UPS vs NPS : यूनिफाइड पेंशन स्कीम से लाख गुना बेहतर हो सकती थी एनपीएस, गड़बड़ी कहां हुई?
नेशनल पेंशन सिस्टम (NPS) को अटल बिहारी वाजपेयी सरकार लाई थी। 2009 में इसे निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए भी खोल दिया गया। इसका मकसद पुरानी पेंशन योजना (OPS) की जगह लेना था जो सरकारी खजाने पर भारी बोझ डाल रही थी। हालांकि सरकारी कर्मचारियों ने इसका शुरू से ही विरोध किया जो अब तक जारी था। यही वजह है कि सरकार अब यूनिफाइड पेंशन स्कीम लाई है।
धीरेंद्र कुमार, नई दिल्ली। सरकार ने हाल ही में यूनिफाइड पेंशन योजना (यूपीएस) नाम की एक नई स्कीम की घोषणा की है, जो केवल सरकारी कर्मचारियों के लिए बने नेशनल पेंशन सिस्टम (एनपीएस) का एक संशोधन है। इस नई स्कीम के इर्द-गिर्द छाए शब्दाडंबर के बादल हटा दिए जाएं, तो ये सरकारी कर्मचारियों की रिटायरमेंट पेंशन में गारंटी को वापस ले आया है। सैद्धांतिक स्तर पर, ये नई गारंटीकृत पेंशन वैकल्पिक है और कर्मचारी एनपीएस को भी चुन सकते हैं। मगर व्यवहारिक नजरिए से देखें तो सरकारी कर्मचारियों के लिए एनपीएस का अंत हो चुका है।
ये एक सरल सत्य है। अगर नेशनल पेंशन सिस्टम को 2004 से ही उसी भावना से लागू किया गया होता, जिस भावना से इसे डिजाइन किया गया था तो 2004 से पहले के सरकारी कर्मचारी (जो अभी भी पुराने सिस्टम पर हैं) एनपीएस में ट्रांसफर पाने के लिए आंदोलन कर रहे होते। क्यों? उन्हें अब तक, समझ आ गया होता कि एनपीएस पुराने पेंशन सिस्टम की तुलना में आसानी से 300-400 प्रतिशत ज्यादा पेंशन देगा!
अपनी अवधारणा में एनपीएस शानदार ढंग से काम करता है। मगर सिर्फ और सिर्फ तब, जब धन का एक बड़ा हिस्सा इक्विटी में निवेश किया गया हो। दूसरे शब्दों में, अगर भारतीय अर्थव्यवस्था की भारी बढ़ोतरी को शेयर बाजारों के जरिये एनपीएस और फिर पेंशन में डाला जाता, तो पेंशन कहीं.. कहीं ज्यादा होती। 2004 में, जब नए सरकारी कर्मचारियों को एनपीएस में शामिल किया गया था, तब सेंसेक्स पांच हजार अंक के करीब था। आज, ये 80 हजार अंक के आसपास पर है। मगर पेंशन के मामले में ये सब बर्बाद और बेकार रहा।
ये दो तरह से बेकार रहा। सबसे पहले, 2004 से 2009 तक एनपीएस के इक्विटी निवेश वाले हिस्से पर बिल्कुल अमल नहीं किया गया। पैसा सामान्य सरकारी प्रतिभूतियों के रेट पर ही पड़ा रहा। फिर, उसके बाद, अधिकतम इक्विटी एक्सपोजर को डिफाल्ट के तौर पर हास्यास्पद रूप से 15 प्रतिशत पर रखा गया। इक्विटी को लेकर इस बेबुनियाद मगर संस्थागत भय ने एनपीएस के किसी भी फायदे के मौके को खत्म कर दिया।
मुझे यकीन है कि अभी भी कुछ सरकारी कर्मचारी हैं, चाहे कितने भी कम हों; जो ये सब समझते हैं, उनके लिए एनपीएस मुनाफा पाने का एक सरल विकल्प है जो उन्हें यूपीएस की तुलना में बहुत ज्यादा पेंशन दिलाएगा। एक बार जब आपका पैसा एनपीएस में लगा दिया जाता है, तो आप सीधे सीआरए वेबसाइट पर अपने खाते तक पहुंच सकते हैं और सबसे ज्यादा इक्विटी वाला विकल्प चुन सकते हैं। आदर्श रूप से, ये कम से कम 50 साल की उम्र तक किया जाना चाहिए और आदर्श तौर पर, ये डिफाल्ट विकल्प होना चाहिए था।
अगर कोई इस बात के बुनियादी कारणों का विश्लेषण करता है कि ये सब क्यों हुआ, तो मौजूदा राजनीति की दशा और सरकारी कर्मचारियों की मानसिकता को भी इसका दोष मिलना चाहिए। हालांकि, जो हो गया सो हो गया; अब इतिहास के इन वैकल्पिक परिदृश्य को गढ़ने का कोई मतलब नहीं है।जहां तक एनपीएस के गैर-सरकारी सदस्यों की बात है, तो सबक साफ है: एनपीएस एक बेहतरीन रिटायरमेंट सिस्टम है। लेकिन ज्यादा से ज्यादा लाभ पाने के लिए, जहां तक संभव हो, लंबे समय तक इक्विटी के हिस्से को अधिकतम रखना चाहिए। बेशक, यही बात हर लंबे समय के निवेश पर लागू होती है, न कि सिर्फ एनपीएस पर।
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