क्या विकास के लिए धीमा जहर है रेवड़ी कल्चर? हिमाचल ने राज्यों के लिए बजाई खतरे की घंटी
भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश में जन कल्याणकारी योजनाओं की अहमियत को नकारा नहीं जा सकता है। लेकिन यह चेतने का समय है कि सरकारें बेछूट रेवड़ी गैर-उत्पादक खर्च से बचाव का रास्ता निकालें। भारत जैसे देश में हर तीसरे महीने किसी न किसी विधानसभा चुनाव हो रहा होता है। इस नाते राजनीतिक दलों में चुनाव जीतने के लिए रेवड़ी संस्कृति बढ़ती जा रही है जो चिंता की बात है।
जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। अपनी वित्तीय स्थिति को लेकर कुछ दिनों से हिमाचल प्रदेश चर्चा में है। मुख्यमंत्री समेत पूरी कैबिनेट और कई अन्य शीर्ष पदाधिकारियों का वेतन दो महीने के लिए लंबित कर दिया गया है तो कर्मचारियों के वेतन सप्ताह भर और पेंशन लगभग दस दिन विलंबित रहे क्योंकि फंड नहीं था। माना जा रहा है कि राज्य सरकार इस कवायद से महीने में तीन चार करोड़ रुपये की बचत कर लेगी। इसे वित्तीय अनुशासन का नाम दिया जा रहा है जबकि यह लाचारगी और बेबसी है क्योंकि डीजल पर वैट बढ़ाने से लेकर दूसरी कई सेवाओं में टैक्स बढ़ोतरी शुरू हो चुकी है।
हिमाचल तो एक उदाहरण है, पंजाब, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश जैसे कई राज्य हैं जो कर्ज के बोझ में इतने दबते जा रहे हैं कि देर हुई तो जनता को ही भुगतना होगा। वहीं, बिहार, झारखंड, ओडिशा, तेलंगाना, उत्तराखंड जैसे राज्य भी हैं जिनको तत्काल अपने राजस्व बढ़ाने के लिए उपाय ढूंढने होंगे। या फिर तत्काल खर्च कटौती की राह पर चलना होगा। हिमाचल ने एक चेतावनी दी है, पूरे देश को इसकी प्रतिध्वनि सुनाई देनी चाहिए वरना हर किसी को हर्जाना भरना पड़ सकता है।
राज्यों के वित्तीय हालात और इसमें सुधार की जरूरत पर दैनिक जागरण शनिवार से खबरों के एक अभियान की शुरूआत कर रहा है। वैश्विक स्तर पर यूं तो कई उदाहरण होंगे लेकिन दक्षिण अमेरिकी देश वेनेजुएला सबसे ज्वलंत उदाहरण है जो भ्रष्टाचार के साथ साथ अपनी गलत नीतियों, रेवडि़यों और वक्त रहते निवेश के अभाव के कारण सबसे अमीर देशों की श्रेणी से घटकर वित्तीय संकट के काल में पहुंच गया।
भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश में जन कल्याणकारी योजनाओं की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता है, लेकिन यह चेतने का समय है कि बेछूट रेवड़ी, गैर उत्पादक खर्च से बचाव का रास्ता निकालें। भारत जैसे देश में हर तीसरे महीने किसी न किसी विधानसभा का चुनाव हो रहा होता है और इस नाते राजनीतिक दलों में चुनाव जीतने के लिए रेवड़ी संस्कृति बढ़ती जा रही है। भले ही इसके लिए राज्यों पर कर्ज बढ़ता जा रहा है।
नतीजा यह है कि हर राज्य अपने राजस्व प्राप्ति का 80 फीसद तो सैलरी, पेंशन जैसे फिक्स्ड खर्च पर ही व्यय कर रहा है। औसतन 20 फीसद सामाजिक और विकास कार्यों के लिए बच रहा है। एक उदाहरण तो कर्नाटक जैसे विकसित राज्य का भी है जहां राजस्व प्राप्ति से अधिक फिस्क्ड खर्च है। लिहाजा विकास कार्यों पर साल भर से लगभग रोक जैसी स्थिति है। इससे बाहर आने के लिए राज्य सरकारें अलग अलग मद में टैक्स बढ़ाती है या फिर सेवाओं की गुणवत्ता खराब होती है। जरूरत है फिस्क्ड खर्च घटाने की और आमदनी बढ़ाने की।
स्पष्ट है कि मुफ्त कुछ भी संभव नहीं है। आज की रेवड़ी और सब्सिडी का लाभ अगर आप ले रहे हैं तो सूद समेत उसका भुगतान अगली पीढ़ी को करना ही होगा। राजनीतिक दलों को भी इसका अहसास होना चाहिए कि लोकलुभावन घोषणाएं उस तक ही सीमित होनी चाहिए जितनी पूरी हो सकती है।चुनाव आयोग ने कुछ वर्ष पूर्व सुझाव दिया था कि घोषणापत्र में जो दावे किए जाते हैं उसे पूरा करने का वित्तीय रोडमैप भी बताया जाना चाहिए। यानी राजनीतिक दल राज्यों की वित्तीय स्थिति को समझें। निवेश के रास्ते अपनाएं, जनता को सहूलियत के साथ राजस्व बढ़ाएं। खजाने की कीमत पर न तो राजनीति होनी चाहिए न ही शासन।