Supaul News: बाढ़ में लहरों की हिचकोले लेती है कोसी के लोगों की जिंदगी, पलायन करने लगते हैं मजबूर लोग
Supaul News एक जून से कोसी में बाढ़ की अवधि प्रारंभ हो जाती है। 15 सितंबर तक बाढ़ की अवधि मानी जाती है। बाढ़ की अवधि प्रारंभ होते ही कोसी वासियों की जिंदगी लहरों सी हिचकोले लेती रहती है। गांवों में पानी घुसते ही ऊंचे स्थानों पर पलायन के लिए तैयारी प्रारंभ हो जाती है। कोसी के लोग अपनी जरूरत के सामान की गठरी तैयार रखते हैं।
भरत कुमार झा, सुपौल। Supaul News: एक जून से कोसी में बाढ़ की अवधि प्रारंभ हो जाती है। 15 सितंबर तक बाढ़ की अवधि मानी जाती है। बाढ़ की अवधि प्रारंभ होते ही कोसी वासियों की जिंदगी लहरों सी हिचकोले लेती रहती है। गांवों में पानी घुसते ही ऊंचे स्थानों पर पलायन के लिए तैयारी प्रारंभ हो जाती है।
कोसी के लोग अपनी जरूरत के सामान की गठरी तैयार रखते हैं। छोटे-छोटे बच्चों को अपने रिश्तेदारों के घर शिफ्ट करने की भी तैयारी रहती है। भेड़-बकरी पालने वाले तो पानी का रूख भांप पहले ही इसकी बिक्री कर लेते हैं। कोसी कटाव के लिहाज से दुनिया की दूसरी सबसे खतरनाक नदी मानी जाती है।
बार-बार अपनी धारा बदलती कोसी
यह बार-बार अपनी धारा बदलती रहती है। इसके कटाव के कारण कई गांवों के नाम-ठिकाने तक मिट चुके हैं। तटबंध में बंधने के बाद भी लगभग तीन लाख की आबादी इसके अंदर निवास करती है। बारिश के दिनों में जहां ये लोग जलप्रलय झेलते हैं वहीं पानी कम होने पर इन्हेंं कटाव से दो-चार होना पड़ता है।यूं कह लें तो कोसी के गांवों में आज भी कोसी की ही हुकूमत चलती है। यहां के लोगों की पूरी दिनचर्या ही कोसी पर निर्भर है। हर साल यहां बनते बिगड़ते भूगोल के बीच जीवन बसर करना उनकी नियति बन चुकी है। सीमित संसाधनों में जीना यहां मजबूरी है। नदी की धार के हिसाब से इनका ठौर बदलता रहता है। आज जो गांव जहां है जरूरी नहीं कि अगले वर्ष भी वहीं मिले।
जून का महीना आते ही बजने लगती खतरे की घंटी
कोसी के दोनों तटबंधों के अंदर लगभग चार सौ गांव हैं। यहां लगभग तीन लाख की आबादी बसती है। कोसी की धारा हमेशा बदलती रहती है। नतीजा होता है कि इन गांवों का भूगोल भी बदलता रहता है। जून का महीना शुरू होते ही खतरे की घंटी बजने लगती है और अंदर बसी आबादी सुरक्षित ठौर की तलाश में जुट जाती है। साल के छह महीने उन्हेंं निर्वासित जिंदगी गुजारनी पड़ती है।तटबंध निर्माण के साथ ही इन्हें पुनर्वासित किए जाने की योजना बनी, लेकिन पूरी आबादी को यह सुविधा नहीं मिल सकी। आर्थिक पुनर्वास का वादा भी खोखला साबित हुआ। अधिकारियों की मानें तो इन्हें तटबंध के अंदर रहना ही नहीं है। ये लोग अपनी माटी का मोह नहीं छोड़ पाते हैं। इनकी जीविका का मुख्य साधन खेती-बारी भी तटबंध के अंदर ही है।
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