FPIs ने किया भारतीय इक्विटी का रुख, 6 महीने बाद बने शुद्ध खरीदार, 7707 करोड़ रुपये निवेश किए
विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने अक्टूबर 2021 से मार्च 2022 तक इक्विटी से 1.48 लाख करोड़ रुपये बाहर निकाले लेकिन अप्रैल के पहले सप्ताह में तस्वीर कुछ अलग नजर आई। 1 से 8 अप्रैल के दौरान FPIs ने भारतीय इक्विटी में 7707 करोड़ रुपये का शुद्ध निवेश किया है।
By Lakshya KumarEdited By: Updated: Mon, 11 Apr 2022 07:06 AM (IST)
नई दिल्ली, पीटीआइ। छह महीने की बिकवाली के बाद विदेशी निवेशकों ने अप्रैल में अब तक भारतीय इक्विटी में 7,707 करोड़ रुपये का निवेश किया और शुद्ध खरीदार बन गए। इन दिनों बाजारों में सुधार ने उन्हें खरीदारी का अच्छा अवसर दिया है। डिपॉजिटरीज के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (FPIs) ने 1 से 8 अप्रैल के दौरान भारतीय इक्विटी में 7,707 करोड़ रुपये का शुद्ध निवेश किया है। इक्विटी के अलावा एफपीआई ने समीक्षाधीन अवधि के दौरान ऋण बाजारों में 1,403 करोड़ रुपये लगाए हैं।
यह इनफ्लो विदेशी निवेशकों द्वारा अक्टूबर 2021 से मार्च 2022 तक पिछले छह महीनों में इक्विटी से 1.48 लाख करोड़ रुपये बाहर निकालने के बाद आया है। हालांकि, वह पिछले दो कारोबारी सत्रों के दौरान शुद्ध विक्रेता रहे हैं। इससे लगता है कि एफपीआई प्रवाह में अभी भी निश्चितता की कमी है। इससे पहले विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने सिर्फ पिछले दो महीनों (फरवरी और मार्च) में ही शुद्ध रूप से 8,705 करोड़ रुपये निकालने थे।
विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों के इनफ्लो पर विशेषज्ञों की राय
मॉर्निंगस्टार इंडिया के एसोसिएट डायरेक्टर मैनेजर रिसर्च हिमांशु श्रीवास्तव ने कहा कि एफपीआई प्रवाह के संबंध में इसे प्रवृत्ति में बदलाव कहना अभी थोड़ी जल्दबाजी होगी। इसलिए, अधिक स्पष्टता के लिए यह देखना समझदारी होगी कि अगले कुछ हफ्तों या महीनों में कैसा परिदृश्य सामने आता है। श्रीवास्तव ने कहा कि इक्विटी बाजारों में हालिया सुधार ने निवेश के अवसर खोले हैं, जिन्हें एफपीआई ने एक अच्छे एंट्री पॉइंट के रूप में लिया है।
कोटक सिक्योरिटीज के हेड-इक्विटी रिसर्च (खुदरा) श्रीकांत चौहान ने कहा कि कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी और मुद्रास्फीति सहित अन्य प्रतिकूल परिस्थितियों को देखते हुए निकट भविष्य में FPIs का प्रवाह अस्थिर रहने की उम्मीद है। वहीं, अपसाइड एआई के संस्थापक अतनु अग्रवाल ने कहा कि अमेरिका और यूरोप में मुद्रास्फीति कई दशक के उच्चतम स्तर पर है और यहां आरबीआई अभी सहनशील बना हुआ है।