Diwali 2022: प्रकृति संरक्षण से पुरखों के सम्मान की परंपराओं से प्रज्वलित दीपोत्सव
Diwali 2022 दीप पर्व। ऐसा महोत्सव जो जीवन के साथ विचारयात्रा को भी उल्लासित और प्रकाशित करता है। भगवान राम के रावण पर विजय के बाद अयोध्या जी लौटने के उत्सव के रूप में मनाए जाने वाले दीपोत्सव के देश में कई रंग-रूप हैं।
By Jagran NewsEdited By: Sanjay PokhriyalUpdated: Sat, 22 Oct 2022 05:22 PM (IST)
अर्जुन जायसवाल, पश्चिम चंपारणः बिहार में वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के आसपास बसी थारू जनजाति के घरों में दीपावली के दिन न तो जगमगाती झालर दिखती है और न ही बिजली की कोई सजावट। मोमबत्ती भी नहीं जलाई जाती है। गणेश-लक्ष्मी का पूजन या आतिशबाजी नहीं होती। ऐसा नहीं है कि वह दीपावली नहीं मनाते। थारू जनजाति दो दिन तक दीपोत्सव मनाती है, लेकिन प्राकृतिक तरीके से। वह अन्न-जल के साथ अग्निदेव एवं पशु की पूजा करते हैं। पूजा में प्रकृति से मिली वस्तुओं का ही उपयोग करते हैं। सिर्फ अपने खेत की मिट्टी के दीप जलाते हैं। पूर्वजों को दीपों से श्रद्धांजलि देते हैं।
213 गांवों में परंपरा
पश्चिम चंपारण के बगहा दो, रामनगर, गौनाहा, सिकटा व मैनाटांड़ प्रखंडों के 213 गांवों में थारू जनजाति की करीब तीन लाख आबादी रहती है। यहां दीपावली 'दीयराई' के रूप में भी प्रचलित है। थारू दीपोत्सव की शुरुआत धान की फसल काटने से करते हैं। धान का पौधा काटकर उसे ब्रह्मस्थान यानी ग्राम देवता पर चढ़ाकर पूजा की शुरुआत करते हैं। फिर रसोई घर में पश्चिम और उत्तर दिशा के कोने में हाथों से बनाए मिट्टी के दीये जलाते हैं, ताकि अन्न की कमी न हो। इसके बाद कुआं या चापाकल (हैंडपंप) पर दीया जलाते हैं। इसके बाद ब्रह्मस्थान और मंदिर में दीपोत्सव करते हैं, फिर घर को दीपों से जगमग करते हैं। अंत में दहरचंडी (अग्निदेव) के समक्ष दीप जलाकर गांव की सुरक्षा की प्रार्थना करते हैं। इसके बाद बड़ी रोटी अर्थात खाने का कार्यक्रम होता है। इसकी व्यवस्था में प्रायः वही सामग्री प्रयोग में लाते हैं, जिसे अपने खेत में पैदा करते हैं। इस आयोजन में निकटतम संबंधियों सहित परिवार के लोग ही शामिल हो सकते हैं।
पश्चिम चंपारण के छत्रौल डीह टोला में घर में धान की बाली चढ़ाने के साथ दीया जलाते बच्चे। फाइल फोटो : सौजन्य ग्रामीण
दो दिन का होता उत्सव
दीयराई के अगले दिन 'सोहराई' मनाते हैं। हर घर में मांस-मछली और गोजा-पिट्ठा बनाने का रिवाज है। पशुओं को चावल के आटे का लेप लगाया जाता है। फिर उन्हें कोहड़ा (कद्दू या सीताफल) में हल्दी और नमक मिलाकर प्रसाद के रूप में खिलाया जाता है। पहले सोहराई के दिन भैंसा और सुअर को लड़ाने का खेल भी होता था। सुअर को लाल अबीर से रंगा जाता था, जबकि भैंसों की सींग सजाई जाती थी। सुअर को भैंसा मार देता था और उसे पकाकर प्रसाद के रूप में बांटा जाता था। वन्य जीव संरक्षण कानून बनाने के बाद इसे बंद कर दिया गया।महिलाएं खुद बनातीं दीये
भारतीय थारू कल्याण महासंघ के अध्यक्ष दीपनारायण प्रसाद कहते हैं कि महिलाएं खुद मिट्टी लाकर दीये बनाती हैं। अपने खेतों से उत्पादित सरसों को बचाकर दीपावली के लिए रखती हैं। खाना भी उसी तेल से बनता है। अधिकाधिक प्राकृतिक चीजों का ही उपयोग किया जाता है। रीति रिवाज में धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है, लेकिन परंपराएं आज भी जीवित हैं।
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