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उग्र विपदा में भक्तों का उद्धारक है मां उग्रतारा

सहरसा। श्री उग्रतारा महोत्सव के दूसरे दिन मंगलवार को आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार में अ

By JagranEdited By: Updated: Tue, 01 Oct 2019 06:27 PM (IST)
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उग्र विपदा में भक्तों का उद्धारक है मां उग्रतारा

सहरसा। श्री उग्रतारा महोत्सव के दूसरे दिन मंगलवार को आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार में अतिथियों ने तारा के संबंध में अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि यहां स्थित मां उग्रतारा मोक्षदायणी और बह्मास्वरूपिणी है। राष्ट्रीय सेमिनार का उद्घाटन कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. देवनारायण झा, निर्मल संस्कृत महाविद्यालय वाराणसी के प्राचार्य पंडित नारायण पाठक, अशोक राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान जगन्नाथपुरी के डॉ. उदयनाथ झा, आरएम कॉलेज के प्राध्यापक डॉ. रामचैतन्य धीरज, एडीएम धीरेन्द्र झा, सदर एसडीओ शंभूनाथ झा ने संयुक्त रूप से दीप प्रज्ज्वलित कर किया। सेमिनार के प्रथम दिन डॉ. उदयनाथ झा की अध्यक्षता में शक्तिपीठ मां उग्रतारा के संबंध में वक्ताओं ने अपने विचार रखे। अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने कहा कि आगम रहस्य में तारा को काली का कुल माना जाता है। उग्र विपदाओं से उद्धार करने के कारण इन्हें उग्रतारा कहा जाता है। ये विभिन्न तापों से भी उद्धार करती हैं। महाकाल की अद्र्धागिनी है भगवती तारा। बौद्ध साहित्य में अवलेकेश्वर के नाम से तारा को जाना जाता है। काली से कुशलता की कामना तो तारा से अर्थ की कामना की जानी चाहिए। इस दौरान कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति देवनारायण झा ने कहा कि तारा बह्मास्वरूपिणी, मोक्षदायिणी है। ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं है। नियंत्रित धन ही सुखदायिणी है। जीव अपज्ञ है जबकि बह्मासर्वज्ञ होता है। जीव के मार्ग अलग हो सकते हैं लेकिन लक्ष्य मुक्ति प्राप्त करना होता है। यह सप्तऋषियों का प्रदेश रहा है। मुनि वशिष्ठ ने ब्रह्मा के आदेश से तारा की आराधना की। जब भगवती यहां पहुंची तो इस प्रदेश की रमणीयता को देख यहां रहने की इच्छा जाहिर की। चितनारायण पाठक ने कहा कि ब्रह्मा ज्ञान और मोक्ष दो सबसे दुर्लभ मानी जाती है। जीव का उद्देश्य इन दुर्लभ वस्तुओं की प्राप्ति है। तंत्र विधि के संबंध में बताते हुए कहा कि ज्ञान कांड, उपासनाकांड फिर कर्मकांड की साधना कर तंत्र की साधना कर सकते हैं। तंत्र में तारा को कृष्ण का स्वरूप बताया गया है जो शुद्ध ज्ञान का रूप है। इस दौरान राम चैतन्य धीरज ने अपने संबोधन में कहा कि महान इच्छाओं को तृप्त करने वाली माहिष्मती आगम निगम के ज्ञान का केन्द्र रही है। आगम स्वत: प्रमाणवाद है जबकि निगम को परत: प्रमाणवाद माना जाता है। जबकि दोनों का लक्ष्य ज्ञान प्राप्ति है। आत्मज्ञान सर्वोपरि है यही तारा है। इस दौरान दरभंगा संस्कृत महाविद्यालय के नंदकिशोर चौधरी, वाचस्पति झा, न्यास समिति के सचिव पीयुष रंजन, उपाध्यक्ष प्रमील मिश्र, सबिता मिश्र, शांति लक्ष्मी चौधरी, मुक्तेश्वर मुकेश, नगर परिषद के कार्यपालक पदाधिकारी प्रभात रंजन, डीसीएलआर राजेन्द्र दास सहित कई विद्यालय के शिक्षक व ग्रामीण उपस्थित थे।

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