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जंग-ए-आजादी में योगेंद्र शुक्ल ने किया था जान कुर्बान

वैशाली। शहीदों के मजारों पर हर बरस लगेंगे मेले वतन पे मरने वालों का बाकि यही निशां हा

By Edited By: Updated: Fri, 21 Aug 2015 10:28 PM (IST)
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वैशाली। शहीदों के मजारों पर हर बरस लगेंगे मेले वतन पे मरने वालों का बाकि यही निशां होगा। लालगंज के जलालपुर गांव में शुक्रवार को दशकों बाद ऐसा मंजर तब देखने को मिला जब सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यहां शेरे बिहार योगेंद्र शुक्ल की प्रतिमा का अनावरण किया। इसी गांव से जंग-ए-आजादी के एक और सपूत ने युवा अवस्था मे ही अपनी जान मुल्क के नाम कर दी थी। जिनका नाम है स्व. बैकुंठ शुक्ल।

लालगंज के जलालपुर गांव में विधान पार्षद देवेश चंद्र ठाकुर के सौजन्य से बैकुंठ शुक्ल की प्रतिमा का निर्माण कराया गया था। वर्षो पहले नीतीश कुमार ने ही उसका भी अनावरण किया था। लालगंज के लोग इस बात से बेहद खुश हैं, भले ही एक दशक बाद ही सही सत्ताधारियों को मुल्क के इस जाबांज सपूत की याद तो आयी। योगेंद्र शुक्ल का जन्म 30 अक्टूबर 1898 को विजयादशमी के दिन एक मामूली किसान परिवार में हुआ था। मां-बाप के इकलौते लाडले योगेंद्र शुक्ल के पिता का नाम था नन्हकू शुक्ल। शेरे बिहार के चाचा विभिषण शुक्ल ने भतीजे को पढ़ने-लिखने की खातिर बड़े शौक से बीबी कॉलेजिएट, मुजफ्फरपुर में दाखिला कराया था। स्व. शुक्ल की मां उनके बचपन में ही गुजर गयी थी। शायद नियति ने इनकी तकदीर में भारत माता की सेवा लिख रखी थी इसीलिए। खुदी राम बोस की शहादत का यह दौर था और भारत के इस पहले शहीद की अमिट छाप स्व. शुक्ल के दिलो-दिमाग पर पड़ गयी थी।

खुदीराम को आदर्श मानकर ये भी उसी डगर पर चल पड़े। सशस्त्र क्रांति को आजादी का कारगर रास्ता मानने वाले योगेंद्र शुक्ल अहिंसा के मसीहा बापू के भी विशेष स्नेहभाजन थे। चंपारण से वर्धा तक उन्होंने बापू का सक्रिय रूप से साथ दिया था। साबरमती में स्व. शुक्ल बापू के हर आदेश को सिर आंखों पर लेते थे। सिवाय प्रार्थना में शामिल होने के। शिकायत हुई मगर बापू ने कहा कि उसे इसकी जरूरत नहीं। प्रार्थना से प्राप्त होने वाली शक्ति उसके अंदर जन्मजात है। 34 के भूकंप के बाद जब बापू हाजीपुर और लालगंज आये थे तब उन्होंने योगेंद्र शुक्ल से मिलने की इच्छा जताते हुए उनके घर का पता पूछा था। मगर उस वक्त गोरों की आंख की किरकिरी बन चुके योगेंद्र शुक्ल अंडमान में काला पानी की सजा काट रहे थे। गोरों के जुल्म से उनके आंखों की रोशनी चली गयी थी और उन्होंने अपनी आंखों को मुल्क के नाम कुर्बान कर दिया था। 19 नवंबर 1965 को पीएमसीएच में आखिरी सांस लेने वाले स्वतंत्रता संग्राम के इस महानायक की जीवन कथा ऐसे-ऐसे अविश्वसनीय दुस्साहसी कारनामों से भरी पड़ी है कि वे किवंदिती लगती है। चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह के अतिविश्वस्त सेनापति योगेंद्र शुक्ल में आंतरिक जीवट और शारीरिक शक्ति कूट-कूट कर भरी पड़ी थी। आगरा कैंट के आगे पूरी रफ्तार में चलती ट्रेन से कूद जाने की घटना हो या सोनपुर पुल से उफनती नारायणी में छलांग लगाने का वाक्या, या फिर हजारीबाग सेंट्रल जेल की अभेद सुरक्षा को तार-तार कर दीवार फांद कर लोक नायक जयप्रकाश नारायण, सूर्य नारायण सिंह को कांधे पर बिठा कर सैकड़ों मील दूर नेपाल ले जाने का प्रसंग ये सब अविश्वसनीय से लगते हैं। अंग्रेजों के लिए आतंक के प्रतीक वैशाली के इस अमर लाल योगेंद्र शुक्ल का जीवन चरित अखबार के पन्नों में समेटा नहीं जा सकता। कोई भी किताब कम पड़ेगी। संवेदनशील लोगों को इस बात का मलाल है कि सत्ताधारियों को भी बड़ी देर से इस महापुरुष की याद आयी और यहां की जनता ने तो कृतघन्ता की हद ही कर दी थी। 1952 में जब यहां विधानसभा का पहला चुनाव हुआ था तो वे यहां से खड़े हुए थे। मगर उन्हें उन्हीं की धरती के लोगों ने जमानत बचाने लायक तक नहीं समझा और उनकी जमानत जब्त हो गयी। यह कलंक शायद आज तक इस इलाके को घुन की तरह खा रहा है। हालांकि फिर बाद में वे प्रजा समाजवादी पार्टी की ओर से विधान पार्षद बने। वहां भी उन्होंने सादगी की मिसाल कायम की और ताउम्र इकलौते कमरे में जिंदगी बसर करते रहे। जब वे गंभीर रूप से बीमार पड़े तो इलाज के पैसे भी नहीं थे। बाद में फजीहत के डर से सरकार ने सुध ली और प्रायश्चित किया। उनके चरित्र की अदभूत शक्ति की एक बानगी कांग्रेस के ऐतिहासिक त्रिपुरी अधिवेशन में देखने को मिली थी जब गांधी जी ने पत्ताढीरमैया को अपना खुला समर्थन देते हुए कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष पद के चुनाव को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। प्रतिद्वंद्वी नेता सुभाष चंद्र बोस थे और योगेंद्र शुक्ल ने बोस को न सिर्फ खुल्लम-खुल्ला समर्थन दिया बल्कि उन्हें विजयी भी बनाया, जो कांग्रेस के विभाजन का कारण बना। देर आयत दुरूस्त आये की तर्ज पर एयर कंडीशन कमरों में बैठे सत्ता के मालिकों ने इस व्यक्तित्व की महानता को स्वीकृति दी है।

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