सालों से बंद पड़ी चीनी मिल की जमिन आखिरकार बिक गई है। बताया जा रहा है कि उसके जमीन के ज्यादा पैसे भी नहीं मिले हैं। अब उस जमीन पर कांप्लेक्स बनाने का इरादा है। चीनी मिल की जमीन को पहले विनसम इंटरनेशनल लिमिटेड नाम की एक कंपनी को बेचा गया था। आज तक लोगों को समस्तीपुर में उद्योग शुरू होने का आस है।
प्रकाश कुमार, समस्तीपुर। वर्षों से बंद समस्तीपुर चीनी मिल की जमीन कौड़ियों के भाव में बिक गई लेकिन, जनता अब भी पूछती है कि इस जमीन पर उद्योग कब खुलेंगे। चुनावी वादों और दावों की पोल खोल रही यह चीनी मिल की जमीन आज भी अपने ऊपर औद्योगिक इकाई को स्थापित करने वाले तारणहार के इंतजार में है।
हर चुनाव में किसानों और बेरोजगारों के हित में इन्हें चालू कराने के वादे किए जाते रहे लेकिन, जीत के बाद मजबूरियों का हवाला भी दिया जाता है। इस बार भी मुद्दों के हवाले से इन मिलों का जिक्र छिड़ा है।
विदित हो कि चीनी मिल की जमीन को पूर्व में विनसम इंटरनेशनल लिमिटेड को बेच दिया गया था। अब यहां पर मार्केट कांप्लेक्स खोलने की चर्चा चल रही है।
उद्योग धंधों की कमी, कृषि प्रधान जिले में कृषि संबंधी बाजार और इसका हब बनाए जाने की आस लिए इस बार भी मतदाता वोट के लिए हुंकार भर रहे हैं। प्रत्याशियों के गुण-दोष बहस का हिस्सा बने हैं। लोग स्थानीय मुद्दों को नकारते हुए देश स्तर पर ही इस चुनाव के संपन्न होने की बात कह रहे।
समस्तीपुर के लिए लाइफ लाइन मानी जाने वाली चीनी मिल वर्ष 1995 में बंद हो गई। राज्य सरकार ने 2006 में वारिसलीगंज के अलावा बनमनखी, हथुआ, गुरारू, गोरौल, सिवान, समस्तीपुर और लोहट चीनी मिल को दीर्घकालिक लीज पर चलाने के लिए निजी निवेशकों से टेंडर भी मंगाए, लेकिन ऐसा कोई सामने नहीं आया।
इस कारण इन्हें चलाने का निश्चय सरकार ने त्याग दिया। बाद के दिनों में इस मिल की संपत्ति व जमीन को नीलाम किया जाने लगा। इसमें समस्तीपुर चीनी मिल की जमीन भी नीलाम हो गई। नीलामी की पूरी राशि का भुगतान नहीं किया गया। इस कारण आज भी मजदूरों के बकाए का भुगतान नहीं हो पाया।
मंत्री ने डेढ़ साल पहले उठाया था सवाल
डेढ़ साल पूर्व दैनिक जागरण के मंथन कार्यकम में बिहार सरकार के मंत्री महेश्वर हजारी ने समस्तीपुर चीनी मिल की जमीन को कौड़ियों के भाव में बेचने की बात कही थी। उन्होंने उस समय उद्योग मंत्री से इस मामले की जांच कराने की मांग की थी। साथ ही कहा था कि इसके लिए मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री से भी बात करेंगे।उन्होंने कहा कि जब वे मंत्री थे उस समय चीनी मिल की जमीन बेचने से संबंधित मामले की जांच कर रहे थे। उसी समय सरकार बदल गई थी। हालांकि, बाद में उनका बयान भी ठंडे बस्ते में चला गया।
1917 में अंग्रेज सरकार ने शुरू किया था चीनी मिल
समस्तीपुर शहरी क्षेत्र में चीनी मिल की नींव अंग्रेजों के शासनकाल में ही डाली गई थी। वर्ष 1917 में स्थापित इस मिल का प्रारंभिक दौर जहां स्वर्णिम रहा है, वहीं आज मिल से जुड़े दर्जनों परिवार को जीवन यापन के लिए काफी परेशानी झेलनी पड़ रही है।वेद सदर लैंड कंपनी के नाम से शुरू इस मिल का संचालन अंग्रेज सरकार द्वारा ही होता रहा। तब इसकी क्षमता का सही मायने में उपयोग कर कंपनी जहां करोड़ों के वार्षिक मुनाफे में रहती थी। जिससे उस समय सैकड़ों लोगों को रोजगार उपलब्ध था।
कर्पूरी ठाकुर ने मील चालू करने को नेहरू जी से की थी मुलाकात
समाजसेवी अशोक पांडेय बताते है कि आजादी के बाद कंपनी ने इसे एक उद्योगपति के हाथों बेच दिया। अग्रवाल एंड कयान्स ब्रदर्स नाम से संचालित यह मिल किसी तरह डेढ़ दशक तक अपनी चिमनी से धुआं उड़ाता रहा। परंतु 1962-63 में प्रबंधन ने अपने हाथ खड़े करते हुए मिल में तालाबंदी की घोषणा कर दी थी।तब मिल से जुड़े लोगों के शिष्टमंडल ने बिहार विधानसभा में तत्कालीन प्रतिपक्ष के नेता जननायक कर्पूरी ठाकुर के साथ प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से भी मुलाकात की थी।
जनहित को लेकर मिल को केंद्र सरकार के अधीन ले लिया गया था। वर्ष 1972 तक केंद्र सरकार ने इसे चलाकर राज्य सरकार के हवाले प्रबंधन का जिम्मा दे दिया था। तब बिहार सरकार ने 1972 से स्थानीय बोर्ड बनाकर प्रबंधन करना शुरू किया।
1997 में चीनी मिल में बंद हुआ था उत्पादन कार्य
वर्ष 1976 में चीनी अर्जन विधेयक में चीनी निगम स्थापित हो गई। जिसमें चीनी मिल का अधिग्रहण कर प्रबंधन का कार्य चीनी निगम को सौंप दिया गया था। 1976 से 1997 तक चीनी निगम के अधीन इसका संचालन होता रहा। वर्ष 1997 में ही निगम ने मिल में उत्पादन कार्य बंद कर दिया।
900 कर्मियों को मिलता था रोजगार
चीनी मिल के स्थापना काल में 900 लोगों को रोजगार मिला करता था। हालांकि, बंदी के बाद कर्मी दूसरे जगहों पर रोजगार में जुट गए। काफी संख्या में लोगों को वेतन नहीं मिल सका।शुरुआती दिनों में 8 हजार क्विंटल प्रतिदिन पेराई होती थी। बाद के दिनों में मिल में नई तकनीकों का उपयोग नहीं करने की वजह से पेराई क्षमता घटने लगी। जिसके साथ ही उत्पादन का खर्च भी बढ़ने लगा था।
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