

वनवासी समाज ने अपनी सभ्यता और संस्कृति की धरोहरों को युगों से संजोया हुआ है। सभ्यता और संस्कृति के विकास में इनकी भूमिका मुख्यधारा से अधिक प्राचीन व वास्तविक है। फिर भी आज ये लोग मुख्य धारा से अलग अस्तित्व व पहचान के संकट से जूझ रहे हैं। रोहतासगढ़ किला इनकी अप्रतिम धरोहर है जिसका उल्लेख कुडुख गीतों में मिलता है।

By praveen kumar Edited By: Mohit Tripathi Updated: Fri, 29 Dec 2023 04:06 PM (IST)
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वनवासी समुदाय के गौरवशाली इतिहास का प्रतीक रोहतासगढ़ किला। (जागरण फोटो)

प्रवीण दूबे, सासाराम/रोहतास। वनवासी समाज ने अपनी सभ्यता और संस्कृति की धरोहरों को युगों से संजोया हुआ है। सभ्यता और संस्कृति के विकास में इनकी भूमिका मुख्यधारा से अधिक प्राचीन व वास्तविक है। फिर भी आज ये लोग मुख्य धारा से अलग अस्तित्व व पहचान के संकट से जूझ रहे हैं।

रोहतासगढ़ किला इनकी अप्रतिम धरोहर है, जिसका उल्लेख कुडुख गीतों में मिलता है। यह समाज आज भले अभावग्रस्त हो दूर पहाड़ी इलाकों में आधुनिक सुख-सुविधाओं के अभाव में जीवनयापन कर रहा है, लेकिन इनका इतिहास शानदार रहा है।

आदिवासी महिलाओं के शौर्य का है वर्णन

12वीं सदी में उरांव जनजाति की महिलाओं ने दुश्मनों से तीन लड़ाइयां लड़ी थीं और तीनों में उन्हें जीत मिली थी। वह भी तब, जब पुरुषों की सेना दुश्मन सेना से हार गई थी। उस जीत की स्मृति में हर 12 वर्ष में एकबार महिलाएं जनी शिकार करती हैं।

रोहतासगढ़ तीर्थ मेला के दौरान माथे पर पगड़ी, तीन जीत की याद में माथे पर तीन तिलक व हाथ में तलवार लेकर जंगल में निकलती हैं और रास्ते में सांकेतिक शिकार करती हैं।

उरांवों के एक पारंपरिक गीत के अनुसार एक लड़ाई भेल सई या दुई लड़ाई भेल रे, तीन लड़ाई जीतला बइनी हो..। उरांवों के एक अन्य गीत के अनुसार बारह बछारे राजा जनी शिकार, गोड़ घुंघर राजा हाथ तलवार, बइनी का मुड़े राजा पगड़ी बांधय..में भी इसका उल्लेख है। यानि राजा ने स्वयं पैरों में घुंघुरू बांधने वाली सुकुमारियों के सिर पर पगड़ी बांधी।

आदिवासियों का है गौरवशाली इतिहास का वर्णन

उरांव जनजातियों के कुडुख लोकगीतों में रोहतासगढ़ को उरांव राजाओं की धरोहर कहा गया है। इन गीतों में रोहतासगढ़ को रुइदास कहा गया है। उरांव जनजाति आदिकाल से ही रोहतासगढ़ को अपनी राजधानी मानते हैं।

जनजातियों के एक लोकगीत में कहा गया है कि रुइदास में सिराजलेरे मैंना, नगापुरे अंडा पाराए पाराए। या रुइदास पटना से उड़ ले रे मैना, नगापुर अंडा पराय।

यानि मैना (उरांव जाति) तुम्हारा सृजन कहां हुआ और तुमने अंडा यानी अपनी संतान कहां पैदा किया? तुम्हारा रुइदास में सृजन हुआ और नगापुर (छोटानागपुर) में अंडा दिया यानी तुम्हारी संतति का विस्तार हुआ।

पहचान बचाने को संघर्ष कर रहा आदिवासी समाज

मुख्य समाज से दूर पहाड़ी इलाकों में पहचान बचाने को संघर्ष कर रहे इस समाज को सुविधाओं की दरकार है। हालांकि रोहतास गढ़ किला के समीप बभन तलाब में गुरुवार को मोबाइल टावर लगने से शेष दुनिया से इन्हें संपर्क बढ़ाने में सहूलियत मिलेगी।

लोग इनकी संस्कृति, सभ्यता एवं गौरवशाली इतिहास के बारे में जान सकेंगे, लेकिन पहाड़ी पर बसे अभी भी लगभग तीन दर्जन गांव इंटरनेट सुविधा से वंचित हैं।

क्या कहते कहते हैं लोग

बभन तलाब निवासी विजय भुइयां, बाबूराम यादव, मोती उरांव, नागाटोली निवासी सत्येंद्र उरांव समेत अन्य का कहना है कि अभी पहाड़ी पर पहले से महज तीन स्थानों रेहल, सोली व धनसा में बीएसएनएल के मोबाइल टावर लगे हैं, जिनसे लगभग 20-22 टोलाें को नेटवर्क मिल पाता है।

अब बभन तालाब में टावर लगने से छह और गांवों को यह सुविधा मिलने लगी है। उम्मीद है कि आने वाले दिनों में शेष बचे 35-36 गांवों को भी संचार माध्यम उपलब्ध हो जाएगा।

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